ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य हेमचन्द्र विक्रमादित्यशत्रुघ्न प्रसाद
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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!
नौ
लक्ष्मी भवन के द्वार के आगे काठ के खम्भे पर बत्ती जलने लगी। विजय और हेम् घोड़े से उतरे। बत्ती जलाने वाले नौकर ने उन्हें देखा। पहले तो घबराया परन्तु वह तुरन्त ही समझ गया कि ये किले से नहीं आए हैं। उसकी घबराहट दूर हो गई। विजय ने कहा—'हम दोनों वृन्दावन से आए हैं। संत पूरनदास की चिट्ठी लेकर सेठ जी से मिलना है।'
'पर वे तो पीड़ा में हैं। एक हफ्ते से खाट पर पड़े हैं।' नौकर ने बताया।
'तब तो अवश्य मिलना है। मैं उनके मित्र चौधरी नरवाहन का पुत्र विजयवाहन हूं। ये वृन्दावन के भक्त पूरनदास के पुत्र हेमचन्द्र हैं। हम उनके दर्शन के लिए ही आए हैं।' विजय ने कहा।
नौकर ने उन दोनों को आदर से स्वागत-कक्ष में बैठाया। और भीतर जाकर सेठ जी को सूचना दी। पीड़ा में बेहाल सेठ जी चौधरी नरवाहन और भक्त पूरनदास के नाम सुनकर थोड़े शान्त हुए। साथ में बैठे वैद्य जी को भी अच्छा लगा। सेठ जी की पत्नी और पुत्री की -विकलता भी कम हुई। सेठ जी ने उन दोनों को बुलाने का आदेश दिया। दोनों गम्भीरता एवं विनम्रता के साथ अन्दर आए। कांच के फानूसों (आलोक पात्रों) में झिलमिलाती मोमबत्तियों के प्रकाश में दोनों ने सर झुकाए और फिर संकेत पाकर दोनों गद्देदार आसनों में बैठ गए। हेमू वैभव से शृंगारित इस श्रेष्ठी कक्ष को देख चकित था। वह चारों ओर देखता सेठजी के मुखड़े पर आंखें टिका देता। फिर दीवारों और खंभों के रूप-रंग को देखने लगता। विजय ने वैद्य जी की ओर कुछ जानने के लिए निहारा। सेठ जी धीरे से बोल उठे-'आप दोनों वृन्दावन से आए हैा!'
'जी, हां ! मैं चौधरी नरवाहन का पुत्र विजयवाहन हूं। और ये संत पूरनदास जी के पुत्र हेमचन्द्र हैं। संत जी ने आपके नाम से एक चिट्ठी दी है।'
'तुम्हें तो थोड़ा-थोड़ा पहचान रहा हूं, विजयवाहन ! नरवाहन जी अच्छे हैं न ?'
'जी, हां ! अच्छे हैं। आपकी पीड़ा से दोनों चिन्ता में हैं।'
'संत जी तो भगवान के नित्य विहार में सम्मिलित हैं। उनकी कृपा से ही दूर होगी। यह मेरा सौभाग्य है !'
'दोनों ने आपका कुशल-क्षेम पूछा है।'
'बेटे ! मेरा कुशल-क्षेम...? क्या बताऊं ? देख ही रहे हो। मेरा बेटा मोहन पठान लड़की से विवाह कर जमाल अहमद बन गया है। किसी की बात नहीं मानी। चौधरी नरवाहन ने भी समझाया था। अब मैंने घर से निकाल दिया है। ऐसे कपूत की क्या जरूरत है। इत्रफरोश इलाहीबख्श के पास पहुंच गया है। इत्रफरोश का दामाद बाप से आंखें फेर चुका है। आह ! दूसरी तरफ एक माह से सारा व्यापार ठप्प है। कौन गांवों में जाकर गेहूं और चना खरीदे। किले में गेहूं और चना भेजना है। मुझे ही भेजना है। बादशाह मालवा से लौटने वाले हैं। मैं रोग और चिन्ता में गल रहा हूं। यम का द्वार दिखाई दे रहा है।' सेठ सोहनलाल ने आह भरकर करवट ले ली।
'आप शान्त रहें। अधिक न बोलें।' वैद्य जी ने समझाया।
'अधिक नहीं बोलना है, वैद्य जी ! बोलने वाला तो भीतर-हीभीतर दुःख से तड़प रहा है। आप चिट्ठी पढ़ दें।'
वैद्य जी ने चिट्ठी को पढ़ना आरम्भ किया-
'सेठ सोहनलाल जी!
जय श्री राधावल्लभ जी की !!
श्री प्रिया जी की अनुकम्पा से आप स्वस्थ एवं सानन्द रहें। आपके दुःख का संवाद मिला है। धैर्य रखें। कालचक्र कठोर है। सभी पिस रहे हैं। पर निराश नहीं होना है, आशा रखें।
आपकी सेवा में अपने एकमात्र पुत्र हेमचन्द्र (हेमू) को भेज रहा हूं। भवत नरवाहन के पुत्र विजयवाहन के साथ आ रहा है। रेवाड़ी का इलाका बहुत कुछ उजड़ गया है। बहुत कुछ खोकर हेमू भटकता हुआ आया है। भीतर से अशान्त है। भगवद्-कृपा से ही मन की शान्ति मिल पाती है।
इसे छोटे-मोटे व्यापार का अनुभव है। यह आपकी सेवा में लग जाना चाहता है जिसे दोनों छाक भोजन मिल सके। जीवन चल सके। यदि सम्भव हो तो इसे आप अपने काम में लगा लें।
आप श्री राधावल्लभ जी का स्मरण करें। मन को शान्ति मिलेगी। हम सबकी मंगल कामना है।
कुशल समाचार भेजने की कृपा करें।
इति शुभम्
-पूरनदास'
वैद्य जी ने पत्र को पूरा कर दिया। चिट्ठी को सेठ जी के पास रखा। वे कभी हेम को देखते और कभी सेठ सोहनलाल को। हेमू और विजय पत्र का प्रभाव जानने के लिए सेठ सोहनलाल की ओर देखने लगे। सेठ की पत्नी दुर्गा कुंवर और पुत्री पार्वती सिर झुकाकर बैठी थीं। सोहनलाल आंखें मूंदकर कुछ सोच रहे थे। संत पूरनदास का पुत्र आया है। उनका पत्र भी है। वे क्या करें? बादशाह सलीमशाह सूर मालवा से लौटने वाले हैं। वे किले में गेहूं और चना भेज नहीं सके हैं। बादशाह नाराज होंगे। शाही इत्रफरोश इलाहीबख्श कान भर सकता है। कुछ मोहन ने बरबाद किया और कुछ बादशाह के प्रकोप से बरबाद होगा। पड़ोसी हंसेंगे। कोई सहायक नहीं दिखता। हेमचन्द्र को साथ में रखा जाय। यह काम संभाल सकता है। संत जी की बात रह जाएगी। किसी को खिल्ली उड़ाने का अवसर नहीं मिलेगा।
सेठ ने आंखें खोलीं। देखा कि सबकी आंखें उन्हीं पर लगी हैं। सन्नाटे में सबकी सांसें सुनी जा सकती हैं। सबकी उत्कण्ठा को पढ़ा जा सकता है। अपनी पत्नी की ओर देखा। असहमति का भाव नहीं था। और तब उनके शब्द गूंज उठे-
हेमचन्द्र यहीं रहेगा। मेरा काम सम्भालेगा। संत जी का अनुरोध मुझे स्वीकार है।'
कक्ष में हर्ष की लहर फैल गई। लगा कि अभी तक रात का अंधकार बढ़ रहा था। अब शुक्लपक्ष की रात का प्रकाश आ गया। अंधकार बाहर जाने लगा। दासी शीतल पेय रख गई। सेठ जी के संकेत से सभी शीतल पेय पीने लगे। हेमू और विजय ने महसूस किया कि उनकी थकान मिट गई। हेम तो भीतर से बहुत प्रसन्न हो उठा था। चाकरी मिल गईं, रोटी-साग का प्रबन्ध हो गया। आगरा में ही हो गया।
सेठानी दुर्गा कुंवर पार्वती के साथ जाने लगीं। सेठ ने कहा- 'दोनों के लिए भोजन...।'
सेठानी ने शीश हिलाकर मान लिया। वर्षा थम गई थी। वायु में ठण्डक आ गई थी। वैद्य जी ने शीतल पेय पीकर घर लौटने की इच्छा प्रकट की। उन्हें अपना शुल्क मिल गया। वे सहर्ष लौट चले।
सोहनलाल वृन्दावन और सेवाकुंज के बारे में बातचीत करने लगे। कभी विजय उत्तर देता और कभी हेमू। फिर वे रेवाड़ी के बारे में पूछने लगे। हेमू ने बड़ी विनम्रता से बातचीत की। कुछ बताया और कुछ छिपाया।
भोजन का समय हो गया। वहीं भोजन आया। सेठ जी ने सबके साथ थोड़ा-सा भोजन किया।
नौकर हुलास ने दोनों को भवन के पिछवाड़े की वाटिका में मुंशी हरसुख के पास पहुंचा दिया। मुंशी हरसुख ने इन दोनों का स्वागत किया। पास की कोठरी में उनकी ठहरने की व्यवस्था करा दी। दोनों गाढ़ी नींद में बेसुध हो गए।
