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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

तिलक कितने बड़े यारों के यार थे-इसका एक प्रत्यक्ष प्रमाण ताई महाराज का मामला है। इस मामले में पड़ने से कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने कालेज के दिनों के अपने एक मित्र की इसी तरह से मदद की थी। 1894 में बड़ौदा राज्य के सर्वे बन्दोबस्ती के असिस्टेण्ट कमिश्नर वासुदेव सदाशिव बापट पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया और जांच के लिए एक विशेष कमीशन बैठाया गया। लेकिन दरअसल यह एक राजनीतिक मामला था, जो महाराजा के शासन को बदनाम करने के लिए ब्रिटिश रेजिडेन्ट के उकसाने से खड़ा किया गया था, जिसमें तिलक ने बापट की मदद के लिए करीब-करीब एक वर्ष का अपना समय लगाया, जब उन्होंने बापट की पैरवी का इन्तजाम किया, सफाई के लिए सबूत इकट्ठा किया और ऊपर के विद्वेषी अफसरों से उनका बचाव किया। ऐसे बहुत-से संकटग्रस्त मित्र थे, जिनकी तिलक ने व्यक्तिगत रूप से हानि सहकर भी मदद की थी।

इसका एक बिशिष्ट उदाहरण है तिलक द्वारा अपने शिक्षक शंकर शरो रानडे को दिया गया बचन, जिसमें उन्होंने उनके परिवार की देखभाल करने का वादा किया था। रानडे एक उपन्यास को आधा लिखकर छोड़ गए थे। उसके प्रकाशक ने कहा कि अगर उपन्यास हो जाए, तो रायल्टी से उनकी पत्नी और बच्चों को थोड़ी आमदनी हो सकती है। तिलक ने आगा-पीछा सोचे बिना ही उसे पूरा करने की हामी भर दी। उसके बाद यह विद्वान दार्शनिक, जिसका फुर्सत का समय वेद पुराणों जैसे गहन दार्शनिक विषयों के अध्ययन मनन में बीतता था, अब उस उपन्यास को पूरा करने के लिए व्याकुल रहने लगा। मांडले के कारावास तक में उन्हें इसकी याद बनी रही, जिसकी चर्चा उन्होंने अपने एक पत्र में भी की थी। पर वह यह काम पूरा नहीं कर पाए, जिसका दुख उन्हें सदा बना रहा।

अपने व्यक्तिगत मित्रों के प्रति तिलक के मन में जितना गहरा प्रेम था, अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति वह उतने ही अधिक निर्मम और कठोर थे-यह उनके चरित्र का दूसरा पहलू था। अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारम्भ से ही उन्हें सामाजिक और राजनैतिक सवालों पर कटु विवादों में उलझना पड़ा। लेकिन वह पीछे हटनेवाले जीव नहीं थे। उन्होंने इन सवालों पर अपने आवेगपूर्ण सिद्धान्तों, प्रचण्ड तर्कों द्वारा जमकर लड़ाई की, जो पहले कभी देखने को नहीं मिली थी और यह अपने ढंग की बेजोड़ चीज थी। जैसा कि हम पिछले पृष्ठों में देख चुके हैं, सामाजिक सवालों पर मतभेद होने के कारण सबसे पहले उन्होंने अपना हमला अपने घनिष्ठ मित्र और सहकर्मी आगरकर पर किया।

शब्दों की इस लड़ाई में किसी ने किसी पर रहम नहीं किया। और दोनों कोई भी मौका नहीं चुके। फिर जब आगरकर ने 'सुधारक' का प्रकाशन आरम्भ किया, तब तो इस विवाद ने भयंकर झगड़े का रूप धारण कर लिया, जिसमें हाजिर जबाबी की कटार, मर्मभेदी व्यंग्यवाण, सत्ता का दण्ड, तर्क की ढाल और अलंकारों का वज्र खुलकर चलाता रहा। और कभी-कभी तो यह विवाद व्यक्तिगत गाली गलौज के स्तर तक पहुंच जाता था। तिलक अपने समस्त समृद्ध बौद्धिक साधनों और प्रचण्ड तर्क शक्ति से संपन्न होकर वार करने, बचाव करने और फिर से वार करने में पर्याप्त सिद्ध थे और इस शाब्दिक लड़ाई में बड़ी दिलचस्पी लेते थे।

