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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


आठ



मंगला आरती के बाद संकीर्तन के स्वरों के मध्य प्रसाद का वितरण होने लगा। संत पूरनदास ने हेमू को संकेत दिया कि वह शीश झुकाकर प्रसाद ग्रहण कर ले। हेमू ने शीश झुकाकर ही प्रसाद ग्रहण किया। संत जी उसे श्री हितहरिवंश जी के पास ले गए। उन्होंने ब्रजरज और रोली से हेमू के भाल पर तिलक कर दिया, और आशीष देते हुए कहा-'हेमू ! तिलक की रेखाएं कृष्ण रूप हैं तथा रोली की लाल बिन्दी राधा रूप। अब तुम सदा इनके साथ हो।'

'हां, गुरुदेव ! आपकी आशीष भी प्रत्येक क्षण मेरे साथ है।' हेमू ने विनम्र भाव से कहा।

'राधावल्लभ जी के प्रति भक्ति प्रत्येक क्षण जाग्रत रहे। इसके साथ तुम्हारी सहज तेजस्विता, निर्भीकता तथा दु:खी लोगों के प्रति सेवाभावना बनी रहे। जीने के लिए ये आवश्यक हैं।'

'इस मन्त्र को सदा स्मरण रखंगा।'
'तुम्हारी यात्रा मंगलमय हो।'
हेमू ने हितहरिवंश जी का चरण स्पर्श किया। आशीर्वाद मिला। पूरनदास गद्गद थे। संत नवलदास, संत परमानन्द, हरिराम व्यास तथा नरवाहन जी भी आ गए थे। विजयवाहन भी उपस्थित था।

सभी सत पूरनदास जी की कुटिया में आए। पूरनदारा ने रास्ते के लिए भोजन की पोटली हेमू की झोली में रख दी। फिर सोने की एक पुरानी अंगूठी उसकी हथेली पर रखकर कहा- 'हेमू बेटे ! मेरे पास यह अंगूठी बच रही थी। तुम्हें देने के लिए समय की प्रतीक्षा कर रहा था। इसे संभाल लो ! इससे कुछ सहायता मिल जाएगी। और यह चिट्ठी है। आगरे के सेठ सोहनलाल के नाम है। इस चिट्ठी के साथ सेठ जी के पास पहुंचना है। वे अवश्य ही सहायता करेंगे।'

हेमू ने हाथ फैला दिया। चिट्ठी को ले लिया। उसकी दष्टि पिताश्री के मुख पर गई। देखा कि उनकी आंखों में आंसू हैं। उसकी आंखें भी भीग गईं। पलकें झुक गईं। कुछ बोल नहीं सका। पर आंसुओं की भाषा सबकी समझ में आ रही थी।

पूरनदास जी मन्द स्वर में बोल उठे–'हेमू ! तुम आगरे में अपने को अकेला मत समझना। हम सबका आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। पुत्र के बहक जाने से दुःखी सेठ सोहनलाल का स्नेह भी पा लोगे। उन्हें पितृवत् समझना।'

'मुझे प्रकाश मिल गया, पिताजी ! इसीलिए तो आपके पास आया था। आपकी आशीष से आगरा शहर अपना हो जाएगा। अब आप मुझे विदा दें।'

हेमू सबको नमन कर और सबसे भंगल कामना पाकर विदा हुआ। कंधे पे झोली लटकायी। देख लिया कि झोली में भस्मी की डिबिया है। पारो की स्मृति जग गयी। विजय ने संकेत किया। वह उसके साथ चल पड़ा। सेवाकुंज से बाहर निकलने पर दो घोड़े तैयार मिले। दोनों घोड़ों पर सवार हुए। घोड़ों की टापें उठीं। आकाश पर बादल मंडरा रहे थे। विजयवाहन ने कहा-'हेमू भाई ! आकाश हमारा स्वागत कर रहा है। देखो, इन्द्रधनुष छा गया है।'

'विजय ! जब कोई व्यक्ति संकल्प कर धरती पर पैर रोपता है, आकाश मंगल रंग बिखेरता ही है।' हेमू के स्वर में दृढ़ता थी।

