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महामानव - रामभक्त मणिकुण्डल

उमा शंकर गुप्ता

प्रकाशक : महाराजा मणिकुण्डल सेवा संस्थान प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16066
आईएसबीएन :000000000

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युगपुरुष श्रीरामभक्त महाराजा मणिकुण्डल जी के जीवन पर खण्ड-काव्य

समय तो गतिशील है। परिवर्तन सृष्टि का अनिवार्य धर्म है। श्री अयोध्यापुरी अपने वैभव और शक्ति तथा सम्पदा परिपूर्ण राजतंत्र की आदर्श राज श्री से हर्षित और पुलकित हो रही थी। नगर सेठ मणिकौशल जी के व्यापार वाणिज्य में दिन दूने रात चौगुने लाभ के अवसर आ रहे थे। महाराज दशरथ के द्वारा अपनी प्रजा के प्रति कर्तव्य और कर्म के सभी द्वार खुलते जा रहे थे। मणिकौशल जी के पारिवारिक सुख वैभव में भी अभिवृद्धि हो रही थी। इसी बीच परम पिता ईश्वर की अनुकम्पा से उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति का अवसर मिला। सभी पारिवारिक जन-नगर जन और सम्बन्धी जन पुलकित हुए प्रसन्न हुए।

इस महाकाव्य के कवि ने इस अवसर को बहुत सौभाग्य सूचक शब्दों में अर्थवान किया है। अपने जन्म से ही यह बालक बहुत सौभाग्यवान लग रहा था। उसके मुखमण्डल की आभा में भविष्य की कीर्तिपताका लहराती लग रही थी। पंडितों पुरोहितों ने तो बालक के लिए मंगलमय भविष्य वाणियाँ की ही थी। तत्कालीन महर्षि वशिष्ठ जैसे विद्वानों ने भी अपने आशीर्वाद से शुभ लक्षणों वाले मणिकुण्डल को अनेक आशीर्वाद देकर सेठ मणिकौशल जी और उनकी पत्नी को भविष्य का मंगलमय शुभ आश्वासन प्रदान किया था। अपनी वय के बालकों से अधिक इस बालक में अदभुत प्रतिभा थी। थोड़े ही समय में अपनी जिज्ञासु वृत्ति से उसने तत्कालीन समाज, राज्य वाणिज्य और जीवन तथा जगत के अनेक गुण सीख लिए थे। श्री राम के प्रति इस बालक के मन में सहज जिज्ञासा थी। अन्तर्मन में भक्ति का रसामृत प्रवाहित हो रहा था तथा उनके करुणामय स्वरूप के प्रति आकर्षण उत्पन्न हो गया था। परिणामतः जब वन गमन पर श्री राम चले तब उनके वियोग में अपने पिता और अयोध्या के प्रजाजनों के साथ यह बालक भी उनके पद चिहनों के अनुगमन में निकल पड़ा इस स्थल पर वात्सल्य रस संपूरित काव्य उच्चकोटि का है। अपने यात्रा पथ पर श्री मणिकौशल जी और श्री मणिकुण्डल जी तीर्थराज प्रयाग पहुंचकर मां गंगा और सूर्य देवता के प्रति निवेदित किये गये शब्द काव्य गुणों से अलंकृत है। कवि की शब्द संपदा से निकले इस छंद की अनुप्रासिकता और अंत्यानुप्राश की छटा भी दर्शनीय है। यह छंद इस कथन का प्रमाण है मानस तरंगों में ज्ञान की प्रखर रश्मि, कर्म के आलेपन से प्रवाहमान होती है।

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