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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


छह



रात में भोजन के लिए संत राजा परमानन्द की कुटिया पर निमन्त्रण था। शयन-आरती के बाद परमानन्द जी हेमू को साथ लेते गए। संत पूरनदास को भी साथ देना पड़ा। रास्ते में कांच के आलोकपात्र में दीपक जल रहे थे। अंधेरे का भय नहीं था, कहीं-कहीं हलका अंधेरा जरूर था। पर पास ही में हल्का उजाला भी था।

'देखो, हेमू ! अन्तर में भक्ति का उजाला हो और आसपास जलते दीपक का उजाला-तब जीवन तमस् से ज्योति की ओर बढ़ता जायेगा।' संत पूरन जी ने बेटे को मंत्रवत् संकेत दिया।

'यह तो सही है, पिताजी ! पर तुर्कों के कारण गांव उजड़ जाता है, मथुरा का विध्वंस हो जाता है, खेत-व्यापार घोड़ों की टापों से रौंद दिए जाते हैं, किसी की बेटी-बहू छीन ली जाती है, मन तो टूटकर बिखर जाता है।

हेमू ने शंका की।

क्षण भर की चुप्पी छा गयी।

'यह भक्ति-भावना इसी टूटते और बिखरते मन को संभाल रही है, हेमू ! दक्खिन में तो भक्ति व्यक्ति की एकान्त साधना के रूप में प्रकट हुई थी। पर आज उत्तर में भक्तिभाव नवजागरण बन गया है। एक मन्दिर टूटा तो विश्वास के साथ दूसरा उठकर खड़ा हो गया। दूसरा नहीं भी बना तो लोग कहीं नदी-तट पर, किसी उपवन में, कहीं 'पहाड़ पर और किसी खंडहर के आसपास इकट्ठे हो रहे हैं।'

'यह तो लग रहा है।'

'शाही फरमान से पत्थर और ईंट की भित्तियां टूट जायें, पर मन का शिखर नहीं टूटे। देखो, हेमू ! वन-उपवन में भक्ति की मुरली बज रही है। मन का शिखर ऊपर उठता जा रहा है। यह तो विश्वासपूर्ण अस्तित्व की घोषणा है।'

'यह तो ठीक है, परन्तु एक शंका है।'

कुटिया आ गयी। परमानन्ददास ने कहा- 'शंका का समाधान दूसरे दिन अब तो भोजन और विश्राम का समय है।'

हेमू चुप रह गया। उसे लग रहा था कि उसे थोड़ा समाधान मिला है। पर बहुत कुछ नहीं मिला। यदि वृन्दावन का भी विध्वंस हो जाय तो क्या होगा ? जैसे मथुरा का ! शेरशाह के खानदान के राज्य में तो नहीं होगा। शासन उदार है, बाद में क्या विश्वास ? कौन कैसा सुलतान तख्त पर आयेगा-कौन बतायेगा?

गोबर से लिपी हुई धरती पर केले के पत्ते पर भोजन आ गया। सभी हाथ-पैर-मुंह धोकर एक साथ बैठे। अपने इष्ट देवता का स्मरण हुआ, और तीनों भोजन करने लगे।

कुटिया में दीपक का मन्द-मन्द प्रकाश फैल रहा था। दोनों संत बार-बार हेमू को देख लेते थे। उसके मुखड़े पर संतोष के भाव को ढूंढ़ने की कोशिश कर लेते थे। लगता था कि वह संतुष्ट हो रहा है। भोजन हो गया। पूरनजी अपनी कुटिया में जाने के लिए सोचने लगे। हेमू कुछ पूछने के लिए कुलबुलाने लगा। रह नहीं सका, वह पूछ बैठा, 'संत राजा ! आप तो सिन्ध की तरफ से आये हैं। हुमायूं की क्या दशा है ? अब तो इधर नहीं आना चाहिए।'

हेमू ! तुम्हारा मन कहां-कहां दौड़ता रहता है ? सौभाग्य की बात है कि इस रात में वृन्दावन की पवित्र लीलाभूमि में हो। राधा वल्लभ जी की नित्य रासलीला इस वृन्दावन के उपवन में होती है। मन को ठहराओ, आनन्दचेतना में विभोर हो जाओगे।' पूरन जी ने समझाया।

परमानन्द जी भी कह उठे-'हां, बेटे ! रात तो राधावल्लभ जी की लीला के लिए है। हुमायूं और कामरान की कहानी फिर सुन लेंगे। गुरु गोस्वामी ने इस रासलीला का वर्णन किया है-

श्याम संग राधिका रासमंडल बनी।
बीच नंदलाल ब्रजबाल चंपक बरन,
ज्यों घन तडित बिच कनक मर्कत मनी।

यह सुनकर पूरनदास मगन होने लगे। हेमू को मौन रह जाना पड़ा। वह दोनों भक्तों की बेसुधी को देख अचरज में पड़ गया। यह तो गांव के पंडितजी के पूजा-पाठ से भिन्न प्रकार का भावलोक है। यह नाथपंथी योगी की योगसाधना से भी सर्वथा अलग है। यह तो भावना का लोक है। क्या वह पारो की चिता की लपटों को भूलकर राधा और राधावल्लभ के चरणों में मन को लगा दे ? क्या यह हो सकेगा?

सहसा वह बोल उठा-'श्रीराधावल्लभ जी के साथ श्री राधा जी की मूर्ति कहां है ?'

दोनों संत मुस्कराने लगे। एक क्षण के बाद पूरनदास के शब्द सुनायी पड़े—'हेमू ! श्रीराधावल्लभ जी के बायें भाग में श्री प्रिया जी की गद्दी है। स्वर्णपत्र पर उनका नाम अंकित है। क्योंकि श्री राधा जी का रूप वर्णन से परे है। मूर्ति में उनका सम्पूर्ण रूप नहीं आ सकता। और वे ही इस पंथ में प्रधान गुरु के स्थान पर प्रतिष्ठित हैं। इसीलिए गुरु की गद्दी है। उनके रूप की भावना हमारी निष्ठा है।'

'जी...गद्दी का रहस्य समझ में आ गया। यह इस सम्प्रदाय की विशेषता है।' हेमू ने विनम्रतापूर्वक कहा।

'धीरे-धीरे सब समझ जाओगे।' परमानंद जी ने बताया।

दोनों पिता-पुत्र परमानन्द दास से विदा लेकर अपनी कुटिया में आ गये। दीपक की लौ कम कर दी गयी। हल्की-हल्की पीली ज्योति में मन्दिर से कभी बांसुरी की ध्वनि आ जाती। कभी पेड़-पौधों के झुरमुट से झींगुरों की झंकार सुनायी पड़ जाती। पर ये दोनों पिता-पुत्र गाढ़ी नींद में सो गये थे। रात बीत रही थी।

एक पहर रात रहते ही पूरनदास उठ गये। प्रातः-स्मरण करने लगे। हेमू की नींद टूट गयो। पिताश्री के चरणों को स्पर्श किया। संत का हृदय भाव-विह्वल हो उठा। लगा कि वे पुत्र-स्नेह की आनन्द चेतना में मग्न हो गए। सहसा कुछ ध्यान में आया, नित्य-क्रिया से निवृत्त होने लगे। हेमू भी संकेत समझ गया, दोनों स्नान कर मन्दिर में पहुंच गये। भक्तगण मन्दिर का परिमार्जन कर रहे थे।

श्री जी (राधावल्लभ कृष्ण) को शयन से उठाया गया। मंगला भोग और मंगला आरती की व्यवस्था होने लगी। भक्तों का समूह मन्दिर में आ गया, कीर्तनकार मुखिया ने पदगायन आरम्भ किया। जागरण का पद सुनायी पड़ा -

प्रात समय दोऊ रसलम्पट सूरत जुद्ध जयजुत अतिफूल।
श्रमवारिज घनबिन्दु वदन पर भूषन अंगहि अंग विकूल।।

हेमू सोचने लगा कि जागरणपद में उत्कट शृंगार है। इस शृंगार में लौकिक प्रेम ही भक्ति के स्तर पर रख दिया गया है। परन्तु सभी तो उस स्तर पर पहुंच नहीं सकेंगे। जन सामान्य तो कामवासना में ऊभचूभ करने लगेगा। ठीक है कि यह विराग नहीं, अनुराग की स्थिति है, पर इस रसिकता को भक्ति के रूप में संभालना बहुत कठिन है। यह शृंगार-मूलक भक्तियोग ही है। भक्तियोग है 'नाथपंथ का योग, सांसारिक वासना से मुक्त विशुद्ध योग है। वह तो कठिन है ही। इसीलिए कुछ योगी अपने चमत्कार से जनसामान्य को चकित करते रहते हैं। भावनाप्रधान भक्ति में उत्कट शृंगार आ जाने पर लोग फिसल सकते हैं, पर उसकी समस्या यह नहीं है।

मंगला आरती आरम्भ हो गयी। दूसरा पद सुनायी पड़ने लगा।

नन्द के लाल हर्यो मन मोर
हौं अपने मोतिन लर पोवति कांकरि डारि गयो सखि भोर।

यह पद उसे अच्छा लगा। वह आरती के मन्द प्रकार में राधा वल्लभ जी की प्रतिमा देखने लगा। यहां तो मंगला आरती, शृंगार और भजन की बेसुधी है। वह बेसुध नहीं हो पा रहा है, वह तन्मय नहीं हो सका है। वह तो अपनी उलझनों में पड़ा हुआ है, कोई पास आ गया, प्रसाद दे रहा था, उसने प्रसाद ले लिया, माखन-मिश्री का रुचिकर प्रसाद था, उसने पिताश्री की ओर देखा, वे मुस्करा रहे थे, वह भी मुस्करा उठा। फिर उसने चारों ओर देखा मन्दिर के प्रांगण में भक्तों की भीड़ थी। कुछ लोग एक तरफ खड़े थे, नीचे ही एक तरफ सबसे अलग थे, प्रसाद उन्हें भी मिल रहा था। तो ये शूद्र हैं, मन्दिर में दर्शन के अधिकार मिल गए हैं, परन्तु अभी दूरी है। कबीरदास ने इस दूरी को समाप्त कर दिया है। परन्तु सभी उन्हें मान नहीं रहे हैं। धीरे-धीरे सबको मानना है। भक्त और भगवान की दूरी अनुचित है।

संत राजा परमानन्द जी दिखायी पड़ गये। वे पास आ गए, उसे स्मरण आ गया कि इनसे पश्चिम का समाचार जानना है। वह उनके साथ हो गया, उनके साथ उनकी कुटिया में गया, उसने अनुरोध किया कि हुमायूं के बारे में कुछ बताएं। संत परमानन्द पश्चिम की गाथा सुनाने लगे।

मुगल बादशाह हुमायूं विक्रम संवत् १५६७ में कन्नौज के युद्ध में पराजित हो गये। उन्हें भागना पड़ा, मैंने शक्ति भर सहायता की, लेकिन शेरशाह का भय था। वे आगे बढ़ गये, अमरकोट में अकबर का जन्म हुआ, परन्तु वहां ठहरना सम्भव नहीं था। वे काबुल चले गये, भाई कामरान ने सहायता के बदले बन्दी बनाना चाहा। उन्हें फारस भागना पड़ा, सुन्नी से शिया बन जाने पर फारस के बादशाह ने मदद की। काबुल पर उनका अधिकार हो गया, पर हुमायूं और कामरान की आपसी लड़ाई कन्धार में चलती रही। मैं सन्त पूरनदास के साथ भक्ति भावना में बेसुध होने लगा। उधर भाइयों में तख्त के लिए लड़ाई चलती रही। हुमायूं सबको हराकर आगे बढ़ गए हैं। पेशावर पर कब्जा हो चुका है, अब शेरशाह का भय नहीं है। लाहौर पर नजर है। दिल्ली-आगरा पर कब्जा करने के लिए वे कोशिश करेंगे। मझे हुमायूं और शेरशाह के बेटे सलीमशाह से मतलब नहीं है। अब तो श्रीराधावल्लभ जी ही मेरे सर्वस्व हैं।

हेमू सोचने लगा-विदेशी मुगल फिर इधर आयेंगे। फिर युद्ध होंगे, लाहौर से दिल्ली-आगरे तक आग की लपटें फैलेंगी। गांव-नगर धू-धू कर जलगै। आगरा पास है, देश की राजधानी है, इस्लामशाह याने सलीमशाह सूरी सिंहासन पर है। आगरा, यमुना जी के किनारे...आगरा....हिन्दुस्तान की राजधानी...एक बार उधर भी जाना चाहिए।

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