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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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माण्डले में अभी देश-निर्वासन की सजा का एक वर्ष भी पूरा न हो पाया था कि तिलक के सामने पुनः अग्निपरीक्षा की घड़ी आ उपस्थित हुई, जब प्रिवी काउन्सिल के सामने अपील करने के लिए इंग्लैण्ड गए हुए उनके मित्र खापर्डे ने उन्हें सूचना दी कि अगर चाहें, तो कुछ शर्तों पर वह रिहा हो सकते हैं, क्योंकि उन्हें कारावास की काफी लम्बी अवीष अभी काटनी थी। तिलक ने खापर्डे को उत्तर दिया :

''शर्तें स्वीकार करने के बारे में मैं आपको अपने विचार स्पष्टतया बता देना चाहूंगा। यदि शर्ते यही हैं, जो 1898 में रखी गई थीं तो उन्हें मानने में मुझे कोई आपत्ति नहीं। मुझे अपने स्वागत-समारोहों या अन्य प्रदर्शनों की कोई आवश्यकता नहीं। मैं उन्हें संहर्ष स्वीकार कर लूंगा। लेकिन रिहा होने पर मुझे वही स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए जो देश के किसी भी नागरिक को कानूनन प्राप्त है। 1898 की शर्तों से स्वतन्त्रता मुझे मिली थी। किन्तु मैं नहीं समझता कि इस बार भी वैसी ही शर्त रखी गई हैं। इस बार जो शर्तें रखी जाएंगी, वे कठिन होंगी, जिन्हें मैं स्वीकार नहीं कर सकूंगा। मैंने अपनी कैद का एक साल काट लिया है और मुझे आशा है कि और भी पांच साल बिता लेने के बाद मैं आप लोगों की तरह स्वतन्त्र नागरिक हो सकूंगा। क्या आप चाहते हैं कि मैं इन शर्तों को मानकर अपने को किसी सार्वजनिक या राजनैतिक कार्य के लिए अयोग्य बना लूं?''

''मेरी आयु 53 वर्ष की हो गई है। यदि पैतृक प्रभाव और औसत स्वास्थ्य मनुष्य की दीर्घायु के लक्षण हैं, तो भी मैं अब दस बर्ष ते अधिक जीवित रहने की उम्मीद नहीं करता। और इस हिसाब से इन दस वर्षों में पांच वर्ष मुझे स्वच्छन्द रूप से सार्वजनिक सेवा-कार्य के लिऐ मिल सकेंगे। लेकिन यदि मैं आज उन शर्तों को मान लूं, जिनकी बात आप करते हैं, तो मुझे मुर्दा आदमी की तरह रहना पड़ेगा। और मैं ऐसी जिन्दगी बसर करना चाहता नहीं। यों यह सही है कि मेरा कार्यक्षेत्र केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं है, इसलिए यदि मुझे राजनीति में भाग लेने से मना कर दिया जाता, तो मैं साहित्यिक कार्य कर सकता हूं, फिर भी इस पर बहुत सोच-विचार करने के बाद मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि इसका मेरे पूर्व जीवन से मेल नहीं बैठता। वास्तव में, ऐसा करके मैं अपने जीवन-भर के किए-कराए काम पर पानी फेर दूंगा। यह आप जानते ही हैं कि मैंने जो कुछ किया है, वह केवल अपने परिवार या अपने लिए नहीं किया है। मैं जनता ही के लिए जीता-मरता रहा हूं। अतः अब सोचिए तो जरा कि पांच वर्षों के अपने व्यक्तिगत सुख के लिए सार्वजनिक जीवन से मुख मोड़ लेने का मुझ पर कितना बुरा नैतिक प्रभाव पड़ेगा।''

कहते हैं कि स्वर्ग और नरक, दोनों मनुष्य के मस्तिष्क में ही रहते हैं, अतः उसे चाहे जैसा भी बना लें। फलतः तिलक जैसे निर्लिप्त बुद्धि-विवेक वाले महापुरुष के लिए नई परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढाल कर उनका यथासंभव सर्वाधिक उपयोग करना कठिन नहीं था। अतः जैसाकि बिना काम के समय जेलों में होता है, कोठरी में बन्द रह कर बालू के महल बनाने या व्यर्थ की चिंता करने की मनःस्थिति से तिलक ऊपर रहे। उनके कठोर अनुशासित मस्तिष्क पर सुख-दुख के इन क्षणिक आवेगों का कोई कुप्रभाव नहीं पड़ा।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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