जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
तिलक ने अपने तमाम जीवन में जो सामाजिक और राजनैतिक वाद-विवाद किए, वे, निस्सन्देह अत्यन्त तीखे और कटु थे, किन्तु इन विवादों को उन्होंने तभी तक चलाया, जब तक उनके प्रतिद्वन्दी जीवित रहे। किसी के मर जाने के बाद उन्होंने कोई विवाद कभी नहीं उठाया। उनका कहना था-''मरे हुए आदमी को बुरा-भला मत कहो।'' इसलिए अपने प्रतिद्वन्दी के मरने के बाद वह सारे विवादों को समाप्त कर देते थे। यही वजह है कि आगरकर की मृत्यु से वह इतने दुखी हुए थे कि उस पर शोक प्रकट करने के लिए लेख लिखते समय उनकी आंखों में बरबस आंसू आ गए। उनके जीवन में यह पहला ही अवसर था, जब वह इतना कमजोर दिखाई पड़े थे। इसी प्रकार रानडे को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए तिलक नें मुक्तकंठ से उनकी प्रशंसा की थी। गोखले के दाह-संस्कार के समय भी अपने भाषण में उन्होंने बड़ी ही भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की थी। ऐसे अवसरों पर वह प्रायः भाबुक हो उठते थे। उन्होंने ब्रेविन नामक एक उच्चे पदस्थ पुलिस-अधिकारी को भी 'केसरी' में एक शोक समाचार छाप कर श्रद्धांजलि अर्पित की थी, जिसे देखकर 'केसरी' के पाठक आश्चर्यचकित रह गए थे। दरअसल, यह अफसर बड़ा ही कर्तव्यनिष्ठ था और बगैर किसी डर-भय के अपना काम करने के लिए प्रसिद्ध था।
तिलक को अपने जीवन में अनेक दीवानी और फौजदारी मुकदमों का मुकाबला करना पड़ा। बर्वे दारा चलाए गए मानहानि के मुकदमे से उनके सार्वजनिक जीवन का प्रारम्भ हुआ था और करीब-करीब चिरोल केस से उसका अन्त हुआ। इस बीच उन पर राजद्रोह के अभियोग में तीन मुकदमे चले, जिनमें से एक में वह निर्दोष सिद्ध हुए थे, ताई महाराज का मुकदमा उनके जीवन के लम्बे भाग तक चलता रहा और बापट का मुकदमा भी उन्हें लड़ना पड़ा, जब उन्होंने बापट की ओर से सफाई के सबूत इकट्ठे किए और वकील को मामला समझाया। इनके अलावा और भी तीन मुकदमे चले थे, जिनमें 'हिन्दु', 'टाइम्स ऑफ इंडिया' और 'ग्लोब' को उनसे माफी मांगनी पड़ी थी। इस तरह के मामलों में बराबर उलझे रहने के कारण तिलक को अपने कानूनी ज्ञान और उसकी बारीकियों के प्रदर्शन का मौका मिला। वह बड़ी लगन से इन मुकदमों में भिड़े रहते थे। उनकी यह लगन कभी-कभी एक हद तक जिद की शक्ल भी ले लेती थी, जो उनकी एक चारित्रिक विशेषता थी। वह कानून के स्नातक थे और करीब-करीब 10 वर्षों तक कानून पढ़ाते भी रहे, किन्तु एडवोकेट के रूप में कभी वकालत नहीं की।
अपने ऊपर चले राजद्रोह के दूसरे मुकदमे में उन्होंने जिस कुशलता से अपनी सफाई पेश की थी, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि वह वकालत करते, तो उस पेशे में वह अवश्य सफल हुए होते। कलकत्ते के बैरिस्टर पग और गार्थ, जिन्होंने राजद्रोह के पहले मुकदमे में उनकी ओर से अदालत में जिरह-बहस की थी, प्रिवी काउंसिल में अपील करने की अनुमति मांगने के लिए जेल की 'शेल' में बैठकर तिलक द्वारा तैयार किए गए अर्जी के मसौदे को पढ़कर दंग रह गए थे, क्योंकि यह मसौदा बिल्कुल जायज और तिलक के गहन कानूनी ज्ञान का परिचायक था। इन दोनों बैरिस्टरों के सहायक वकील जे. चौधरी के अनुसार, ''ये बैरिस्टर तिलक की योग्यता और बुद्धिमानी के कायल हो गए थे। उन्होंने कहा था कि अपने पेशे में हम लोगों ने अब तक किसी भी ऐसे सामान्य व्यक्ति या वकील को नहीं देखा था, जिसने बगैर किसी नोट की मदद के न्यायालय में लगाए गए किसी अभियोग या दिए गए किसी निर्णय को सिर्फ एक बार सुन करके ही इतने ठीक ठिकाने से अपीली बर्खास्त का ब्योरेवार मसौदा तैयार कर दिया हो।'' इसके लिए इन बैरिस्टरों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। फिर मांडले में भी उनके पास कानून की कोई किताब मौसूद नहीं थी, किन्तु तब भी उन्होंने ताई महाराज के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध एक विस्तृत प्रतिस्मरणपत्र (रिज्वायण्डर) तैयार कर डाला और प्रिवी काउंसिल ने इस मामले में अपना जो अन्तिम फैसला दिया, वह उस प्रतिस्मरणपत्र से बहुत अधिक मिलता-जुलता था।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट