कविता संग्रह >> महामानव - रामभक्त मणिकुण्डल महामानव - रामभक्त मणिकुण्डलउमा शंकर गुप्ता
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युगपुरुष श्रीरामभक्त महाराजा मणिकुण्डल जी के जीवन पर खण्ड-काव्य
इस कथा काव्य में महाकाव्य के सभी तत्व उपस्थित हैं। इस की पृष्ठभूमि त्रेता युग की राजशाही में अवस्थित है। तत्कालीन साम्राज्य महाराजा दशरथ के शासन काल का है। उस काल में भी राज परिवारों में सत्ता के लिए पारिवारिक विग्रह भी होते रहते थे। अयोध्या का राज परिवार भी इस गृह कलह से अछूता नहीं रह गया था किन्तु श्री राम और श्री भरत का त्यागमय आदर्श सदैव याद किया जायेगा। यह काव्यग्रंथ साहित्यिक गरिमा से भी समृद्ध है। यद्यपि इसके ग्रंथकर्ता ने दर्शन शास्त्र के परम गुप्त विषय को भी यथासंभव सहज और सरल शैली में गम्भीरता से प्रतिपादित किया है, जीवन के नैतिक मूल्यों पर आधारित युगपुरुष श्री मणिकुण्डल जी के पावन चरित्र का वर्णन किया है तथा मनुष्य के लिए परम प्राप्तव्य तक पहुंचने के लिए सतत कार्यरत रहते हुए पवित्र आचरण से अपने अपने क्षेत्र में उन्नति का प्रयत्न करने का आहवान किया है किन्तु आत्म तत्व का सतत अन्वेषण करते रहना भी आवश्यक बताया है। जीवन साहित्य के महत्वपूर्ण प्रश्न भी इस काव्य में अवश्य प्राप्त होंगे।
साहित्यिक मूल्यांकन करते हुए भाषा की समुज्वलता पर भी सुविचारित प्रक्रिया अपनायी गई है। अभिधा, लक्षणा और व्यंजना शब्द की शक्तियां हैं। सामान्य जन के लिए सर्वसुलभ भाषा अभिधा शक्ति युक्त ही होती है। इस काव्य में इसी भाषा का प्रयोग किया गया है। श्री गुप्त जी ने अपने ज्ञान से समृद्ध विचार, मानवीय दृष्टिकोण से विवेचन और संवेदन से पाठक की चेतना को उद्देश्यपूर्ण ढंग से विकसित करने का प्रयत्न किया है। छन्द भी कथा के अवसरनाकूल भाषा और शैली से परिवर्तित होते चले है। कवि का सहज व्यक्तित्व भी इस का कारण हो सकता है। प्राकृतिक दृश्यों नैसर्गिक जीव जन्तु और वनस्पतियों तथा ऋतुओं के वर्णन से भाव वर्णन में प्रगाढ़ता उत्पन्न हुई है। वात्सल्य रस, करुण रस, वीभत्स, भयंकर रस के साथ ही श्रृंगार रस का भी इस संपूर्ण रचना में सुन्दर अभिव्यक्तीकरण हुआ है।
मानव जीवन की क्रियाओं की जटिलता तथा अज्ञेयता तो भविष्य का रहस्यमय संसार होता ही है किन्तु कल्पना, बुद्धि और सौन्दर्य, सुरुचि सम्पन्नता से काव्यमय प्रतिभा का उत्कर्ष भी होता है। इस महाकाव्य के कवि ने उसे प्राप्त किया है और अपने चरित्रनायक के चित्रण में उसे सफलता मिली है। वह आदर्श स्थापित कर सका है। अनादिकाल से ही श्री अयोध्या जी का वैभवशाली इतिहास मानवीय सभ्यता और संस्कृति का गरिमामय आदर्श रहा है। इस महिमामयी पुरी की स्थापना आदि पुरुष स्वयं मनु महाराज ने की थी। उन्हीं की वंश परम्परा में चक्रवर्ती सम्राट महाराजा दशरथ के पुत्र मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का जन्म भी यहीं हुआ था। दशरथ जी के राज्यकाल में प्रजाजन सुखी थे। सर्वत्र शान्ति थी। उद्योग, व्यवसाय, कृषि और वाणिज्य चरमोत्कर्ष पर थे। श्री महाराजा दशरथ ने अपने जीवन के उत्तरार्ध में आवश्यक समझा कि अपने राज-काज को ज्येष्ठ पुत्र श्री राम को सौंप कर आत्मा के ज्ञान में प्रवृत्त हुआ जाय। प्रजाजनों और पुरुषजनों ने इस विचार का अनुमोदन किया। श्री राम के राज्यारोहण की सभी तैयारियां पूरी हो गई। किन्तु जिस दिन श्री राम सिंहासनारूढ़ होने वाले थे उसी दिन महाराज की एक रानी कैकेयी ने विद्रोह कर दिया। उसने दृढ़ पूर्वक महाराज दशरथ को विवश कर दिया कि उसके पुत्र श्री भरत जी को राज्य दिया जाय और श्री राम को चौदह वर्ष तक के लिए वनवास दिया जाय। अपनी किसी पूर्व प्रतिज्ञा के कारण राजा को विवश होकर यह क्रूर कृत्य करना पड़ा। स्वयं दशरथ जी मर्माहत हुए और उनकी मृत्यु हो गई। अयोध्या की प्रजा भी इस निर्णय से दुःखी हुई। श्री राम जी ने अपने आदर्श पितृभाव और भक्ति से स्वेच्छापूर्वक गृह त्याग कर दिया। उनके साथ छोटे भाई लक्ष्मण तथा पत्नी सीता जी भी गृह त्याग कर वन-पथ पर चल दिये। अयोध्या जी की प्रजा पर जो भावनात्मक आघात हुआ वह असहनीय था। सभी दुःखी समाज श्री राम के साथ नगर से चल पड़ा किन्तु श्री राम जी इन्हें रात में, जहां विश्राम के लिए सभी दुःखी प्रजाजन सोये थे, उनको सोते ही छोड़कर आगे की यात्रा पर चले गये। प्रातः जब सभी को पता चला तब उनको ढूंढ़ते हुए वे भी दुःखी मन से आगे के लिए चल पड़े। श्री राम के वनगमन से आहत अयोध्यावासी जन वापस लौटने को राजी नहीं थे। अतः कुछ ने तो वहीं बस जाने का मन बना लिया और कुछ ने आगे बढ़ते हुए सुदूर जनपदों तक यात्रा की तथा अनेक तीर्थस्थलों और नगरों में अपने अपने व्यवसाय करते हुए श्री राम की याद में उनके आने तक प्रतीक्षा करने का निश्चय कर लिया। इन्हीं श्री राम भक्तों में अयोध्या जी के अति सम्मानित नगर सेठ श्री मणिकौशल जी तथा उनके पुत्र श्री मणिकुण्डल जी भी थे। इस महाकाव्य के प्रमुख नायक यहीं वैश्य कुलवतांश पिता पुत्र है । आगे चल कर यही श्रेष्ठि भूषण स्वनाम धन्य महाराजा मणिकुण्डल के नाम से विख्यात हुए जो अयोध्यावासी वैश्य कुल के आदि महापुरुष और आदर्श राजा के रूप में अपने अनुयायियों और अपने भक्तों तथा कुल परम्पराओं के संवाहक बनें।
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