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वाह रे पवनपूत

असविन्द द्विवेदी

प्रकाशक : गुफ्तगू पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 16273
आईएसबीएन :9788192521898

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पवनपुत्र हनुमान जी पर अवधी खण्ड काव्य

'वाह रे पवनपूत' का दूसरा संस्करण

 

भारत ऋषियों-महर्षियों, सूफी संतों और फकीरों की साधना भूमि रही है। भारतीय जनमानस में भक्ति का भाव सुई में धागे की तरह पिरोया है। भक्ति के बगैर जीवन बिना प्राण शरीर की तरह है। भगवान राम हमारे आराध्य देव हैं। 'राम बिना दुख कौन हरे, बरखा बिनु सागर कौन भरे', ऐसा विश्वास नानी और दादी के ज़माने से चलता चला आया है। परंतु राम का रामत्व हनुमान के बगैर पूरा नहीं होता। इसीलिए भारतीय लोक जीवन की भक्ति-सरिता स्वतः स्पूहर्त हनुमान जी के चरणों में प्रवाहित हो जाती है। इसी भावना के वशीभूत होकर जनपद अमेठी के ग्राम पूरे सधई मिश्र (अफोइया) गौरीगंज में जन्में अवधी भाषा के प्रतिष्ठित कवि स्वर्गीय असविन्द द्विवेदी ने 'वाह रे पवनपूत' की रचना कर अवधी के सशक्त रचनाकार होने का परिचय दिया। समय का खेल कहें या कि अवधी साहित्य का दुर्भाग्य कि मात्र 42 वर्ष की अल्पायु में उनका देहांत हो गया। स्व. असविन्द द्विवेदी द्वारा सरल, सुबोध अवधी में लिखी गयी यह रचना पाठक के हृदय की गहराइयों में उतर जाती है। अवधी लोक जीवन में प्रचलित शब्द, लोकोक्तियां और मुहावरे कवि की कल्पनाशीलता के सहारे नई ऊंचाइयों तक पहुंच जाते हैं। 'वाह रे पवनपूत' सरस प्रवाहपूर्ण भाषा में लिखी गई है जो सुन्दर छन्द विधान के साथ चलती हुई पाठकों को अलौकिक आनन्द प्रदान करती है।

स्व. असविन्द द्वारा रचित इस काव्य की कमनीयता और रचना वैशिष्टय के साथ हमें इस पक्ष को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि इनके इस काव्य ने अवधी के शब्दों, लोकोक्तियों और मुहावरों को लुप्त होने से बचा दिया। इक्कीसवीं सदी के इस दौर में जहां हमारी लोक संस्कृति और लोक भाषा विलुप्त होती जा रही है, वहीं असविन्द द्विवेदी की रचनाशीलता का सहारा पाकर अवधी भाषा एक बार फिर से उठ खड़ी हुई है। आज की युवा पीढ़ी तथाकथित आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपने पुरखों द्वारा स्थापित प्रतिमानों, भाषा और संस्कृति को भुला बैठी है। अवध क्षेत्र से अवधी, बुंदेलखण्ड से बुंदेली, रीवां क्षेत्र से बघेली तथा अन्य क्षेत्रों से वहां की लोक भाषा तिरोहित होती जा रही है। 'वाह रे पवनपूत' के माध्यम से स्व. असविन्द जी ने अपने काव्य विधान में अवधी का प्रयोग कर लोक भाषा को जिंदा रखने का अभिनव कार्य किया।

हनुमान के 'अतुलित बल धामम्' और अलौकिक स्वरूप का वर्णन असविन्द ने इतने सुन्दर ढंग से किया है कि यह भाषा जैसे उठकर खड़ी हो गयी हो। मेघनाथ के शक्ति प्रहार से मूर्छित लक्ष्मण, राम का विलाप और सूर्योदय से पूर्व संजीवनी लाने की शर्त से पूरे रामदल में शोक की सरिता प्रवाहित हो रही है। इन स्थितियों में हनुमान का वीरोचित स्वरूप सामने आना और साक्षात मौत को ललकारना असविन्द जी की कलम से ही संभव मा भाषा का स्वरूप इन लाइनों में देखने योग्य है -

नोचि-नाचि, मांजि-मांजि गारि के चरनमाँ कऊ,
अमृत निकारि के लखन कअँ पियाइ देब।
अथवा पताल फोरि ल्याय के पीयूष घट,
लखन के मुँह डारि छिन म जियाइ देब।
'असविन्द' सुरुज कअ राहु मुख मअँ घुसेरि,
निसरि न पावै अस जतन से ताइ देब।
नहीं तो कृपानिधान मौत कऊ पटकि मारि,
दुनियाँ के मरै वाला झंझटै मिटाइ देब।।

कुल मिलाकर कवि की यह कालजयी रचना अवधी भाषा और संस्कृति को समन्द बनाने में मील का पत्थर साबित होगी।

मेरे संज्ञान में आया है कि स्व. असविन्द द्विवेदी के देहावसान के दो दशक बाद उनके गाँव के निकट के निवासी श्री कण्व कुमार मिश्र ने अपने संसाधनों से 'वाह रे पवनपूत' का द्वितीय संस्करण छपाने का बीड़ा उठाया है। श्री मिश्र पुलिस विभाग के जांबाज इस्पेक्टर हैं. जो आजकल औरैया में तैनात हैं। पुलिस की कठोर कर्मशैली के बावजूद श्री कण्व कमार मिश्र के व्यक्तित्व में साहित्य की कोमल धारा प्रवाहित होती है। 'इश्क सुल्तानपुरी' के नाम से वह शायरी करते हैं। अपनी रचनाओं के चलते शायरों व कवियों की जमात में उन्हें विशेष सम्मान और आदर से देखा जाता है। उनकी रचनाएं समाज की एकता और अखण्डता के लिए समर्पित रहती हैं। विभाग में अपनी विशिष्ट कार्यशैली के लिए जाने जाने वाले श्री मिश्र ने तमाम आपराधिक घटनाओं को वर्कआउट कर विभाग में अपनी अलग छवि बनाई है। साहित्यानुरागी श्री कण्व कुमार मिश्र को 'वाह रे पवनपूत' का द्वितीय संस्करण प्रकाशित कराने के लिए दिल की गहराइयों से बधाई। गुफ्तगू प्रकाशन के मुखिया इम्तियाज़ अहमद गाज़ी को भी इस पुस्तक के प्रकाशन में महती भूमिका का निर्वहन करने के लिए साधुवाद देता हूँ।

- मुनेश्वर मिश्र

सलाहकार सम्पादक
हिन्दी दैनिक सहजसत्ता,
ए-24, पत्रकार कालोनी,
अशोक नगर, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश
मोबाइल नंबर : 9415218698


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