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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

किन्तु इन विवादों को खड़ा करने का उद्देश्य महज बहस-मुहाबसा करना ही नहीं था। ये तो वस्तुतः जनता के बीच प्रचार का एक शक्तिशाली माध्यम थे। दोनों पक्षों के अग्रणी नेताओं के सार्वजनिक वाद-विवाद और मुकाबले से जनता में विभिन्न सवालों पर विचार करने की दिलचस्पी पैदा हो सकती थी। इस दृष्टि से भारतीय राजनीति में तिलक ही पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने इस तरह से प्रचार के लिए समाचारपत्रों तथा मैचों का सदुपयोग किया। अतः जिन विवादों से तिलक के जीवन को बल मिला, उनका यह पहलू नजर अन्दाज नहीं किया जाना चाहिए। इसमें शक नहीं कि उनसे बड़ी कटुता फैली, मगर यह भी सच है कि उनसे जनता शिक्षित हुई।

शैली ही व्यक्तित्व है, यह उक्ति तिलक पर पूर्णतया लागू होती थी। उनके लेखन व कथन की शैली अत्यन्त स्पष्टवादी, खरी तथा गहरी चोट करनेवाली थी। वह साहित्यिक सौन्दर्य या भावनात्मक अपीलों की परवाह नहीं करते थे। उनके लेख सीधे हृदय पर चोट करते थे। उनमें विस्तृत ब्योरे, अकाट्य तर्क और दिली ईमानदारी होती थी। हरेक वाक्य हथौड़े की तरह चोट करता, हरेक 'पैरा' तर्कों की तोप से लैस रहता था, जिससे पाठक पर कुल मिलाकर उनके लेख का बहुत गहरा असर पड़ता था। उनके लेखों के शीर्षक भर्तृहरि की रचनाओं या 'महाभारत' से छांटकर चुने हुए होते थे, जिनसे उन लेखों की विषय-वस्तु का पता तत्काल लग जाता था।

सम्पादकीय विभागवालों से तिलक कहा करते थे-''आप लोग जो कुछ भी लिखें, यह सोचकर लिखें कि आप विश्वविद्यालय वालों के लिए नहीं, बल्कि गांववालों के लिए लिख रहे हैं। इसलिए, आप संस्कृत के उद्धरण न दें और न ही बड़े-बड़े आकड़े ही दे, जिनको देखकर लोग डर जाएं। इन चीजों को अपने तईं ही आप रखें। और यह पहले ही सुनिश्चित कर लें कि आप जो कुछ लिख रहे हैं, वह सही है। इस प्रकार आप जो कुछ भी कहें, वह दिन के उजाले की तरह स्पष्ट हो, ताकि उसका अर्थ समझने में पाठक को कोई कठिनाई न हो।'' उनकी निजी लेखन शैली पत्रकारिता-विषयक उनके इसी सिद्धान्त का परिचायक थी, यों उनके लेखों में इसके अतिरिक्त और भी विशिष्टता रहती थी, जिसका अनुकरण नहीं किया जा सकता था। संयोगवश, यह भी बता दिया जाए कि तिलक स्वयं अपने हाथो से लिखना पसन्द नहीं करते थे। वह बराबर बोलकर ही अपने लेख आदि लिखाया करते थे।

तिलक के लेखन और भाषण, दोनों की भाषा अत्यन्त सरल और सीधे दिल तक पहुंचनेवाली होती थी। वह आग उगलनेवाले वक्ता या बाजारू भाषणकर्ता नहीं थे। उनके भाषणों में न तो विद्वतापूर्ण मुहावरे होते थे और न ही उनमें आवेगपूर्ण अपीलों या अत्युक्तिपूर्ण भाषा को ही कोई स्थान प्राप्त था। इस मामले में वह गोखले के, जिनके भाषणों में बीच-बीच में आरोह-अवरोह और लच्छेदार बातें रहती थीं तथा जिनके शब्दों में लोगों को अपनी ओर खींचने की शक्ति थी, ठीक उलटे थे। तिलक हर सवाल को बहुत साफ-साफ बगैर किसी हिचक के और बिना कोई अगर-मगर लगाए रखते थे। अपनी अकाट्य तर्क-शक्ति के बल पर युक्तिपूर्वक वह अपने प्रतिद्वन्दियों की बातों का खण्डन और अपने विचारों का मण्डन करते थे। इसका कारण उनके भाषणों में प्रस्तुत महत्वपूर्ण विषय विचार था, न कि उनकी भाषण-शैली। लॉर्ड मार्ले की तरह तिलक का भी विश्वास था कि ''राजनीतिक वक्तृत्व कर्म है, खाली शब्द नहीं-एक ऐसा कर्म जिसमें चरित्र, इच्छा-शक्ति, उद्देश्य और व्यक्तित्व का सामंजस्य होता है।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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