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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

तिलक के दिन माण्डले में कैसे कटे-यह जानने के लिए उनके पत्रों और रिहाई के बाद की भेंट-वार्ता का ही सहारा लेना पड़ता है। उन्हें महीने में एक पत्र लिखने और प्राप्त करने दिया जाता था और वह भी इस शर्त पर कि वे केवल व्यक्तिगत और पारिवारिक विषयों से ही सम्बन्धित हों। फिर सतारा जिले के अभियुक्त, बी० आर० कुलकर्णी द्वारा, जिन्हें लगभग तीन वर्षों तक तिलक का भोजन बनाने का काम सौंपा गया था, लिखित विवरण भी उपलब्ध हैं। कुलकर्णी उनके परम भक्त थे और उन्हें 'महाराज' कहकर संबोधित किया करते थे। तिलक ने कई बार उनसे कहा, ''मैं भी तुम्हारी तरह ही एक कैदी हूं। तुम मेरी इतनी चिन्ता न किया करो। कुलकर्णी ने लिखा है-मैं कई बार बीमार पड़ा, किन्तु महाराज (तिलक) ने पिता की भांति मेरी सेवा-सुश्रूषा की। यद्यपि जेल के अधिकारी मुझे अस्पताल भेज देना चाहते थे, परन्तु उन्होंने मुझे अपने साथ ही रखा और मेरी अच्छी तरह से देखभाल की-यहां तक कि उन्होंने मेरे लिए खाना भी बनाया-और बिना मुझे खिलाए कभी भी उन्होंने स्वयं भोजन नहीं किया।''

कुलकर्णी ने बताया है कि वह किस प्रकार गौरैया चिड़ियों को खाना खिलाया करते थे। ये पक्षी उनसे इतना अधिक हिलमिल गए थे कि वे उनकी कोठरी में स्वच्छन्द विचरते रहते थे, उनकी पढ़ने-लिखने की मेज पर बैठ जाया करते थे और कभी-कभी तो रात के भोजन के समय उनके कन्धों पर भी। एक दिन जेल का सुपरिण्टेण्डेण्ट अचानक आ गया और तिलक को पक्षियों से घिरा पाकर बड़ा विस्मित हुआ। उसने पूछा-''ये चिड़िया आपसे डरती क्यों नहीं हैं?'' उन्होंने उत्तर दिया-

''पता नहीं, हो सकता है, ये इसलिए न डरती हों कि हें इन्हें कभी स्कूल नहीं पहुंचाता और न ही कभी डराता हूं। जब कभी भी सम्भव होता है, मैं इन्हें खाना दे देता हूं। सब कुछ के बाद, ये गौरेए तो असहाय जीव हैं, मैं तो जहरीले सांपों के प्रति भी कोई द्वेष नहीं रखता। मेर हृदय में ईश्वर के बनाए किसी भी जीव के प्रति घृणा या भय नहीं है।''

माण्डले में उन्हें 6 वर्ष के कारावास के दौरान जो दुख-सुख हुए जो आशाएं-निराशाए हाथ लगीं, उनकी झलक हमें उनके पत्रों से ही मिलती है। तिलक का अधिकतर जीवन जनता के बीच ही बीता था इसलिए उनके पारिवारिक जीवन के विषय में अधिक कुछ ज्ञात नहीं है। लोगों की सामान्य धारणा यह है कि वह रूखे और कठोर थे, किन्तु उनके पत्रों से (जिनमें से 60 नरसिंह चिंतामणि केलकर द्वारा उनकी जीवनी में प्रकाशित हो चुके हैं) यह धारणा निर्मूल सिद्ध होती है। इन पत्रों से सिद्ध होता है कि वह एक आदर्श पति, स्नेही पिता और सच्चे मित्र थे। उनकी पत्नी को भी मधुमेह की बीमारी थी और वह अपने हर पत्र में उनके स्वास्थ्य के विषय में चिन्ता प्रकट किया करते थे तथा विभिन्न प्रकार की चिकित्साए कराने की सलाह दिया करते थे। उन्होंने पत्नी को स्वास्थ्य सुधारने के लिए सिंहगढ़ जाने का परामर्श दिया था और अपने पत्रों के जरिए उन्हें बराबर ढांढस देने की कोशिश किया करते थे कि 'मैं जल्द ही रिहा हो जाऊंगा', ताकि वह प्रसन्न रहें। किन्तु, लगता है, दोनों को यह पूर्वाभास हो गया था कि वे एक-दूसरे से अब कभी भी मिल नहीं सकेंगे, क्योंकि जब 7 जून, 1912 को पत्नी के देहावसान का समाचार तार से तिलक को मिला, तो वह फुट-फूटकर रो पड़े। इन दुखद परिस्थितियों में उनकी 41 वर्षों की जीवन-साथिन इस दुनिया से उठ गई थी और वह भी तब, जब वह मौजूद न थे, जो आखिरी बार देख तो लेते! इसी दुख से द्रवित हो उन्होंने अपने भतीजे को लिखा-

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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