अंधेरे के बीच उजाले का रंग उभरने लगा। पंछी कलरव करने लगे। मुंशी हरसुख ने बिछावन से उठकर भजन गाना आरम्भ किया। सूरदास का पद मन्द स्वर में फैलने लगा। हेमू की नींद टूट गई। पर आंखें बन्द रहीं। उसने पद के शब्दों को पहचानने की चेष्टा की। यह श्री हितहरिवंश का पद नहीं है। पद की अन्तिम पंक्ति से मालूम हो गया कि सूरदास का पद है। उसने भी चाहा कि वह श्री हितहरिवंश का पद गुनगुनाये। उसने आंखें खोलीं। अंधेरे में उस कोठरी का आभास मिला। बाहर वाटिका है। विशाल भवन का अंग है। यानि वह अब आगरा में है। यह सब कैसे हो गया? रेवाड़ी के छोटे-से गांव से आगरा आ गया। क्या उसकी इच्छा-शक्ति का परिणाम है ? या यही काल की गति है ? क्या यही नियति का चक्र है ? परिस्थितियों ने उसे अशान्त बना दिया। गांव उजड़ गया। पारो की चिता धधककर राख हो गई। वह पीड़ा से विकल होता रहा। उसके भीतर जूझने का विचार जगा। योगी जी के पास पहुंच गया। रोटी की समस्या खड़ी हो गई। उसे गांव छोड़ना पड़ा। वृन्दावन आया। एक तरफ मन का विश्वास बढ़ा। दूसरी तरफ मुगलों के आक्रमण की सम्भावना की सूचना मिली। उसकी अशान्ति बढ़ गई। वह आगरा आ गया। पर यहां वह क्या कर लेगा? पारो का प्रतिकार सम्भव है ? खवास खां तो बादशाह से विद्रोह कर पश्चिम चला गया है। ये तुर्क अफगान आपस में लड़ते हैं और प्रजा को तबाह करते हैं। वह कैसे समझा सकेगा?
वह तो सेठ के यहां नौकरी करेगा। दोनों संध्या रोटी-साग पा लेगा। पर इतने से उसका मन सन्तुष्ट नहीं होगा। वह राजधानी को बताने की कोशिश करेगा कि मुगल कितने बर्बर हैं। इन्हें रोको। अपने देश से दूर करो।
विजय ने करवट ली, आंखें खोलीं, वह उठकर बैठ गया। उसे लगा कि हेमू अभी तक सोया है, उसने उसे झकझोर दिया, वह तो जागा हुआ था, मुस्कराता हुआ उठ बैठा।
मुशी हरसुख का भजन पूरा हो गया। वह उनके पास आया, दोनों को जमना जी में नहाने का निमन्त्रण दिया। दोनों ने निमन्त्रण को स्वीकार किया, कछ ही देर में वे तीनों आगरा नगर के राजमार्ग को पार कर यमुना जी के तट की ओर बढ़ गए।
हेमू ने देखा कि यमुना के पार आगरा का आधा भाग झलक रहा है। किले का ऊंचा परकोटा लहराते हुए झंडे के साथ सिर उठाए खड़ा है।
मुंशी हरसुख बता रहा था कि सिकन्दर लोदी के राज में हिन्दुओं के यमुना-नहान पर भी रोक थी। उसने मथरा के केशवदेव मन्दिर को तो तोड़ा ही, स्नान-पूजा को भी बन्द कर दिया, पता नहीं कितने लोग इस अत्याचार के विरोध में मारे गए !
मुंशी जी ने आगे बताया कि मुगल बाबर तो परदेशी था। उसने राणा सांगा की पराजय के बाद सबको कुचलकर अपना राज्य खड़ा किया। अपने गुरु-फकीर के इशारे पर अयोध्याजी में श्रीराम मन्दिर को तोड़ दिया। वहां के लोग लड़ते रहे, अपना खून देते रहे।
'तब तो अफगानों के सूरी वंश का राज्य कुछ उदार है।' हेम् ने पूछा।
'हां, बहुत कुछ उदार है। तभी तो हम यमुना जी में नहाने आ गए हैं।' मुंशी जी ने उत्तर दिया।
वे नदी तट पर आ गए थे। स्थान-स्थान पर सुरक्षा चौकी बनी हुई थी, सैनिक तैनात थे, हेमू ने उन्हें देखा। वे सभी पठान-अफगान नही थे, कुछ हिन्दू भी थे, उनके चेहरे से लग रहा था। उसे अच्छा लगा। विजय ने चाहा कि वह स्नान के बाद पूजा भी कर ले।
मुंशी जी ने समझाया कि वह नहाकर घर पर ही पूजा करेंगे, यहां इससे अधिक नहीं। हेमू नहाते समय सोच रहा था कि यमना की लहरों में शरीर और मन का मुक्त बहाव है, परन्तु सर के ऊपर शाही झंडा है....झंडे का आतंक है, पर अत्याचार की स्थिति नहीं है। यही बहुत है ! लोग सहमते हुए आते हैं। जल में डुबकी लगाकर धन्य हो जाते हैं।
तीनों लौट चले, कुछ लोग साथ लौट रहे थे। कुछ लोग अलग-अलग आ-जा रहे थे।
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