लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

Like this Hindi book 0

आधुनिक भारत के निर्माता

तुम्हारा तार पाकर बहुत दुखी हुआ। मुझे शान्तिपूर्वक अपने दुर्भाग्य को सहने का अब अभ्यास-सा हो गया है, किन्तु इस बार के धक्के से तो मैं हिल सा गया हूं। जैसा कि हम लोगों का विश्वास है, उसके अनुसार पत्नी की मृत्यु पति से पूर्व ही होनी चाहिए। मुझे इस बात से अधिक दुख हुआ कि मैं ऐसे समय में भी उनके पास नहीं था। लेकिन ऐसा होना ही था। मुझे इस बात का डर सदा बना रहता था और अन्त में वही हुआ भी। लेकिन अपने दुखों को बताकर मैं तुम्हें और दुखी करना नहीं चाहता। मेरे जीवन का एक अध्याय अब समाप्त हो गया और लगता है, दूसरा अध्याय भी शीघ्र ही समाप्त होगा। उनके अन्तिम संस्कार उचित ढंग से करना और उनके इच्छानुसार ही उनका भस्मावशेष त्रिवेणी में प्रवाहित करने के लिए प्रयाग या अन्य किसी स्थान पर भेज देना। बिल्कुल उनकी अन्तिम इच्छा के अनुसार ही सब काम करना। उनके निजी सामान और जेवरों की सूची बनाकर उन्हें मेरे रिहा होकर वापस लौटने तक ताले में बन्द रखना। मेरा विश्वास है कि मभू और दुर्गी (तिलक की पुत्रियां) अभी वहीं होंगी। उनके साथ-साथ रामभाऊ तथा बापू (उनके पुत्रों) को इसका बहुत दुख हुआ होगा, विशेषकर मेरी अनुपस्थिति में तो और अधिक। उनसे कहना कि इनसे भी बहुत कम अवस्था में ही मैं अनाथ हो गया था। इसलिए दुखी न हों : दुख और दुर्भाग्य से तो अपने ऊपर निर्भर होने की शक्ति प्राप्त होती है।''

कई पत्रों में तिलक ने अपने पुत्रों और बाबा महाराज के दत्तक पुत्र जगन्नाथ महाराज की शिक्षा के विषय में पूछताछ करते और पढ़ाई-लिखाई के बारे में परामर्श देते रहे। ताई महाराज के मुकदमे में प्रिवी काउन्सिल में की गई अपील के विषय में भी वह लम्बी-चौड़ी हिदायतें भेजा करते थे-यहां तक कि उन्होंने एक गड़रिये की भी, जो मुकदमा हारने के बाद एक बार उनके पास आया था, सहायता करने की पूरी कोशिश की। ''मैं इतनी दूर से इस बेचारे की क्या सहायता कर सकता हूं? उससे कहो कि वह अमरावती में खापर्डे से जाकर मिले।"

माण्डले से लिखे पत्रों में हमें तिलक के दिलोदिमाग की सच्ची झलक मिलती है। ये पत्र अपने परिवार के सदस्यों को ही लिखे गए थे, इसलिए इनमें किसी प्रकार की कोई ऐसी कृत्रिमता या दिखावा नहीं मिलता, जो नेताओं के उद्गार में प्रायः देखने को मिलता है। इन पत्रों में निर्लिप्त भाव से सरल हृदय तिलक को हम कठिनाइयों और प्रतिकूलताओं से जूझते, कष्ट सहते और दूसरों को दुख में सान्त्वना तथा परामर्श देते पाते हैं। उन्हें दुखदायी मुकदमों, बीमारियों और शोक-संतापों से सम्बन्धित सैकड़ों सांसारिक विषयों की चर्चा अपने पत्रों में करनी पड़ी, फिर भी उनका मानसिक स्तर ऊंचा ही रहा और वह अपने हर पत्र में अधिक से अधिक पुस्तकों की ही मांग करते रहे।

इस लगातार गम्भीर अध्ययन और निरन्तर चिन्तन मनन का ही परिणाम थी 'गीता रहस्य' नामक पुस्तक, जिसे तिलक ने नवम्बर 1910 से मार्च, 1911 के बीच पांच महीनों में लिखा था। इस प्रकार वह बनियन, रैले, बाल्तेयर और पेन जैसे बन्दी महापुरुषों की श्रेणी में आ गए, जिन्होंने कारावास में ही अपनी महान कृतियां रची थीं। चूंकि खुला कागज या स्याही तिलक को महीने में केवल एक ही बार पत्र लिखने को मिलती थी, इसलिए यह पुस्तक उन्होंने सजिल्द 'नोटबुक' पर पेन्सिल से लिखी थी, जिसके सभी पन्नों को गिनकर उन पर जेल- अधिकारियों ने निशान लगा दिए थे। यद्यपि 800 पृष्ठों की इस चौपेजी पुस्तक को लिखने में उन्हें केवल 108 दिन लगे, फिर भी यह वर्षों के गम्भीर चिन्तनमनन का ही परिणाम था। इसके पुनरीक्षण में उन्होंने कई महीने लगाए। इस सम्बन्ध में उन्होंने 2 मार्च, 1911 को लिखा-

''मैंने अभी 'गीता' पर पुस्तक लिखनी समाप्त की है, जिसका नाम मैंने 'गीता रहस्य' रखा है। इसमें मैंने कई मौलिक विचार रखे हैं, जो लोगों के सम्मुख पहली बार ही आएंगे। मैंने इसमें दिखाया है कि किस प्रकार हिन्दू धर्म दर्शन से दैनिक जीवन के नैतिक प्रश्नों को सुलझाने में

सहायता मिलती है। एक हद तक मेरे तर्क ग्रीन द्रारा नीतिशास्त्र पर लिखित पुस्तक में प्रतिपादित सिद्धान्त के अनुसार उप-स्थापित हैं। किन्तु मैं यह नहीं मानता कि नैतिकता या मनुष्यता का आधार अधिकतम जनसंख्या का हित है। 'गीता रहस्य' में मैंने यही सिद्ध करने की चेष्टा की है कि 'गीता' और पाश्चात्य दर्शन में तुलना करने पर भारतीय दर्शन उससे कहीं अधिक गम्भीर या कम से कम उसकी बराबरी का है। 'गीता' पर मैं पिछले 20 वर्षों से विचार करता आ रहा था। अतः इस पुस्तक में मैंने कुछ ऐसे मौलिक विचार रखे हैं, जो अब तक किसी ने भी नहीं रखे थे। अपने तर्कों के प्रमाण में मुझे अभी कई पुस्तकों से, जो मेरे पास इस समय नहीं हैं, उद्धरण लेने हैं, जो मैं यहां से रिहा होने के बाद ही कर सकूंगा।''

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

लोगों की राय

No reviews for this book