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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


चार



हेमू कुछ सोचता हुआ वृन्दावन की ओर मुड़ गया। उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। उसने नगर-प्रवेश के लिए हकमत को खिराज दिया। उसे देना पड़ा। और उसे विध्वंस देखना पड़ा। मानो सिकन्दर लोदी के जुल्म को देखने के लिए खिराज दिया है। ये श्रद्धालु आंसुओं और उसांसों को छिपाकर विध्वंस के आगे मत्था टेक देते हैं। नहीं, विश्वास के आगे शीश झुका देते हैं। केवल विश्वास वचा है। साहस नही-शूरता नहीं।

राणा सांगा ने पूरे विश्वास के साथ साहस किया था। विदेशी मुगलों की फौज घबरा गयी थी। बाबर ने शराब के प्याले तोड़कर सबमें हिम्मत बंधा दी थी। वह विजयी हो गया। विदेशी मुगलों के अत्याचार से सारा पंजाब थर्रा उठा था। सन्त नानक देव को बड़ी पीड़ा हुई थी।

अफगान शेरशाह ने विदेशी मुगलों को मार भगाया है। हुमायूं भटक रहा है। शेरशाह ने अच्छे ढंग से शासन प्रबन्ध किया है। प्रजा को थोड़ा सन्तोष हुआ है। पर मुस्लिम और गैर-मुस्लिम का फर्क बन रहा है। जिमनी जजिया देते को मजबूर हैं। शासन तो कठोर होता ही है। यदि राजा विधर्मी विदेशी हो, विजेता हो तो कठोरता बढ़ जाती है। कठोरता क्रूरता में बदल जाती है। इस क्रूरता और कट्टरता के बीच थोड़ी सी उदारता तिनके का सहारा बन जाती है। शेरशाह की थोड़ी-सी उदारता के कारण बरसों से दुःखी प्रजा शाह का नाम लेने लगी है। लेकिन यह खिराज..विध्वंस के स्मारक...उधर भक्तों का नया विश्वास...

नगर से बाहर होते ही वन-प्रान्तर दिखायी पड़ा। उसे अच्छा लगा। विध्वंस की नगरी से वन-प्रान्तर बुरा नहीं, बहुत अच्छा है। इस वन में विध्वंस की नहीं, श्रीकृष्ण की अनुभूति हो सकती है। एक बार मथुरा के राजा कंस ने श्रीकृष्ण के जन्मदाता को भी कैद कर लिया था। तभी तो कारागार में उनका जन्म हुआ। और फिर उन्हें यमुना पार गोकुल में जाना पड़ा। युगों के बाद लोदी खानदान के सुलतान सिकन्दर शाह ने केशव देव के मन्दिर को तोड़ दिया। श्रीकृष्ण के प्रति विश्वास को तोड़ देने की कोशिश की। तीस-चालीस वर्ष हो गए। कृष्ण को फिर से वृन्दावन-गोकुल में भटकना पड़ रहा है। पर लोगों का विश्वास टूट नहीं सकता है।

उसका बहुत कुछ टूट गया है। वह भटकता हुआ इधर आ गया है। उसके मन को शांति नहीं है। वह टूटे हुए को कैसे जोड़ ले। नया विश्वास कैसे पा ले। योगी शिवनाथ नया विश्वास जगा रहे हैं। पर रोटी का सवाल उठकर खड़ा हो गया। नया विश्वास सुगबुगा कर रह गया। वह अकेला है। इस जंगल में अकेला भटक रहा है। आगे तीर्थयात्रियों का झुंड दिखायी पड़ा। पीछे से भी एक दल निकट आ गया।

किसी के शब्द सुनायी पड़े-'जानते हो, भैया ! मथुरा जी के मन्दिर को तोड़ने वाला हिन्दू मां का बेटा था।'

दूसरे ने अचरज के साथ पूछा-'सिकन्दर लोदी हिन्दू मां का बेटा था ?'

'हां, भाई ! यह सच है।'
'तो फिर उसने ऐसा क्यों किया ?'
'उसे मजहबी कट्टरता का संस्कार मिला था। उसने सुल्तान बनने के लिए भी कट्टरता का परिचय दिया।'
'यह तो कुसंस्कार है।'
'तुम्हारे लिए...।
हेमू सोचने लगा कि हिन्दू रक्त और मुस्लिम संस्कार मिलकर एक अच्छाई की रचना नहीं कर सके। प्रजा की भावना को आदर नहीं दे सके। इस देश के खून से पैदा सिकन्दर यहां की मिट्टी के आगे झुक नहीं सका।

उसे बादशाह बनना था। बादशाह बनने के लिए अपने अमीरों और सरदारों को खुश करना था। कट्टर-क्रूर बनकर सबको खुश कर सका। शहंशाह बन सका। उदार और भला नहीं। अपनी कट्टरता से एक तरफ हिन्दू प्रजा को डराया और दूसरी तरफ सरदारों को एतबार दिला दिया कि वह सच्चा मुसलमान बादशाह है। उसकी बादशाहत चलती रही। यह कैसी प्रकृति है ? कैसा संस्कार है ? यह कैसी बादशाहत है ?

कहा जाता है कि कबीर में भी हिन्दू-रक्त था। मुस्लिम परिवार के संस्कार भी थे। पर वे तो सबको प्यार दे रहे थे। वे सच्चे साधुफकीर के जीवन को जीते रहे। उनकी चादर में कोई दाग नहीं लग सका था। यह कैसे हो गया ? इतना फर्क कैसे आया ? वह जुलाहा परिवार विदेशी मुसलमान नहीं था। हिन्दी मुसलमान था। कुछ ही दिन पहले मुसलमान बना था। उसमें इस मिट्टी की सोंधी गंध थी। गुरु रामानन्द के शिष्य बन गये थे। वे सब में एक ही साईं के दर्शन कर चुके थे। उनके लिए सभी बराबर थे। यही तो मानवता है और सही धर्म है।

पीछे से ध्वनि आयी-'एक ही समय में एक ही धरती पर हिन्दू रक्त से ही सिकन्दर लोदी और कबीर दोनों ही जन्मे। पर एक लाशों के तख्त पर बैठा, दूसरा आदर के आसन पर विराजमान हुआ।'

दूसरी आवाज आयी-'मतलब यह हुआ कि एक ने तुरुक बादशाह बनकर सबमें फरक माना, दूसरे ने बुनकर बनकर सबके हृदय को एक बुनने की कोशिश की।'

तीसरा बोल रहा था-'पर कबीरदास निगुनिया थे। भगवान की लीला और मूर्ति में विश्वास नहीं करते थे।'

चौथा बोल रहा था-'परन्तु वे मन्दिर-मूर्ति को तोड़ नहीं रहे थे। वे भेदभाव और पाखंड को तोड़ रहे थे।'

हेमू तीर्थयात्रियों की बातचीत सुनकर विचार करने लगा कि जैसे बुनकर धागों को जोड़ता है, उसी तरह कबीरदास ने सबको जोड़ने का प्रयत्न किया है। जात-पात और ऊंच-नीच-भावना की निन्दा की है। समता की भावना को जगाया है। तभी तो सबको भक्ति-भजन करने का अधिकार मिला है। सचमुच वे महान् थे।

वृन्दावन में देखना है कि श्रीकृष्ण की भक्ति में सबको भजन-पूजन का अधिकार मिला है या नहीं !

तीर्थयात्री जय घोष करने लगे। वृन्दावन आ गया। हेमू अपने पिताश्री के दर्शन की आशा में तेजी से चलने लगा। मन में नया उत्साह जग गया। पीछे से आने वाला यात्रीदल साथ आ गया। हेमू को लगा कि वह अकेला नहीं रह गया। पर वह साथ कैसे चले ? वह किसी को जानता नहीं। पर उसे तो वृन्दावन में अपने पिता जी को ढूंढ़ना है। राधावल्लभ सम्प्रदाय के मन्दिर को पहचानना है। इसलिए इनके साथ हो जाना चाहिए।

यह सोचकर वह साथ-साथ चलने लगा। एक ने बड़े स्नेह से पूछा-'अकेले हो, क्यों?'

'हां, अकेला ही हूं।' हेमू ने उत्तर दिया।
'क्यों, घर से रूठ कर आए हो?'
'जी, नहीं; वृन्दावन में पिताजी से मिलने आया हूं।'

'क्या वे भक्ति-भजन में परिवार को भूल गए हैं ?'
'वे राधावल्लभ सम्प्रदाय में बहुत दिनों से हैं।'
हम भी राधावल्लभ सम्प्रदाय को ही मानते हैं। हम सेवाकुंज चल रहे हैं।'
'मैं भी साथ ही चलूंगा।'
'जरूर चलो। कहां से आ रहे हो ?'
'रेवाड़ी के पास से।'
'संत पूरनदास और नवलदास रेवाड़ी के ही हैं।'
'संत पूरनदास मेरे पिताजी हैं।'
'अरे, संत के पुत्र होकर भटक रहे हो ! भटकना तो हमें है। हम तो तुम्हारे साथ चलेंगे।'
हेमू के अंतर में आत्मविश्वास अंकुरित हुआ। उसने विनम्रता के साथ कहा-'आप लोग संकल्प के साथ तीर्थ करने आए हैं। मैं तो अकेला भटकता हुआ आया हूं। कुछ विचार करने आया हूं। मैं तो आप लोगों के साथ चलकर पिताजी के पास पहुंच सकूँगा।'
'संत का पुत्र भटकता है-यह विश्वास नहीं होता।'
"भगवान कृष्ण को भी मथुरा छोड़कर गोकुल में भटकना पड़ा था। आज भी वे मथुरा से भगा दिए गए हैं। वे वृन्दावन-गोकुल में ही बांसुरी बजा रहे हैं। मैं तो साधारण जन हूं।'
'यह तो भगवान की लीला है।'
'नहीं, यह तो शाहों-सुलतानों की हुकूमत का तौर-तरीका है।'
'यह तो तुम ठीक कह रहे हो। पर हम क्या कर सकते हैं ? हम तो इस संसार को भगवान की लीला समझकर जीने का अवलम्ब पा लेते हैं।'
हेमू ने सिर हिलाया। देववन से आया हुआ दल सेवाकुंज के पास पहुंच गया। वृन्दावन के बीच में पेड़-पौधों तथा लता-गुल्म से घिरे क्षेत्र में श्री राधावल्लभ जी का मन्दिर दिखाई पड़ा। दिन का तीसरा पहर था। उत्थापन-सेवा का समय हो गया था। वीणा और मृदंग की मधुर ध्वनियां सुनाई पड़ने लगीं। तीर्थयात्री हर्षित हो उठे। उन्हें लगा कि वे सौभाग्यशाली हैं। वे लोग उत्थापन-सेवा के समय आ गए हैं। दोपहर के राजभोग के बाद राधा वल्लभ श्रीकृष्ण के विश्राम का समय होता है। विश्राम का समय बीत गया है। अब वे विश्राम से उठ रहे हैं। धूप, आरती और अल्पाहार के बाद वे वनविहार को जायेगे।

हेमू के हृदय की धड़कन बढ़ गई। वह बरसों बाद पिताश्री के दर्शन करेगा। वे किस रूप में होंगे ? क्या वह पहचान सकेगा? क्या वे निकट पाकर प्यार दे सकेंगे? वे तो राधावल्लभ जी की भक्तिसेवा में लीन होंगे। राधावल्लभ कृष्ण और राधा...राधा जी की प्रधानता... मंदिर का रूप अद्भुत होगा !

वीणा और मृदंग का संगीत मन को खोंच रहा था। वह बढ़ता जा रहा था। भीड़ बढ़ रही थी। वह सबसे आगे निकल जाना चाह रहा था। परन्तु लोगों को धक्के देकर आगे निकल जाना ठीक नहीं लगा। सभी श्रद्धालु भक्त हैं। दूर-दूर से आए हैं। वह धीरे-धीरे खिसकने लगा। वह पिताजी के पास शीघ्र पहुंच जाना चाहता था। वे आगे होंगे। आगे पहुंचना है। देववन का तीर्थयात्री दल हेमू को आगे बढ़ता देख रहा था। उन्हें हेमू का भाव समझ में आ गया था। बुरा नहीं लगा। कुछ लोगों को बुरा लग रहा था पर हेमू आगे बढ़ रहा था। वह मन्दिर के ओसारे में पहुंच गया पर ठिठक गया। उसने देखा। पहचान लिया। पिताश्री एक कोने में खड़े-खड़े ध्यानस्थ हैं। साथ में एक और वृद्ध हैं। संत नवलदास नहीं हैं. कौन है ? इनकी आंखें बन्द हैं। पर होंठ फड़क रहे हैं।

हेमू का हृदय धड़क उठा। चाहा कि पिता के चरणों पर झुक जाए। पर वे तो ध्यान में हैं। वीणा के स्वर पर उनके होंठ फड़क रहे हैं। यही भक्तिलोक है ! वृन्दावन का सेवाकुंज है !! पिताजी अपने कृष्ण के पास हैं। और वह उनके पास आकर ठिठका हुआ है।

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