ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य हेमचन्द्र विक्रमादित्यशत्रुघ्न प्रसाद
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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!
पांच
हेम की दृष्टि अपने पिताश्री संत पूरनदास पर लगी हुई थी। पर संत तो ध्यानस्थ थे। मन्दिर के भीतर धूप-आरती हो रही थी। बाहर वीणा, मृदंग और बांसुरी पर पद-गायन हो रहा था-
आरती कीजै स्यामसुन्दर की, नन्द के नन्दन राधिका वर की
भक्ति करि दीप प्रेम करि बाती, साधु संगत करि अनुदिन राती।
हेमू की आंखों ने देखा कि अधिकांश की दृष्टि मन्दिर के भीतर लगी हुई है। वह भी राधावल्लभ कृष्ण की मूर्ति की ओर देखने लगा। आरती के बाद फल और मेवे का भोग लग रहा था। घंटी की ध्वनि आने लगी। दो क्षण के बाद पुजारी आचमन कराकर प्रार्थना करने लगा। उसके चारों तरफ खड़े भक्त भी हाथ जोड़कर प्रार्थना में सम्मिलित हो गए। वह क्या करे? सोच नहीं सका। उसके हाथ नहीं जड़े हुए थे। वह तो देख रहा था कि आवरण हट रहा है श्रीकृष्ण की सुन्दर मूर्ति दिखाई पड़ने लगी। बायें भाग में प्रिया राधा जी की मूर्ति नहीं थी। केवल गद्दी थी। उस पर एक स्वर्ण पत्र था, फूलों से श्रृंगारित।
हेमू को आश्चर्य हुआ। सेवाकुंज के मन्दिर में केवल श्रीकृष्ण की मूर्ति है। ऐसा क्यों ? यहां तो राधा जी की प्रधानता है। पर राधा की मूर्ति नहीं है। मूर्ति के बदले गद्दी और उस पर रखे स्वर्ण-पत्र का क्या अर्थ है ? राधा वल्लभ सम्प्रदाय की मान्यता क्या है ? पर अभी किससे पूछा जाए? वह तो इतने भक्तों के बीच खड़ा है। सबकी हथेलियां जुड़ी हुई हैं। कुछ ध्यान में हैं। कुछ गुनगुना रहे हैं। कुछ झूम रहे हैं। वह सबके बीच सबसे अलग खड़ा है। उसकी न हथेलियां जुड़ी हैं, न आंखें मुंदी हैं और न होंठ गुनगुना रहे हैं। ये लोग क्या समझते होंगे? उसे पीछे रहना चाहिए था। वह सबसे आगे आ गया। पर वह चपचाप खड़ा है। लोग तो उस पर हंस सकते हैं। कुछ बोल सकते हैं। उसने हाथ जोड़ दिये।
कीर्तनकार समाज का मुखिया वनविहार का पद गाने लगा। बांसुरी का स्वर बड़ा मधुर लगा।
वन की कुंजनि कुंजनि डोलनि।
निकसत निपट सांकरी वीथिनि परसत नाहि निचोलिनि।
हेमू ने अनुमान किया कि प्रायः सभी झूमने लगे हैं ! मानो सभी वनविहार की कल्पना कर रहे हैं। वनविहार करते श्रीकृष्ण को निहार रहे हैं। उसकी दृष्टि पिताश्री पर गई। वे बेसुध थे। यह बेसुधी अद्भुत है ! यही भक्ति का संसार है ! लगता है कि वनविहार में मुरली बज रही है। गोपसखा कृष्ण के साथ वन में विचरण कर रहे हैं। वह भी मारकाट, गांव का उजड़ना, चाचा जी की डांट-फटकार और भटकना भूल रहा था। यह कैसा लोक है ? भक्ति भी प्रेममूलक दूसरा पद सुनाई पड़ने लगा।
उत्थापन-सेवा पूरी हुई। सभी शीश नवाकर बैठ गए। पद का गायन चलता रहा। हेम् ने देख लिया कि पिताश्री का ध्यान टूट गया है। वह सहमता हुआ उनके पास पहुंचा। उनके चरणों में झुका। संत पूरनदास हेमू को देख नहीं सके थे। परन्तु चरणों में झुके हुए श्रद्धालु को स्नेह के साथ उठाकर हृदय से लगा लिया। अपने बेटे को पहचाना। हेमू की आंखों से आंसू बहने लगे थे। संत की आंखें भी भीग गयीं। वे अपने वात्सल्य को दबा नहीं सके। पुनः हृदय से लगाया। हेम को लगा कि उसने सब कुछ पा लिया। वह भूल गया कि वह गोस्वामी हितहरिवंश के सेवाकुंज में है। वह वात्सल्य के दिव्यलोक में पहुंच गया था।
संत राजा परमानन्द यह दृश्य देखकर चकित थे। आंखों में प्रश्न उभर आया। अनुमान से कुछ समझ भी रहे थे। 'संत राजा ! यह मेरा हेमचन्द्र-हेम है। गांव में ही अपन चाचा करणमल के साथ रहता रहा है। आपने ठट्ठा से लौटते समय कहा था कि रेवाड़ी होते चला जाय। हेमू से मिल लिया जाय।' संत पूरनदास ने सिंध के ठट्ठा राज्य के राजा सन्त परमानन्द को बताया।
'आपने रेवाड़ी का रास्ता ही बदल दिया था। आप रेवाड़ी नहीं गए। हेमू ही अपने पास आ गया। यह भी तो कृष्ण का रूप है।' संत परमानन्द ने हेमू को अपने पास बुलाया।
हेमू उनके चरणों में झुक गया। परमानन्द ने उसे उठाकर गले लगा लिया। दोनों भाव-विह्वल हो गए। दोनों सन्तों ने हेम को लेकर अपनी कटिया की ओर चलने का निश्चय किया। प्रसाद का वितरण हो रहा था। दोनों ने प्रसाद लिया। हेमू ने भी श्रद्धा के साथ प्रसाद को ग्रहण किया। और तीनों मन्दिर से बाहर निकले।
रास्ते में सन्त परमानन्द ने कहा- 'पूरन जी ! बेटे का ब्याह तो होते-होते रुक गया था। अब तो ब्याह हो जाना चाहिए।'
'शाहों-सुलतानों के युद्ध और आतंक के राज्य में ब्याह और व्यापार करके सम्मान से जी लेना बड़ा कठिन हो गया है। आप तो स्वयं देख रहे हैं।' हेमू ने उत्तर दिया।
हेमू बेटे ! ठीक कह रहे हो। मैं ठट्ठा राज्य का राजा रहा हूं। मुगल बादशाह हुमायूं का मनसबदार बनना पड़ा। हुमायूं और शेरशाह की लड़ाइयों में अपनी दुर्गति होती रही। ऊबकर संत पूरन जी के साथ वन्दावन आ गया।' परमानन्द ने अपनी कहानी सुना दी।
हेम् अपने को रोक नहीं सका। उसने पठानों और मुगलों की लड़ाइयों में गांव के उजड़ने, व्यापार नष्ट होने, बादशाह सलीमशाह के सरदार खवास खां के विद्रोह और पारो को आत्महत्या की दुःखभरी कहानी को रख दिया। उसके स्वर में रोष था। दोनों सन्तों ने रोष के भीतर छिपे तेज का अनुमान कर लिया। दोनों एक-दूसरे की ओर देखने लगे। दोनों को सुखद आश्चर्य हो रहा था।
हेमू सेवाकुंज के हरे-भरे पेड़ों और लताओं से होते हुए पिताश्री की कुटिया में आया।
संत परमानन्द ने कहा-'पूरन जी ! आज हेमू बेटे को विश्राम लेने दो। थका हुआ है। फिर दर्शन-पूजा और कथा-वार्ता...।'
'संध्या में गुरु गोस्वामी के दर्शन आवश्यक हैं। उन्हें मालूम हो जाना चाहिए कि गांव से हेमू आया है।'
'आप ठीक कह रहे हैं। संध्या में हम उनके दर्शन करेंगे।'
'दर्शन के बाद मन की शंका-जिज्ञासा रखी जा सकती है ?' यह हेमू के शब्द थे।
'क्यों नहीं ! गुरुश्री हितहरिवंश सबके लिए सहज हैं।' संत पूरन जी ने उत्तर दिया।
हेमू ! कुछ खा-पी लो और विश्राम करो और हां, रात को मेरे यहां प्रसाद पाना है। स्मरण रखना।' संत परमानन्द ने सस्नेह आग्रह किया।
'और आपसे भी बातचीत करूंगा।' हेमू ने मुस्कराकर कहा।
'जवान बेटा थोड़ा ढीठ हो जाता है। अच्छा लगता है। तुम तो जिज्ञासु हो। बातचीत अवश्य होगी।'
हेमू ने हाथ जोड़कर संत परमानन्द को विदा किया। वे अपनी कुटिया में गए। उसी समय संत नवलदास जी आए। हेमू पहचान गया। उसने झुककर चरण स्पर्श किया। आशीष मिली। तीनों साथ-साथ बैठे। कुशलक्षेम के बाद संत नवलदास ने हाथ-पैर धोने और प्रसादग्रहण के लिए हेमू से कहा। हेमू ने हाथ-पैर धोकर पिताजी के साथ प्रसाद-ग्रहण किया। फिर भोजन किया। दोनों सन्तों ने उसे विश्राम करने के लिए कहा। वह लेट गया। थका हुआ था। लेटते ही उसे नींद आ गई।
आकाश में बादल छा रहे थे। धीरे-धीरे हवा चल रही थी। लग रहा था कि हवा रुक जाएगी। गर्मी बढ़ जाएगी पर इस उपवन में ऊमस नहीं थी। ऊमस रहे या नहीं – थका हुआ हेमू नींद में बेसुध था। पूरन दास भी नवलदास के साथ बातचीत करते-करते सो गए।
दो घण्टे बीतने को आए। हेमू प्यास के कारण उठ बैठा। घड़े का शीतल जल पीने लगा। हल्की-सी ध्वनि हुई। दोनों संत उठ गए। वे भूल गए हैं कि वे बूढ़े हैं। वात्सल्य बुढ़ापे में नया जीवन ला देता है। वैसे भी वे अपनी भक्ति-भावना में बुढ़ापे पर विजय पा चुके थे। उन्हें स्मरण आ गया कि हेमू को लेकर गुरुश्री हितहरिवंश जी के पास जाना हैं। उनकी कटिया भी पास ही थी।
हाथ-मुंह धोकर सभी तैयार हो गए। तीनों गुरु गोस्वामी की कुटिया की ओर चले। हेमू वृन्दावन के हर पेड़-पौधे को देख रहा था। एकएक व्यक्ति के हावभाव को समझने का प्रयत्न कर रहा था। अपने गांव के लोगो से तुलना कर रहा था।
श्री हितहरिवंश जी की कुटिया आ गई। तीनों सहर्ष कुटिया के द्वार पर आए। श्री हितहरिवंश जी ओरछा से आए हरिराम व्यास से बातचीत कर रहे थे। तीनों ने झुककर नमन किया। आशीर्वाद के साथ बैठने का स्नेहपूर्ण आदेश मिला। संत पूरन जी ने हेम् का परिचय दिया। हेम ने पुनः हाथ जोड़कर प्रणाम किया। क्षणभर के बाद देखा कि राधा वल्लभ सम्प्रदाय के प्रधान हितहरिवंश के होंठों पर मन्द मुस्कान है। उसे अच्छा लगा। उनके शब्द सुनाई पड़े– 'संत पूरनदास जी ! आपका पूत्र तेजस्वी है। पर इसका मन चंचल है।'
'इसीलिए हेमू आपकी शरण आया है।' संत पूरन जी के स्वर में श्रद्धायुक्त विनम्रता थी।
'हेमचन्द्र ! हृदय में राधावल्लभ जी को स्थान दो और मन को एक लक्ष्य पर लगाओ।' ये हितहरिवंश जी के शब्द थे।
गांव की स्थिति ने मन को विकल बना दिया है, गरुदेव ! अब तो लगता है कि अपना गांव हो या समूचा देश-स्थिति लगभग एक ही है। जबकि अफगान शेरशाह का राज्य-प्रबंध अच्छा रहा है।' हेम् ने अपनी बात कह दी।
'शेरशाह और उसके बेटे सलीमशाह का प्रबन्ध अच्छा चल रहा है। तब तो यह स्थिति है ! तुम ठीक कह रहे हो। इससे मन घबराता है; भय खाता है और विकलता बढ़ जाती है। गांव-नगर सर्वत्र त्रास है। शासन कभी तुर्क-पठान का है, कभी मुगल का। ये अधिकतर निर्दयी और क्रूर हैं। कोई थोड़ा उदार हो जाता है। प्रजा को थोड़ी शान्ति मिलती है।'
'ऐसे में क्या किया जाय ? कोई रास्ता नहीं सूझता। रक्षा करने वाला कोई नहीं दीखता। राजागण लगभग हार कर बैठ गए हैं। अपने-अपने छोटे राज्य और गढ़ में सिमट गये हैं।' हेमू ने चिता प्रकट की।
'हां, बेटे ! सही कह रहे हो। परन्तु रास्ता तो खुल गया है। निराधार मन को अवलम्ब मिलने लगा है।'
'वह रास्ता कौन-सा है ?'
'भक्ति मार्ग है। अपने हृदय की भावना के अनुसार भगवद्-भक्ति ! अपने आराध्य पर मन का टिक जाना आवश्यक है। इससे मन का भय द्र होगा। अपने पर विश्वास बढ़ेगा। आज की स्थिति में अपने आराध्य के प्रति निष्ठावान बन निर्भीक होना बड़ी बात है। यही धर्म है।'
'तो क्या सभी वृन्दावन और गोकुल में आकर भजन-कीर्तन करें और गांव-घर को भूल जायें ?'
'नहीं, बेटे ! सभी राधावल्लभ के दर्शन से निष्ठावान बन जायें। निर्भीक बन जायें और अपनी गृहस्थी को संभालें। मैं भक्तों को वैरागी और संन्यासी नहीं बनाता। तुमको भी नहीं बनना है। केवल भय से मुक्त हो जाओ, मन को अपने आराध्य पर केन्द्रित करो और उत्साहउमंग से जिओ।'
'जी यह चिंतन तो कल्याणकारी है।'
'अभी हम संध्या आरती में चलेंगे।'
सभी संध्या-आरती में चलने के लिए तत्पर हो गये। आगे-आगे गुरु हितहरिवंश जी थे। साथ में उनके पुत्र वनचन्द्र जी भी थे। सभी पीछे-पीछे चल पड़े। अंधेरा हो गया था, दीपक जलने लगे थे। सेवाकुंज का अंधेरा छंटने लगा था, आकाश से बूंदाबांदी भी होने लगी थी। वाद्य संगीत की मधुर ध्वनि से सम्पूर्ण वातावरण रागमय हो उठा ! आरती का पद गूंजने लगा-
आरती व्रज-जुवति जूथ मनभावै, श्यामलीला हरिवंशहित गावै।
सखि चहुं ओर चंवर कर लीय, अनुरागन सौं भीनै हीय।
सनमुख बीन मृदंग बजावै, सहचरि नाना राग सुनावै।
सबके हाथ जुड़ गये। हेमू को छोड़कर सभी की आंखें मुंद गयीं।
हेमू तो देख रहा था कि मन्दिर के भीतर सिंहासन पर राधावल्लभ कृष्ण हैं और राधा नहीं हैं। ये सभी अपने आराध्य के प्रति एकनिष्ठ हैं। यह विश्वास, विश्वास की टूटन में अद्भुत है। तुर्क शासन में मन के विश्वास को तोड़ने का प्रयास चलता रहा है। मन को भयभीत किया जाता रहा है। तुर्क-मुगल शासन का यही मतलब है। परन्तु रामानन्द, कबीर, नानकदेव और हितहरिवंशजी मन में अपूर्व विश्वास जगा रहे हैं; एक नया भाव जगा रहे हैं। यह विराग नहीं है, पर लगता है कि विराग है। अनुराग आराध्य के प्रति और विराग सांसारिक जीवन के प्रति...यह शंका तो है। सांसारिक जीवन में पीड़ा है -अत्याचार और अन्याय की पीड़ा है। शायद इसीलिए सांसारिक जीवन के प्रति उदासीनता है, इसे समझना पड़ेगा। इस उदासीनता से घर-द्वार गांव कैसे बचेगा?
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