विजय हेमू के इन शब्दों पर विचार करता रहा। दो क्षण के बाद बोल उठा-हेमू ! पहले पिताजी कठोर जमींदार के रूप में हुंकार करते थे। गरीब किसान भय से सहमे रहते थे। आज वे भक्ति का संकल्प कर चुके हैं। अब उन्हें आदर का मंगल पुष्प मिल रहा है। "पर शाही तख्त क्या चाहता है ? मैं कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा हूं।'

'जो ओहदा, दौलत और ऐयाशी चाहता है, वह तख्त के इशारे "पर चले। लेकिन यह अच्छा नहीं है।'

'अच्छा क्या माना जाय, हेमू भाई !'

'स्वाभिमान के साथ जीना, सबके साथ जीना और अपनी धरती मां की प्रतिष्ठा के लिए जीना।'

'इतनी दूर तक कैसे सोच लेते हो ?'

'भाई विजय ! अपने चारों ओर के जीवन को देखते-सुनते और कुछ पढ़ते-समझते ये बातें अन्तर में गूंजने लगती हैं।'
तुर्क-पठानों के राज्य में स्वाभिमान के साथ जीना सम्भव नहीं। इसलिए तो मेवाड़, जयपुर, रणथम्भौर की ओर जाना पड़ेगा।'
'विजय ! तुर्कों के आक्रमण और विध्वंस के बाद उनका कठोर शासन शुरू हुआ है, हम हताश हो गये हैं। यह सही है। यह भी सही है कि जब-तब रोष उभरता है। पर कुचल दिया जाता है। एकाध वीर राजे अकेले लड़ लेते हैं। परिणाम तो मथुरा का विध्वंस है। निराशा स्वाभाविक है। परन्तु निराश नहीं होना चाहिए।'

'आशा-विश्वास कैसे जगे?'

'वृन्दावन और गोकुल में नये विश्वास के आधार पर लोग जीने लगे हैं। कबीर की वाणी भी नयी आशा दे रही है।'

'हां, यह तो लग रहा है। पर तुम तो आगरा जा रहे हो। वहां शाही कानून के मुताबिक व्यापार करोगे। नये विश्वास और स्वाभिमान के साथ कैसे जी सकोगे ?'

'तुम्हारा प्रश्न उचित है। आरम्भ में कठिनाई होगी। धीरे-धीरे परिस्थिति को अनुकूल बनाना होगा। क्या करूं ! भोर-संध्या रोटी चाहिए। रोटी के साथ सोचने की आजादी चाहिए और जीने के लिए स्वाभिमान एवं विश्वास।'

'तब तो आगरा में टिक नहीं सकोगे। अपने गांव में रह जाते या वन्दावन में।'

'शाहों की लड़ाइयों से गांव उजड़ जाता है। मेरा गांव भी उजड़ गया है। बहुत कुछ लुटाकर आया हूं। सोचा है कि आगरा में रहकर उसके रंग-ढंग को समझू। राजा क्या करता है और कैसे लूटता है ?

'तुम व्यापार नहीं कर सकोगे, हेमू ! और कुछ करके आफत मोल ले लोगे।'

'तुम सहायता करोगे न !'

'हित-मित बन गये हो। सहायता करनी पड़ेगी। पर मैं तो यही कहूंगा कि अधिक सोचना बन्द कर व्यापार करो। राजधानी में धन कमाओ। हमें भी खिलाओ-पिलाओ।'

'खिलाना तो अभी से आरम्भ करूंगा। चलो, थोड़ा सुस्ता कर खा लिया जाय।

हेमू ने घोड़े को रोक लिया। विजय ने चारों ओर देखा। पास में ही गांव और गांव से सटा उपवन दिखायी पड़ा। वह भी रुकने और विश्राम करने को तैयार हो गया। दोनों गांव की तरफ चले। उपवन के पास घोड़ों से उतर गये। उन्हें पेड़ों से बांधकर इधर-उधर देखा। कुआं दीख पड़ा। वहीं जाकर दरी बिछा दी। दोनों विश्राम करने लगे। फिर हाथ-मुंह धोकर खाने बैठ गये। हेमू ने झोली से भोजन की पोटली निकाली। पोटली में रोटी, साग और पेड़े थे। दोनों खाकर तृप्त हुए। जल पीकर पुनः विश्राम करने लगे।

