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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

''तिलक यहां की अंग्रेजी सरकार ओर इंग्लैण्ड की जनता के सम्मुख एक ही मांग रखना चाहते हैं और वह है भारत को स्वशासन देना और जब तक उनकी यह मांग पूरी नहीं की जाती, तब तक वह अपने देशवासियों से बराबर अनुरोध करते रहेंगे कि कोई भी व्यक्ति सरकारी नौकरी, विधान परिषद और स्थानीय निकायों तथा नगरपालिकाओं में भाग न ले। उन्हें विश्वास है कि कानून की सीमा में रहते हुए सरकार के हर कार्य में बाधा डालकर प्रशासन को ठप्प और सरकार को यह मांग स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जा सकता है।''

किन्तु यह स्पष्ट नहीं कि सुब्बा राव ने तिलक के विचारों को ठीक-ठीक समझा था या नहीं, क्योंकि यह तो उन घटनाओं और स्थिति की भविष्यवाणी जान पड़ती है, जो 1920 में, जिस वर्ष तिलक का देहावसान हुआ, घटीं। किन्तु इस पत्र से यह स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस के दोनों दलों के बीच मतभेद की खाई कितनी चौड़ी थी और नरम दलवाले किन आशंकाओं के शिकार थे।

तिलक ने कभी भी अपने विचारों को छिपाने का प्रयत्न नहीं किया। 'केसरी' में प्रकाशित एक प्रसिद्ध लेख में उन्होँने पूछा-''जैसी कि खबर मिली है, गोखले ने जो यह कहा है कि तिलक कांग्रेस पर कब्जा कर लेगे, उससे क्या लाभ है? कांग्रेस राष्ट्र की संस्था है, न कि यह गोखले या तिलक की कोई निजी सम्पत्ति है। कांग्रेस अपनी नीति स्वयं निर्धारित करेगी, न कि कोई व्यक्ति विशेष। हर सदस्य को अधिकार है कि कह कांग्रेस के सम्मुख अपने विचार रखे और उन विचारों को बहुमत से स्वीकृत कराने का प्रयत्न करे। और जब तक वे विचार नियमानुकूल और वैधानिक हैं, तब तक कोई भी उन्हें दबा नहीं सकता।''

इस उद्धरण से स्पष्ट है कि तिलक जहां राजनैतिक विवाद को बड़े उत्साह से चलाते थे, वहीं लोकतांत्रिक सिद्धान्तों पर भी उनकी अटूट आस्था थी। सूरत कांग्रेस के समय उन्होंने जो रुख अख्तियार किया था, वही रुख उन्होंने अबकी बार भी अपनाया और आगे चलकर समय ने उनकी दोनों स्थितियों में उन्हीं के विचारों को उचित सिद्ध किया।

फरवरी, 1915 में गोखले की और इसके आठ महीने बाद फिरोजशाह मेहता की मृत्यु से राष्ट्रवादियों (नेशनलिस्टों) का कांग्रेस में फिर से वापस आना सहन हो गया। उनमें से कुछ की इच्छा थी कि दिसम्बर, 1915 में आयोजित बम्बई कांग्रेस में यदि प्रतिनिधि होकर नहीं तो, दर्शक रूप में वे अवश्य भाग लें। परन्तु तिलक ने उनको समझा-बुझाकर राजी कर लिया कि जब तक कांग्रेस की नीति में परिवर्तन नहीं हो जाता, तब तक वे उसके अधिवेशन में भाग न लें। वहां के अधिवेशन में एक महत्वपूर्ण कदम इस दिशा में उठाया गया और कांग्रेस के विधान को संशोधित करके उसका दरवाजा राष्ट्रवादियों (नेशनलिस्टों) के प्रवेश के लिए खोल दिया गया। अब राष्ट्रवादी (नेशनलिस्ट) ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत वैधानिक तरीकों से स्वशासन प्राप्त करने का लक्ष्य माननेवाली दो वर्ष पुरानी किसी भी संस्था के तत्वाधान में आयोजित सार्वजनिक सभाओं द्वारा कांग्रेस के प्रतिनिधि निर्वाचित हो सकते थे। तिलक ने इस संशोधन का स्वागत किया।


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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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