जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
यद्यपि ऐसी बात भी नहीं कि तनहाई की यह जिन्दगी उन्हें अखरी न हो, फिर भी वस्तुस्थिति यही थी कि उन्होंने अध्ययन और मनन-चिंतन में अपने को लगाए रखा और कभी नई भाषाएं सीखीं, तो कभी 'गीता' के सच्चे सन्देश पर चिंतन-मनन किया। यही उनका नियमित कार्य था।
1914 में रिहा होने के बाद उन्होंने एक भेंट में कहा-''चूंकि जेल की वह कोठरी और अहाता मेरा सारा विश्व था, इसलिए मैं नहीं जानता कि यदि मुझे पुस्तकें पढ़ने को न मिलतीं, तो क्या होता, अर्थात अहाते के बाहर की दुनिया भी मेरे लिए सूनी-सूनी थी। पुस्तकों के बारे में भी तीन अलग-अलग और कभी-कभी परस्पर-विरोधी आदेश जारी किए गए। पहले तो मुझे जिन पुस्तकों की आवश्यकता होती थी, उन्हें जेल-अधिकारी छानबीन कर लेने के बाद मुझे दे देते थे। हां, वर्तमान राजनैतिक स्थिति से संबंधित कोई पुस्तक जरूर नहीं मिलता थी। इसी प्रकार पत्र-पत्रिकाएं भी, चाहे वे भारत में छपी हों या ब्रिट्रेन में, मुझे नहीं दी जाती थीं। कुछ दिनों के बाद यह आदेश हुआ कि मेरे पास किसी भी समय चार से अधिक पुस्तकें नहीं रहनी चाहिएं। इस पर जब मैंने बर्मा सरकार से शिकायत की, तब फिर मुझे जिन पुस्तकों की आवश्यकता होती थी, वे सब मिलने लगीं, क्योंकि मैं उस समय 'गीता-रहस्य' लिख रहा था। इस प्रकार जब मैं रिहा किया गया तब मेरे पास उस वक्त लगभग 400 पुस्तकें थीं।''
तिलक बैसे तो किताबी कीड़े थे, किन्तु उनकी विशेष रुझान दर्शन की ओर ही थी। 'गीता-रहस्य' के सम्बन्ध में सन्दर्भ-ग्रन्थों के अलावा वह हर पत्र में घर से अन्य पुस्तकों की मांग भी करते रहते थे, जिनमें महान संस्कृत ग्रंथों और ईसाई तथा बौद्ध धर्मों व कुरान पर लिखित पुस्तकों के अतिरिक्त काण्ट, हीगेल, बटलर, लॉक, डारविन, ह्मूम, रूसो, वाल्तेयर, टीवरो और मैक्समूलर की कृतियां शामिल थीं। एक सच्चा पुस्तक-प्रेमी होने के कारण उन्हें अपने घर के निजी पुस्तकालय की भी चिन्ता लगी रहती थी। अतः वह अपने पत्रों में उसका उचित रखरखाव करने तथा हर किसी को पुस्तके न दे देने के विषय में हदायतें किया करते थे। अपने पत्र में वह जिल पुस्तक की आवश्यकता होती थी, उसके बारे में यहां तक बता दिया करते थे कि वह अमुक आलमारी के अमुक खाने में रखी है।
माण्डले में अपने कारावास के दिनों में उन्होंने पाली, फ्रेंच और जर्मन भाषाएं सीखीं और उस दिन तो उनकी प्रसन्नता का कोई पारावार न था, जिस दिन उन्हें जर्मन भाषा का इतना अच्छा ज्ञान हो गया कि वह एक घण्टे के भीतर बेबर के मल ग्रन्थों के पांच पृष्ठ पढ़ने लग गए। प्रसन्नता में वह उछल पड़े-''मुझे वास्तव में अब लगता है कि मैंने कारावास काल के कुछ भाग का सदुपयोग किया है।'' और फ्रेंच सीखने में तो उन्हें कोई कठिनाई ही नहीं हुई। उसके सानुनासिक उच्चारण से उनका बड़ा विनोद होता था। वह कहते थे कि ''इसका उच्चारण तो रत्नगिरि के निवासियों की भांति ही है।'' फिर संस्कृत का विद्वान होने के कारण, उन्हें पाली सीखने में भी कोई दिक्कत नहीं हुई।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट