लोगों की राय

ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य

हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

56 पाठक हैं

हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


सात



राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रधान श्री हितहरिवंश जी का प्रवचन आरम्भ हुआ। शिष्यों और भक्तों का समुदाय श्रद्धा के साथ उनके सामने बैठा था, सन्त परमानन्द जी हेमू के साथ आ गये। हेमू पास ही बैठ गया, परन्तु मन में आगरा जाने की इच्छा जग रही थी। वह उधर की ही कल्पना करने लगा।

श्री हितहरिवंश जी मधुर स्वर में कह रहे थे – 'यह वृन्दावन नित्य विहार का पावन धाम है। हमारा सौभाग्य है कि हम वृन्दावन की धूलि में विराजमान हैं। इसी वृन्दावन में विदग्धनागरी श्रीराधा और रसिक शेखर श्रीकृष्ण नित्य आनंददायिनी क्रीड़ाएं करते हैं। यह वृन्दावन तो साक्षात् राधा रूप है, आप सभी प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं। श्रीराधा की रोमराशि वृन्दावन की यमुना है, अंगों की दीप्ति वृन्दावन का बंधूक पुष्प है, नाभिविवर्त्त वृन्दावन के सरोवर हैं, वक्षोज ही वृन्दावन के पुष्पगुच्छ हैं; भुजाएं वृन्दाविपिन की लताएं हैं, नूपुरों की गुंजार भौंरों का गुंजन है यह वृन्दावन नित्य वृन्दावन है। यह पार्थिव होकर भी अपार्थिव है, इसलिए यहां ही नित्य किशोरी राधा और नित्य किशोर कृष्ण का नित्य विहार होता रहता है। हम इसमें सम्मिलित होते हैं। हमें ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है, हमारा जीवन सार्थक हो जाता है।

सबके शीश झुक गए -- दो बार। एक बार नित्य वृन्दावन की भूमि पर और दूसरी बार गुरु के चरणों में।

हेमू सोचने लगा कि उसे पिताजी आगरा जाने की अनुमति देंगे ? नहीं देना चाहेंगे। वे रोकेंगे, पर उसे जाना है, उसे रोक नहीं सकेंगे। वे बहुत प्यार करते हैं, अनुमति देंगे वह वृन्दावन के दर्शन कर चुका, उसने संत पूरन जी की ओर देखा, पूरन जी प्रसन्न दिखायी पड़े।

श्री हितहरिवंश जी ने प्रवचन समाप्त कर दिया था। वे आसन से उठकर खड़े हुए, सभी लोग उठकर खड़े हो गए। वे अपनी कुटिया की ओर चल पड़े। पूरनदास जी हेमू के साथ चलने लगे, धूप कड़ी हो गयी थी, वे हेमू के कन्धे पर हाथ रखकर छांव में चलते गये। अपनी कुटिया में आ गए, हेमू पंखा झलने लगा, पिता का हृदय तृप्त हुआ। वे बोल उठे- 'हेभू ! यहां तुम्हें कैसा लग रहा है ?' 

'हां, पिताजी ! वृन्दावन तो भगवान कृष्ण की लीलाभूमि है, परम पवित्र है, आज का प्रवचन बहुत अच्छा लगा।'

'तुम्हारा यहां आना ठीक रहा। इस भक्तिभाव के साथ तुम कहीं भी रह सकते हो। यदि विचार प्रखर और भाव जागृत रहे तो मनुष्य सुख से जीवन जी लेगा।'
'जी, हां ! जीने के लिए विचार का आधार आवश्यक है। अब तो हमारे कल के आराध्य श्रीराधावल्लभ जी हैं। सदा प्रेरणा मिलेगी।

'अब क्या सोचते हो ? रेवाड़ी जाओगे या मथुरा में रहकर कोई व्यापार या चाकरी करोगे ? अब तुम्हारा विवाह भी होना चाहिए।'

'पिताजी, आपकी आज्ञा हो तो आगरा जाऊं - देश की राजधानी है, वहां व्यापार कर आगे बढ़ा जा सकता है।'

'आगरा जाओगे ! दूर तो नहीं है, पर वहां किसी को शांति नहीं है। यवनों का दबदबा है, फिर किसी उलझन में पड़ जाओगे।'

'पिताजी ! आपके पास आकर मन को शांति मिल गयी है। अब तो श्रीगधावल्लभ जी के प्रति निष्ठा जग गयी है। इसके साथ कहीं भी भाग्य से लड़ा जा सकता है। यवनों का दबदबा तो सारे देश पर है, उनके राज्य में ही रहना है, जजिया देकर रहना है, केवल आपके आशीर्वाद से सब मंगलमय रहेगा।'

तुम्हारा बाल हठ बाध्य कर रहा है, हेमू ! जाओ! एक पत्र दंगा, बेटे ! आगरा में पहचान के एक सेठ हैं, भगवद्भक्त हैं। वे सहायता करेंगे, आज संध्या में नरवाहन जी से कहूंगा कि वे तुम्हें आगरा तक पहुंचाने का प्रबन्ध करा दें।'
ये नरवाहन जी कौन हैं ?'
'यमुनाजी के पार के भैगांव के हैं। बड़े क्रूर जमींदार रहे हैं, इनसे लोग पीड़ित रहते थे। एक दिन चीरघाट पर रासमंडल में भेंट हो गयी, कहीं से आ गये थे, श्रीगुरुरेव के दर्शन तथा वार्ता से उनमें परिवर्तन आ गया। वे शिष्य बन गए, अब वे सबके प्रिय बन गए हैं।'
'जैसी आपकी इच्छा !'
राजभोग के समय नरवाहन अपने पुत्र विजयवाहन के साथ आये। आरती में सम्मिलित हए, आरती और भजन के बाद सबने राजभोग का प्रसाद पाया। हेमू अपने समवयस्क विजयवाहन को देख फूला नहीं समाया। पूरनदास ने नरवाहन और विजयवाहन से हेमू का परिचय कराया। नरवाहन की घनी मूछों के बीच मन्द मुस्कान उभर आयी। विजयवाहन हेम की ओर देखता रह गया। हेम पास आ गया, दोनों बातचीत करने लगे। दोनों में दुराव नहीं रह गया, वे दोनों बातचीत करते मन्दिर के बाहर निकल आए।

संत पूरनदास ने नरवाहन से अनुरोध किया- 'बेटा आगरा जाना चाहता है, उसे कल प्रभात में मंगला आरती के बाद जाना है। यदि साथ में विजयवाहन जाय तो दोनों हंसते-बोलते पहुंच जायें।'
'यह कौन-सा बड़ा काम है, संतजी ! बस, बीस कोस जाना है। दो दिनों में घूम-फिर कर लौट भी आएंगे।' नरवाहन ने आश्वासन दिया।
'लौटकर नहीं आना है। बेटा आगरा में रहकर व्यापार करना चाहता है, इसलिए सोचता हूं कि सेठ सोहनलाल के नाम एक पत्र दे दूं। भक्त-पुरुष हैं, पर वे बहुत दुःखी हैं।'

'वे दुःखी तो हैं, परन्तु वे सहायता करेंगे। उन्हें तो अपने व्यापार में सहायता मिल जाएगी, आपने ठीक सोचा है।'

'दूसरा कोई तो सूझ नहीं रहा है।'

'सरकारी दफ्तर में मेरी जान-पहचान है। पर वहां से मदद नहीं मिल सकेगी, सेठजी से मेरा भी परिचय है।'

'बेचारे का बेटा पठान लड़की से शादी कर पास रहकर भी दूर हो चुका है। मोहनलाल, जमाल अहमद बन गया है।'
'मैं उसे समझाने गया था, लेकिन उस पर प्रेम-इश्क का नशा चढ़ गया था, वह समझने को तैयार नहीं हुआ।'
'कोई लोभ से, कोई भय से और कुछ लोग ऊंच-नीच के व्यवहार से बचने के लिए अपना धर्म छोड़ रहे हैं। हर शहर और हर परगने से यह संवाद मिलता रहा है। क्या किया जाये ?'
'उधर अलाउद्दीन खिलजी, सिकन्दर लोदी और बाबर के समय तो भय प्रबल हो उठा था। शेरशाह की समझदारी से भय थोड़ा कम हुआ है, संतजी !'
'सबसे बड़ी बात है, नरवाहनजी ! कि कबीरदास, नानकदेव, हितहरिवंश जी और वल्लभाचार्य के भक्तिपंथ के कारण भय कम हुआ है। अपने आराध्यदेवता के प्रति निष्ठा के साथ जीवन जीने का विश्वास बढ़ा है।'
'यह तो आप ठीक कहते हैं।'
'सारे भारत में भक्ति का शंख गूंज रहा है, नरवाहनजी ! शाही दरबारों में लोग भय या लोभ से जाते हैं। पर वृन्दावन-गोकुल में तो सारे देश से लोग श्रद्धा से आते हैं। मैं नित्य अनुभव करता हूं।'
'हां, संत जी ! यह बहुत बड़ी बात है। नक्कारा, दमामा, दहल और नगाड़े की आकाशभेदी आवाज के सामने बंगाल से पंजाब तक शंख और घंटे-घड़ियाल बड़ी उमंग से बजने लगे हैं। वीणा और बांसुरी उदास मन को मोहने लगी हैं, पर एक बात कांटे के समान खटक रही है।'

'वह कौन-सी बात है ? शंका न पालें।'
'यही ऊंच-नोच की जन्मजात स्थिति ! छूत-अछूत से बंटे हुए लोग ! राम, कृष्ण और गंगा के सामने झुकने वाले श्रद्धालू लोग आपस में कितनी दूर-दूर रहते हैं ! जहां हृदय मिलता है; वहीं हृदय अलग-अलग हो जाता है। कोई सर्वश्रेष्ठ है, कोई श्रेष्ठतर है और कोई श्रेष्ठ है। कोई हीन है तो कोई अछूत, हीनतम हैं। कुछ के शीश तने हुए हैं तो कुछ के झुके हुए हैं-यही वर्णव्यवस्था है न !'
पर भक्ति ने सबको एक स्थान पर ला दिया है। सबके हृदय को मिलाया है, सबको भक्ति का अधिकार मिला है। क्योंकि भक्ति तो हृदय का धर्म है।'
'थोड़ा परिवर्तन आ रहा है।'
'आया है तो आता ही जायेगा।'
'गुरु रामानन्द ने रास्ता दिखाया है। सबको अपनाया है, पर पंडित-पुरोहित समुदाय इसे मानने को तत्पर नहीं है। गांव का जनसमुदाय तो पंडित-पुरोहित के आदेश पर सांस लेता है।'
'वे भी धीरे-धीरे मानेंगे, वे शास्त्र की रूढ़ियों से बंधे हैं।'
'इसीलिए कभी-कभी लगता है कि कबीरदास की बातें सही हैं। वे सबसे लोहा लेते रहे, मुल्ला और पंडित सभी से।'
'निस्सन्देह वे निर्भीक सन्त थे। हृदय की गहराई से बोलते थे। तभी तो दूर-दूर गांवों में उनकी वाणी सुनाई पड़ने लगी है। केवल उनके गोविन्द गोपाल हमारे राधावल्लभ नहीं थे, पर इससे बहुत अन्तर नहीं आता। एक ही सत्य की बात कर रहे थे।'

संत पूरनदास जी के स्वर में गाम्भीर्य था।
कोलाहल सुनाई पड़ा। दोनों सावधानी से इधर-उधर देखने लगे।
विजयवाहन और हेमचन्द्र-दोनों ने एक युवक को पकड़ रखा था। इधर ही ले आ रहे थे। कुछ तीर्थयात्री उस युवक पर बरस रहे थे। विजय ने नरवाहन जी के सामने उसे ला दिया। और कहा- 'यह मथुरा का है। इन तीर्थयात्रियों के पीछे-पीछे आ रहा था। 'राधा-- अनुराधा-विशाखा' बोल-बोल कर चिढ़ा रहा था।
'हाथ-पैर बांधकर इसे मथुरा भेज दो। काजी इन्साफ कर सजा देगा। यह तो सहन नहीं किया जा सकता।' नरवाहन ने रोष के स्वर में कहा।

'अपराध वृन्दावन में हुआ है। साक्षी यहीं हैं। पीड़ित यहीं हैं। यहां की पंचायत निर्णय कर सकेगी। पंचायत का तो अधिकार है ही।' पूरन जी ने सुझाव दिया।

'हां, आपका यह सुझाव समुचित है। पंचायत ही निर्णय करेगी। इसे एक कुटिया में बन्द कर दिया जाय। पंचायत को सूचना दी जाए।' नरवाहन जी ने निर्णय दे दिया।

अपराधी युवक नरवाहन जी को देखकर कांप रहा था। उसका सर झुक गया। वह भय से कुछ बोल भी नहीं पा रहा था। चारों तरफ लोग अपनी आंखों से आग उगल रहे थे। हेमू विजयवाहन से संकेत कर रहा था कि इसे कुटिया में बन्द कर दिया जाय।

दोनों उस अपराधी को कुटिया में बन्द करने के लिए आगे बढ़ आए।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book