लोगों के शब्द सुनायी पड़े। गांव के लोग उपवन में इकट्ठे हो रहे थे। कुछ लोगों ने पेड़ की छांव में एक चौकी रख दी। उस पर कम्बल बिछा दिया। सभी हरी-हरी घास पर बैठ गये। उजले कपड़े में एक साधु आये। चौकी पर आसन जमाया। सबके शीश झुके। साधु का प्रवचन आरम्भ हुआ—'सद्गुरु कबीर दास ने कहा है--'जांत-पांत पूछ ना कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।'

भगवान सबका मालिक है। सबका परमपिता है। वह सबको प्यार करता है। हम उन्हें प्यार करें। उनकी भक्ति करें। जांत-पांत की कोई जरूरत नहीं है। जो भगवान की भक्ति करेगा, वही भगवान का प्यारा कहलाएगा। जाति के कारण नहीं, पाक-पवित्र भक्ति के कारण हम सभी हरि के जन हैं, हरि के प्यारे हैं। उनकी भक्ति के लिए किसी बाहरी आडम्बर की जरूरत नहीं है। कहीं भटकना नहीं है। वह तो हम सबके अन्दर है। अन्दर की जोत को पहचानने के लिए कौन रोकेगा? इसीलिए सद्गुरु ने बताया है-

'मन मथुरा, दिल द्वारिका, काया कासी जान,
दस द्वारे का देहरा, तामें ज्योति पिछान।'

कोई उठकर खड़ा हुआ और बोला-'तो मन्दिर में जाना और तीरथ करना बेकार है ?'
दूसरे ने कहा- 'वे मन्दिर में जाने भी कहां देते हैं ?'

साधु ने उन्हें शान्त करते हुए बताया—'यह मानव-शरीर ही मन्दिर है। इस मन्दिर में ही आत्मा रूप परमात्मा है। इसे जगाओ, इसी के दर्शन करो। कहीं मत भटको।'

तीसरा उठकर बोलने लगा-'आज भोर में एक सूफी साधु आये थे। वे भी ईश्वर और खुदा को एक बता रहे थे। खुदा के सुन्दर रूप से प्रेम व इश्क की बातें कर रहे थे।'

साधु ने मन्द मुस्कान के साथ समझाया-'सद्गुरु कबीर इसी धरती मां की सन्तान हैं। उन्होंने ही सबसे पहले हिन्दू और तुर्क के, ब्राह्मण और शूद्र के और मानव एवं मानव के भेदभाव मिटाने की आवाज दी है। उन्होंने सबको भगवान की भक्ति के लिए मन्त्र दिया है। वे ही महान गुरु रामानन्द के शिष्य थे। उन पर तो तुर्क बादशाह भी नाराज हुआ और काशी का पंडित भी। पर वे निडर होकर अपनी वाणी सुनाते रहे। इसीलिए उनके शिष्यों को मन्दिर के पुजारी से डांट नहीं सुननी पड़ी और न अपना धर्म बदलना पड़ा। हम शुद्ध जीवन जियें। आत्मा को पवित्र बनायें। परमात्मा अपने आप दर्शन देगा। 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।'

ऐसा लगा कि सबके मन को समाधान मिल गया है। सभी प्रसन्न दिखायी पड़े। विजय और हेमू भी साधु के प्रवचन को सुन रहे थे। जब-तब एक-दूसरे को देख लेते थे।

साधु ने पद-गान शुरू कर दिया -
मन लागा यार फकीरी में,
जो सुख पायो रामभजन मे, सो सुख नाहिं अमीरी में।

विजय और हेम् चलने को तैयार हुए। पर उनके पैर रुक गए। वे भी भजन सुनने लगे। भजन समाप्त हुआ, दोनों घोड़ों पर सवार हुए। गांव के लोग उन्हें देखने लगे। क्या ये बादशाह के चाकर हैं ? हाकिम हैं ? उन्हें थोड़ा भय हुआ। वे एक-दूसरे से पूछने लगे। साधु ने समझ लिया कि ये भोले-भाले ग्रामीण भयभीत हैं। साधु ने सद्गुरु कबीर का जीवन-प्रसंग सुनाया। और वे सबके साथ गांव की ओर बढ़ गये। सभी भय से मुक्त होकर अपने-अपने घर के द्वार पर आए। साधु बच्चों से हंसने-बोलने लगे।

उधर हेमू कह रहा था-'भाई विजय ! यदि शेरशाह के वंशज का शासन और उदार हो जाता और युद्ध का डर दूर हो जाता तो बड़ा कल्याण होता। यदि ये साधु सन्त पूरी स्वतन्त्रता के साथ मानव को समता, करुणा और प्रीति का सन्देश दे पाते तो अपना देश स्वर्ग बन जाता।'

हेमू भाई ! तुम स्वर्ग के सपने देख रहे हो ! यहां तो कलियुग प्रबल है। स्त्रियां डर से घर में छिपी रह रही हैं। मानव-मानव में भेदभाव चल रहा है। कहीं जाति के नाम पर भेदभाव है और कहीं धर्म के नाम पर। यह तो नरक है।' विजय ने उत्तर दिया।

'नरक और घिनौना बनने वाला है, विजय ! मुगल फिर आ रहे हैं। युद्ध, रक्तपात, विध्वंस और स्त्रियों की दुर्दशा की आंधी आएगी। बचना कठिन होगा। मैं सब कुछ लुटाकर भटक रहा हूं।' हेमू के स्वर में पीडा झलक आयी।

विजयवाहन हेमू की आंखों में पीड़ा पढ़ने लगा। हेम् की आंखों में पारो की चिता धधकने लगी। विजय तो देख नहीं सका। पर कुछ अहसास-सा कर रहा था।

आगरा निकट आ गया। सीकरी की ओर न जाकर वे दोनों आगरा की ओर मुड़ गये। सांझ हो चली थी। आगरा-सीकरी मार्ग में लोगों की भीड़ दिखायी पड़ी। विजय और हेमू के घोड़े थक गए थे। पर उन दोनों का उत्साह बढ़ गया था। भीड़ से बचकर ये आगरा की ओर बढ़ते गए। संध्या की लाली में आगरा नगर की चारदीवारी, बुर्ज, ऊंची अट्टालिकाएं और आसपास की अटारियां दिख रही थीं। घुड़सवार सिपाही भाले और तलवार से लैस होकर आगरा की ओर जाते दिखायी पड़े। ये दोनों भी बढ़ते ही गये।

आगरा यमुना के दोनों ओर बसा था। किला और शाही हुक्मरानों के दफ्तर नदी के पार थे। इस पार शहर का बाजार था ! सैनिक चौकी थी। नदी के दोनों तरफ सुरक्षा की पूरी व्यवस्था थी। नगर के प्रवेश-द्वार पर भी जांच चौकी थी। ये दोनों पहुंचे। हेम के हृदय की धड़कन बढ़ गयी। वह सोचने लगा-वह हिन्दुस्तान की राजधानी में आ गया है। इसी के संकेत पर देश का शासन होता है। कानून लागू होते हैं। युद्ध की घोषणा होती है। वह इसी राजधानी को देखेगा। बादशाह को देखेगा। पर पहले रोटी का प्रबन्ध करना होगा।

जांच चौकी पर ये दोनों रोक लिये गए। विजय ने चिट्ठी पेश की। चिट्ठी की जांच हुई। पूछताछ भी हुई। विजय जवाब देता रहा। और तब उन्हें नगर-प्रवेश की अनुमति मिली। दोनों आगे बढ़े। हेमू आश्चर्य से देखने लगा। वर्षा आरम्भ हो गयी। वर्षा की शीतल फुहार में भीगते हुए दोनों सेठ सोहन लाल के लक्ष्मी भवन के द्वार पर जा पहुंचे।

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