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जब उन्हें इस बात की गंध मिलती कि कोई उनके खिलाफ मोर्चा बन्दी कर रहा है, तब जो भी व्यक्ति उनके मार्ग में बाधक बनता, उसे वह कभी नहीं छोड़ते थे। जिस तरह से गांडीवधारी अर्जुन ने गुरु द्रोण और भीष्म पितामह तक पर भयंकर बाण बरसाए थे, उसी तरह उन्होंने ने भी एज आफ कन्सेन्ट बिल (सहमाति आयु विधेयक) और अन्य सामाजिक प्रश्नों पर रानडे और भंडारकार से जमकर लड़ाई की। ये वरिष्ठ गुरुजन उनके हमलों से लड़खड़ा गए। वे उनकी गुस्ताखी से उतने ही विचलित थे, जितने कि उनके अकाट्य तर्कों की प्रचण्डता से, जिसे देखकर लोग हैरान थे। यह अवश्य मानना पड़ेगा कि कभी-कभी लड़ाई की सरगर्मी में आकर तिलक न्यायसंगत वाद विवाद की सीमा का उल्लंघन भी कर डालते थे और अनुचित हमले करने में भी नहीं चूकते थे-यहां तक कि 10 नवम्बर, 1896 को 'केसरी' में प्रकाशित 'यह बचकानापन है या असमय का बुढ़ापा?' शीर्षक तिलक के सम्पादकीय में रानडे पर किए गए जबरदस्त हमले को देख पढ़कर तिलक के ही कट्टर समर्थक और जीवनी लेखक नरसिंह चिंतामणि केलकर भी उद्विग्न हो उठे थे। वास्तव में तिलक ने जब 'सार्वजनिक सभा' पर कब्जा जमा लिया, तब रानडे ने 'डेक्कन सभा' नामक एक प्रतिद्वन्दी संस्था की स्थापना कर डाली थी, जिससे क्रुद्ध होकर तिलक ने रानडे पर आक्षेप करने के लिए यह लेख लिखा था।

अपने प्रारम्भिक जीवन में सामाजिक प्रश्नों पर तिलक जिस जोश खरोश के साथ जमकर लड़ते थे, उसी जोश खरोश के साथ उन्होंने बाद के राजनीतिक विवादों में भी हिस्सा लिया और जोरदार लड़ाई लड़ी, जब स्वाभाविक रूप से उन्होंने अपना सबसे तीखा प्रहार अंग्रेज शासकों पर तो किया, साथ ही नरम दल के मेहता, गोखले और बनर्जी जैसे नेताओं तथा गरम विचारों वाली श्रीमती एनी बेसेंट तक को भी नहीं छोड़ा। उनके शत्रुओं ने उन पर यह भी आरोप लगाया था कि गोखले का इतना शीघ्र जो देहान्त हो गया, उसका मूल कारण तिलक द्वारा कांग्रेस एकता पर लिखे गए तीखे लेखों में से एक लेख ही था। हालांकि यह अभियोग बिल्कुल निराधार और बेहूदा था, फिर भी इससे यह पता चलता है कि उनके प्रतिद्वन्दी उनसे कितना भय खाते थे। वह विरोधाभास जैसा ही दीखता है कि जनता के इतने प्रिय नेता के इतने अधिक व्यक्तिगत दुश्मन हों। किन्तु इसका कारण था विवादों में बराबर उलझे रहने की उनकी प्रवृत्ति, जिससे उनके दुश्मनों ने उनके खिलाफ इस हद तक जेहाद बोल दिया कि पूना कांग्रेस अधिवेशन के समय रानडे के अनुयायी किसी राव बहादुर ने तो यहां तक कह डाला कि जब तक तिलक जीवित रहेंगे, तब तक कोई काम ठीक से नहीं चल सकता।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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