जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
|
0 |
आधुनिक भारत के निर्माता
कांग्रेस में एकता लाने की दृष्टि से विधान के प्रथम अनुच्छेद को संशोधित करने के सम्बन्ध में तिलक और नरम दल के नेताओं के बीच जो लम्बी बातचीत हुई, उस पर स्थानाभाव के कारण यहां विचार करना सम्भव नहीं है। बस, इस बारे में इतना ही बता देना पर्याप्त होगा कि तिलक ने इस एकता को अपने सारे कार्यक्रम का आधार बना लिया और जब तक लखनऊ कांग्रेस (दिसम्बर, 1916) में दोनों दलों में मेल नहीं हो गया, तब तक उन्होंने चैन की सांस न ली। इन दो वर्षों की समझौता वार्ता से यह स्पष्ट हो गया कि उन्हें अपने उद्देश्य के प्रति पूर्ण आस्था थी और वह एक कुशल राजनीतिज्ञ थे।
फिरोजशाह मेहता और गोखले के नेतृत्व में कांग्रेस के नरम दल के नेताओं ने तिलक और उनके समर्थकों के कांग्रेस में फिर से सम्मिलित होने के प्रयत्नों का विरोध किया। मेहता ने तिलक की एकता-सम्बन्धी अपील को ''तत्वहीन भावुकता'' बताया और कहा कि ''मेरे विचार से तो विभिन्न विचारों के लोगों को अपनी-अपनी अलग कांग्रेस बनानी चाहिए, क्योंकि उनको किसी एक संस्था में मिलाकर रखने से एक-दूसरे को समझना कठिन हो जाता है और विभिन्न विचारों के लोग उस संस्था को अपनी अपनी दिशाओं में ले जाना चाहते हैं। फलतः यह पता लगाना भी सम्भव नहीं हो पाता कि किसी खास मसले पर इन बिचारधाराओं में किस सीमा तक मतभेद है।
इतिहास के विद्यार्थी के सामने आज यह स्पष्ट है कि मेहता ने उस समय सीधा दिखाई देनेवाला जो रास्ता सुझाया, उससे कांग्रेस के बिघटन को ही बल मिला और इस प्रकार वह उस सरकार के हाथ का खिलौना बन गए, जो जनता के मतभेदों से लाभ उठाने में कभी नहीं चूकती थी, दरअसल मेहता की आंखों पर अनुचित पूर्वाग्रहों और संदेहों का पर्दा इस कदर पड़ा हुआ था कि वह अन्त तक राष्ट्रवादियों (नेशनलिस्टों) के कांग्रेस में वापस आने का विरोध करते रहे।
परन्तु दूसरी ओर गोखले अधिक व्यावहारिक व्यक्ति थे। वह चाहते थे कि यदि सम्मानजनक शर्तों पर मेल हो सके, तो गरम दलवाले कांग्रेस में वापस आ जाएं-इसमें कोई हर्ज नहीं है। इस सम्बन्ध में दिसम्बर, 1914 में श्रीमती एनी बेसेन्ट के अनुरोध पर तिलक और गोखले में प्रथम बार बातचीत हुई। गोखले ने नरम और गरम दलवालों के मतभेद को ठीक-ठीक समझा। उन्होंने सर भूपेन्द्रनाथ बसु को एक गुप्त पत्र में लिखा-
''तिलक ने कांग्रेस के महामन्त्री सुब्बा राव से स्पष्ट शब्दों में कहा है कि यद्यपि मैं मानता हूं कि कांग्रेस का लक्ष्य बिट्रिश साम्राज्य के अन्तर्गत ही वैधानिक तरीकों से देश का स्वशासन प्राप्त करना है, फिर भी मैं कांग्रेस के इस रवैये से बिल्कुल सहमत नहीं हूं कि जहां सम्भव हो, वहां सरकार की सहायता की जाए और जहां आवश्यक हो, वहां उसका विरोध किया जाए। इसके विपरीत तिलक आयरलैण्ड के असहयोगियों की तरह वैधानिक सीमाओं के अन्दर रहकर सरकार का सीधा और स्पष्ट विरोध करना चाहते हैं।
|
- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट