जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
1892 में श्री तिलक बम्बई प्रादेशिक पोलिटिकल कान्फ्रेंस के तीन मंत्रियों में से एक चुने गए। बाकी दो श्री वाचा और श्री चि० ही० सीतलवाड थे। इसके वार्षिक अधिवेशन में तिलक ने बम्बई सरकार की उत्पादन नीति की बड़ी आलोचना की और कहा कि शराब की दूकानों को खोलने या बन्द करने का अधिकार उत्पादन विभाग के हाथों में नहीं होना चाहिए क्योंकि यह केवल आय-वृद्धि का ही ध्यान रखती है। नमक उत्पादन और वन में निःशुल्क घास चराने के विषय में कई प्रस्ताव पारित हुए। 'एज आफ कन्सेन्ट बिल' के विरुद्ध एक प्रस्ताव से सिद्ध होता है कि पोलिटिकल कान्फ्रेंस की कार्रवाइयों में कहां तक तिलक का हाथ था। लेकिन धीरे-धीरे तिलक अब इन प्रस्तावों के फल मिलने के विषय में निराश हो चुके थे। 'मराठा' ने लिखा था :
''यद्यपि हम लोगों ने इन सम्मेलनों और अधिवेशनों के विषय में ऊंची बातें की हैं और देश के शासकों से बहुत से आश्वासन मिले हैं, हम लोगों को राजनैतिक अथवा आर्थिक दृष्टि से कोई सफलता नहीं मिली है। अगले दिसम्बर में कांग्रेस 6 वर्ष पूरे कर लेगी लेकित जनता की किस मांग को वह पूरा कर सकी है, इस प्रश्न का उत्तर निराशाजनक ही होगा।
1895 के पूना अधिवेशन में तिलक के समर्थकों में और सुधारकों के दल में कांग्रेस पंडाल में सामाजिक सम्मेलन करने के विषय में टक्कर हो गई। इस विषय की संक्षिप्त चर्चा पिछले परिच्छेद में हो चुकी है। अभी तक कांग्रेस पंडाल में ही सामाजिक सम्मेलन होते रहे थे किन्तु यह कांग्रेस की सामाजिक विषयों से दूर रहने की नीति के विरुद्ध था। दादाभाई नौरोजी ने कांग्रेस के कलकत्ता में हुए दूसरे अधिवेशन में ही इस नीति को अपनाया था। किन्तु उन्हें किसी ने समाज-सुधार विरोधी नहीं ठहराया था। 'एज आफ कन्सेन्ट बिल' विवाद के समय भी ह्यूम ने इस नीति की पुष्टि की थी।
इसलिए तिलक का विरोध उचित ही था लेकिन उनके दल ने इस सम्बन्ध में जो रास्ता अपनाया, वह अनुचित कहा जा सकता है। पंडाल जला देने की धमकी से श्री गोखले घबड़ा गए और उन्होंने श्री वाचा को तुरन्त पूना आने के लिए संवाद भेजा। श्री वाचा ने अपने संस्मरण में इस घटना का बड़ा ही रोचक वर्णन किया है। तिलक अपने निश्चय पर दृढ़ थे किन्तु वह यह भी चाहते थे कि कांग्रेस की एकता बनी रहे और पूना अधिवेशन सफल हो। उन्होंने जनता से अपील की :
''हर एक को, चाहे वह रूढ़िवादी हो या नवीन विचारों का, चाहिए कि वह कांग्रेस की सहायता करे। पूना अधिवेशन तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक अधिक-से-अधिक लोग इसके लिए उत्साह से कार्य न करें। हम लोगों को व्यापारी, शिल्पकार, मजदूर, शिक्षित वर्ग हर एक के पास जाकर कांग्रेस कोष में दान देने की प्रार्थना करनी चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि हम उनकी भावनाओं का अनावश्यक अनादर न करें। कांग्रेस का ध्येय जनता का संगठन बनना है और यह तब तक सम्भव नहीं जब तक हम यह प्रयत्न नहीं करेंगे कि उन वर्गों का भी, जिन्होंने अभी तक कांग्रेस में कोई रुचि नहीं दिखलाई है, समर्थन प्राप्त करें।
''यदि जनता कांग्रेस की ओर आकर्षित होती है तो सम्भव है वह सामाजिक सम्मेलन के उद्देश्यों को न माने। इसी डर से समाज-सुधार चाहने वाले भी कांग्रेस में अपनी कार्य-सीमा बहुत सीमित रखना चाहते हैं। एक दल चाहता है कि वह जनता के बड़े से बड़े भाग को कांग्रेस में लाए चाहे समाज-सुधार हो या न हो। दूसरा चाहता है कि कार्य-सीमा को सुधार की आवश्यकताओं तक ही सीमित रखा जाए। मूल प्रश्न यह है कि क्या पूना अधिवेशन जन-सम्मेलन हो या केवल उसके एक अंश का। यदि समाज-सुधार चाहने वाले जनता के विचारों को 'अमानुषिक बल प्रयोग' कह कर उसका आदर नहीं करना चाहते तो न चाहें। मैं इसके लिए तैयार नहीं हूं कि जनता के विचारों को मान्यता देने का हठ करके कांग्रेस में भेद उत्पन्न करूं।''
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट