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ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य

हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


दस



आगरा शहर के दक्खिन-पश्चिम स्थित सिकन्दराबाद नामक मुहल्ले के एक मकान में सेठ सोहनलाल का पुत्र मोहनलाल, जमाल अहमद बनकर रह रहा है। सुबह होने वाली थी, उसकी बीवी नूरी की नींद टूट गई। उसकी पहली नजर जमाल (मोहन) पर गयी। नींद में बेसुध जमाल का चेहरा बड़ा खूबसूरत लगा। वह देखती रह गयी, उसके दिल ने चाहा कि वह अपने जमाल को देखती रहे। वे कभी दूर नहीं हों, वह उनके पास तितली की तरह मंडराती रहे, वे फूल की तरह खिले रहें, पर उसके पास दूसरी तितली न आ जाए। कभी वह फूल बन जाए और वे भंवरे के समान गुनगुनाते रहें, पर वे दूसरे फूल की तरफ मुड़ नहीं जायें। लेकिन कुदरत ने ऐसा नहीं बनाया। बाग में बहुत-से फूल खिलते हैं, भंवरे एक फूल से दूसरे फूल पर मंडराते रहते हैं, तितली भी एक जगह नहीं टिक पाती। यह तो ठीक नहीं है, वे दोनों फूल और तितली नहीं हैं, वे तो इंसान हैं, प्यार में सारी दुनिया को भूल जानेवाले औरत और मर्द हैं। अब वे सिर्फ औरत और मर्द नहीं हैं, बीवी और शौहर हैं, प्यार से एक-दूसरे को पाया है, इन्होंने तो कुरबानी दी है-अपने घर-परिवार और धरम की, इन्होंने प्यार को सबसे ऊंचा माना है।

जमाल (मोहन) ने करवट ली, चेहरा थोड़ा छिप गया, नूरी देखती रही, अजान की आवाज सुनायी पड़ी, वह उठ बैठी। उसने दिल में उमड़ते जज्बे को समझा, एक पल सोचा और जमाल (मोहन) के कदमों “पर झुक आयी। चाहा कि उसे जगा दे। नहीं, थोड़ा और आराम कर लें यह सोचते हुए उठकर कमरे से बाहर आ गयी। आंगन में अमरूद और शरीफे के पेड़ थे, उन पर परिन्दे चहचहा रहे थे।

जमाल (मोहन) ने करवट ली, नींद टूट रही थी, उसे अनुभव हुआ कि नूरी उसके पैरों पर झुक रही है, हिन्दु स्त्री के समान पैरों को छकर प्रणाम कर रही है। उसे अच्छा लगा, उसने आंखें नहीं खोलीं, "पलकें बन्द किए नरी के प्यार का अहसास करता रहा। उसे लगा कि वह सब कुछ पा ग ग है, उसने गलती नहीं की है। पर उधर के सारे लोग उसे गलत मान रहे हैं। पिताजी ने अधर्म मान लिया, डांट-फटकार की, उसने सिर झुकाकर सहा, बहन पार्वती ने समझाया, परन्तु वह विवश था। नूरी के लिए मन में कहां से प्यार उमड़ आया था ! वह समझ नहीं सका था, धीरे-धीरे वह प्यार गहराता गया।

वह होली में इत्र के लिए इसके मकान पर आया था। इसके अब्बा हुजूर इलाहीबख्श अपनी दुकान से इत्र भेज नहीं सके थे, भूल गए थे, वह पिताजी के कहने पर ही इत्र के लिए गया था। वहां उसने पर्दे से झांकती नूरी को देखा, उसकी झुकी पलकें, झांकती आंखें और शहद घुली बोली-उसने अजीव आकर्षण का अनुभव किया। वह आकर्षण धीरे-धीरे अनुराग में प्यार में बदलता गया। पहले तो इसके अब्बा हुजूर कुछ नहीं समझ सके, वे तो समझ रहे थे कि आगरा के सेठ सोहनलाल का बेटा इत्र खरीदने के लिए बार-बार आ रहा है, एक कामयाब सौदागर के समान स्वागत-सत्कार कर रहे थे। वैसे भी गन्धीइत्रफरोश के व्यवहार में जूही-केवड़े और गुलाब की मोहिनी गन्ध बसी रहती है। इसी मोहक वातावरण में प्यार की गन्ध अनदेखे-अनजाने प्राणों में बसने लगी। इलाही बख्श को अन्दाज मिला, तेवर बदल गये, उनका भतीजा सरवर अली तो बहुत ही गुस्से में था, इस काफिर को धमकी मिलने लगी।

उस समय उसे लगा था कि वह मार खाकर घर में छिपने को मजबूर हो जाएगा, हो सकता था कि घर भी सहारा नहीं दे, तब वह न घर का रहेगा न घाट का। शायद वह प्यास से तड़पता रह जायेगा, धमकियों के बीच उसका चलना-फिरना-जीना कठिन हो गया। ऐसा लगता था कि उसे चारों ओर से घेरकर आग सूलगा दी गयी है, वह प्रेम की तपस्या की स्थिति थी। उधर सगे-सम्बन्धी एक अधर्मी से घिनाने लगे, इधर के लोग उसे काफिर समझकर गस्सा करने लगे। लाल-लाल आंखों के बीच से होकर बच निकलना बहत कठिन हो गया। नरी ने सहारा दिया, उसके अब्बा ने धर्म बदलने की बात की। सरवर तो गुस्से में पागल हो रहा था, वह नूरी पर भी नाराज था। कारण था कि वह अपनी चचेरी बहन नूरी से शादी करना चाहता था। इलाहीबख्श भी चाह रहे थे, वह बीच में मोहन आ गया, नूरी ने उसे चाहा, चाहों के संगम पर ऐसी लहर उठी कि बेचारा सरवर दूर किनारे फेंक दिया गया।

नूरी से प्यार पाकर वह सबके क्रोध से टकरा गया। टकराने के लिए धर्म बदलना जरूरी लगा, एक ही रास्ता था, वह धर्म बदलने को तैयार हो गया। पिताजी ने घर से निकाल दिया, मां और बहन रोती रह गयीं, चौधरी नरवाहन ने आकर समझाया, थोड़ा धमकाया भी, वह अपने रास्ते पर अकेला था। प्रहारों के बीच बढ़ता गया और उसने नूरी के हाथों को थाम लिया। कलमा पढ़ना और निकाह की रीति पर उसका ध्यान न था, उसकी आंखों के सामने केवल नरी थी, नूरी की झुकी हुई पलकें थीं।
 
सरवर अली ने जोरदार विरोध किया, लेकिन इस्लाम मजहब अपना लेने से इलाहीबख्श और पड़ोसी मुसलमानों का दिल पिघल गया। शादी हो गयी, नूरी उसकी हो गयी, शहनाई के स्वर ने अन्धड़ को बयार में बदल दिया।

एक माह बीत गया, लगता था कि वह सेहरा पहने शहनाई की धुन पर नूरी के गले में माला डाल रहा है और वह अपनी माला उसके गले में डालती हुई हृदय से लग रही है। माला में फूलों की गन्ध नहीं, प्यार की सुगन्ध है, घृणा और क्रोध की बदबू को उसने दूर हटा दिया।

मालूम है, उधर सभी उससे घृणा कर रहे हैं। उसी घृणा ने उसे हठी बना दिया। सरवर के गुस्से ने उसके हठ को आठ गुना कर दिया। आरम्भ में थोड़ा-सा डर हुआ था, पर नूरी ने डर मिटा दिया। उसके बाद भी रास्ता नहीं मिल सका था, प्यार में अपना धर्म बाधक बन गया, धर्म और मजहब-दोनों दो दिलों को मिलाने में रुकावट डाल चुके थे, दोनों लाठी तान रहे थे, पर उसे मजहब की शरण में जाना पड़ा। सरवर की चुनौती को जवाब देने के लिए एक ही रास्ता बच रहा, जान रहा था कि घर-द्वार, मां-पिताजी-बहन और धन-संपत्ति सबको छोड़ना पड़ेगा। धर्म ने सबको जोड़ रखा था, दूसरे से जुड़ गया, अपने से अलग कर दिया गया, पर मन तो मां को प्रणाम करता है। पिता के सामने झुक जाता है, बहन को प्यार करता है, लेकिन वह उनके पास जा नहीं सकता, उनकी तरफ जा नहीं पाता। इधर ही रहना पड़ता है, यह तो जब-तब बहुत अखरता है।

नूरी को अपने पास पाता है, सरवर का विफल क्रोध देखता है, वह सब कुछ भूल जाता है, इनके रहन-सहन के ढंग को भी सह रहा है, सीख रहा है, उसने अनुचित नहीं किया। प्यार करके अधर्म नहीं किया। अपने लोगों ने अधर्म माना है, अब वह विधर्मी बन गया है, ऐसा क्यों?

उसने किसी के पैरों की आहट सुनी। वह सोच ही रहा था कि उस पर जल के छींटे बरस पड़ें। वह अचकचा गया, वह उठ बैठा। उसने महसूस किया कि पानी के छींटे तो केवड़े में मिले थे और आंखों के सामने गुलाब-सी मुस्कराती नूरी खड़ी थी।

'हुजूर सेठजी ! सुबह हो चुकी है, परिन्दे इस्तकबाल कर रहे हैं।' नूरी शरारती मुस्कान के साथ बोल उठी।

'परिन्दे केवड़े के पानी से स्वागत करते हैं, पाहुने का ! बहुत खूब !! पर इनमें बुलबुल भी हैं या सिर्फ गौरैया ?' जमाल अहमद (मोहन) ने भी शरारती सवाल कर दिया।

'नहीं, जनाब ! परिन्दे तो अगवानी का गीत गा रहे हैं, और... पुजारन अपने देवता की पूजा के बड़े के पानी से कर रही है। सिर्फ फूल लाना भूल गयी थी, इस गलती के लिए माफी।'

'इस अजीबोगरीब बात के लिए कौन किसको माफ करे ! मोहनलाल जलाल अहमद बन गया और नूरी प्रभारानी बन गयी है।'

'नूरी प्रभारानी कैसे बन गयी? हुजूर जरा समझायें।'
'नूरी पूजा जो करने लगी।
'मैंने अपने देवता की पूजा की है, जानेमन ! बुतखाने के देवता की नहीं।'
'अगर मैं देवता हूं तो नूरी देवी है।'
'यह इश्क की करामात है, सरकार !'
'इसी इश्क के कारण सब छोड़ चुका हूं, नृरी ! बहुत खोकर तुझे पाया है। इसी खशी में डूबा रहता हूं।'
नूरी ने महसूस किया कि उसके देवता के दिल में दर्द है, अपने घर और अपने धर्म से जुदा हो जाने का। सचमुच इन्होंने बहुत कुरबानी दी है, अगर इन्हें इतना खोना नहीं पड़ता और दोनों की शादी भी हो जाती तो कितनी बड़ी बात होती, पर ऐसा नहीं हो सका।

मजहबी दुनिया का कैसा दस्तूर है !

नूरी ने जमाल (मोहन) का हाथ थामकर उठाया। जमाल उठ कर खड़ा हो गया, दोनों ने एक-दूसरे को देखा, नूरी की पलकें झक आयीं। जमाल ने अधखुली पलकों को देखते-देखते हृदय से लगा लिया, नूरी ने मधुर स्वर में कहा-'आप फरागत हो लें, नाश्ता तैयार है।'

'देवी का हुक्म सर-आंखों पर।' यह कहकर जमाल सहन की ओर चला गया।

नूरी देखती रह गयी। अचानक बगल से उड़ता हुआ एक कौआ आ गया, शरीफे के पेड़ पर बैठ गया, कांव-कांव करने लगा। उसे याद आयी कि सरवर भाई गुस्से में कुछ-न-कुछ बकते रहते हैं। पीछे की गली में ही तो मकान है। मात खा गए हैं, गुस्सा तो कर ही सकते हैं, ऐसा न हो कि कुछ नुकसान पहुंचा दें। बदमिजाज तो पहले से हैं। अब तो वे बदगुवां भी हो गए हैं, कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन ऐसा नहीं हो सकता। अल्लाह की मेहरबानी है तो कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। इधर के सब लोगों ने इस शादी पर खुशी मनायी है। अब सरवर साहब क्या करेंगे? उससे होशियार तो रहना है।

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