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ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य

हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


तीन



संध्या हो गयी। मथुरा नगर की चारदीवारी के बाहर सबको ठहरना था। धर्मशाला थी। इसलिए तीर्थयात्री चिन्ता में नहीं पड़े। वे अपने-अपने समूह के साथ धर्मशाला में प्रवेश करते गये। सबको स्थान मिलता गया। हेमू सबके बाद प्रबन्धक से मिला। उसे भी स्थान मिला। वह अकेला था। पर चारों ओर तीर्थयात्रियों की भीड थी।

हेमू ने सोचा-वह सबके साथ हो जाय या सबसे अलग रहे ! कोई अलग तो नहीं रह सकता है। अपने गांव में भी वह अकेला नहीं था। यह ठीक है कि पारो की मृत्यु, मन की पीड़ा, शाहों-सुलतानों के प्रति असन्तोष और उजड़े हए गांव में रोटी की समस्या के कारण वह बेचैन रहा है। अकेलेपन में इस बेचैनी को तीव्रता से अनुभव किया जाता है। उसने किया है। भटकन की पीड़ा का अनुभव सबसे अलग रह कर ही होता है। पर यह अकेलापन तो बहुत बड़ा दंड है। जीने के लिए किसी स्थान, किसी व्यक्ति या किसी भावना से जुड़ना पड़ता है। किसी विचार-चिन्तन का आधार लेकर जीना पड़ता है। एक धुरी से लगकर जीवन के लम्बे पथ पर चलना होता है। अकेलापन स्मथ नहीं देता। साथ देने वाला कोई तो हो। उससे जुड़ी कोई भावना हो। वह तो भटक रहा है। और इन तीर्थयात्रियों की भटकन का अन्त हो चुका है। ये भटक नहीं रहे हैं। ये एक विश्वास के साथ उमग-उछाह, के पैरों से चल रहे हैं। अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए चल रहे हैं।

हेमू को तीर्थयात्री अच्छे लगने लगे। उसने देखा कि वे सभी एकदूसरे को सहयोग देते हुए विश्राम कर रहे हैं। दीपक के मन्द-मन्द प्रकाश में एक-दूसरे से पूछताछ कर भोजन करने लगे हैं। उस कोने में लेटी बुढ़िया के थके पांवों को अधेड़ स्त्रियां सहला रही हैं। वह बूढ़ी सबको आशीष दे रही है।

'भाई ! यह परसाद है। इसे ले लो।' कोई हेमू को दोना भर कर दे रहा था।
हेमू अचकचा गया। वह उसे देखने लगा। कुछ बोल नहीं सका।
'हम सबके साथ आये हो। धर्मशाला में रात बितायेंगे। हम सभी भगवान का परसाद लेंगे।' उस व्यक्ति ने स्नेह के साथ समझाया।
हेमू ने देखा कि दोने में रोटी और शक्कर है। पूरा भोजन नहीं है। वह बोल उठा-‘पर मेरे पास रखने के लिए।'
'होगा ! जरूर होगा ! पर यह तो परसाद है। हम परसाद को आपस में बांट कर खाते हैं। तुम अकेले हो। हम तुम्हें अकेले कैसे रहने देंगे ?' उस तीर्थयात्री ने उसके हृदय को छू दिया।
'अब मै अकेला नहीं हूं। आप सबके साथ हूं।' हेमू ने तीर्थयात्री की भावना का आदर करते हुए दोने को थाम लिया।
तीर्थयात्री की आंखों में सन्तोष झलक उठा। होंठों पर मुस्कान छा गयी। वह भी मुस्करा उठा। तीर्थयात्री ने परसाद-ग्रहण करने का संकेत किया। वह संकोच छोड़कर प्रसाद को ग्रहण करने लगा। वह भोजन करने लगा। तीर्थयात्री अपने समूह के पास जा चुका था। वह अकेला भोजन कर रहा था। परन्तु उसने अनुभव किया कि वह अकेला नहीं है। किसी की भावना और धारणा से जुड़ गया है। वह भले ही जुड़ नहीं सका है, परन्तु इन लोगों ने अपने से जोड़ लिया है। यह जुड़ना अच्छा लग रहा है।
शाहों-सुलतानों के लगातार युद्ध, शिव का ताण्डव, गांवों का उजड़ना, स्त्रियों पर अत्याचार, जजिया कर और कुछ लोगों का नया पंथ अपना लेना-इन सबके बाद भी लोग एक विश्वास को अपना कर जीना चाहते हैं। गुरु रामानन्द, गुरु नानक, गरु गोस्वामी वल्लभ और हितहरिवंश-ये इन्हें नया विश्वास दे रहे हैं क्या ? दिन-रात कांपते जीवन को सम्बल दे रहे हैं ? यह भी समझना पड़ेगा। पिता जी भी गुरु हितहरिवंश के शिष्य हैं। वह भी उधर ही जा रहा है। वह निकट मे देखेगा। समझने का यत्न करेगा।

भजन-कीर्तन के शब्द मधुर स्वर में फैलने लगे। लगा कि ईंट-ईंट से ये शब्द टकरा कर चारों तरफ फैल जाते हैं। सजीव मानव कंठ से निकले शब्द निर्जीव ईटों से मिलकर एक प्रतिध्वनि उत्पन्न कर देते हैं। करतल-ध्वनि भी चल रही है। वह केवल सुन रहा है। वह उनके -साथ मिल नहीं सका है।

हेमू सुनता रहा। उसे लगा कि वह सब कुछ भूल रहा है। शब्दों का संसार उसके चारों ओर छा गया है। शब्द धीरे-धीरे आकार धारण कर रहे हैं। उसकी कल्पना में शब्द कृष्ण और राधा के रूप धारण कर लेते हैं। उसने भी पलकों को बन्द कर राधा और कृष्ण के रूप की कल्पना की। रूप झलकने लगे। धीरे-धीरे राधा का रूप पारो में बदलने लगा। पारो राधा बन जाती। राधा पारो बन जाती।

किसी के बोल सुनाई पड़े—'श्रीकृष्ण को पाने के लिए श्रीराधा की आराधना आवश्यक है।'

कोई कह रहा था-'श्रीकृष्ण को मां यशोदा अपनी गोद में सूलाती है। लोरी सुनाती है। श्रीकृष्ण पलकें बन्द कर लेते हैं। फिर दो क्षण के बाद वे अपने बाके नयनों से मां को देख लेते हैं। यह सुख तो वात्सल्य भाव में ही पाया जा सकता है।'

हेमू का मन चंचल हो उठा। वह क्या करे...पारो की राख....पीड़ा...भटकना और इन तीर्थयात्रियों का यह सुख ! वह उस पीड़ा में विकल है। अब सुख कहां ! इन लोगों का इस सुख में बेसुध हो जाना विचित्र है !!

पलके भारी हो रही हैं। ये लोग कब सोयेंगे? उसने सोने की चेष्टा की। उसे नींद आ गयी। धीरे-धीरे सभी सो गए। रात में वर्षा होने लगी। रात का सन्नाटा टूट गया। पर किसी की नींद नहीं टूटी। सभी गाढ़ी नींद में थे।

भोर होते-होते सबकी नींद खुल चुकी थी। सभी शौच-स्नान से निपटकर मथुरा नगरी में प्रवेश करने की तैयारी करने लगे। सबको स्वच्छ-पवित्र होकर तीर्थ में पहुंचना है। यमुनाजी में स्नान करना है। सबमें अपूर्व उत्साह दीख पड़ा। हे पु उनके उत्साह को देख चकित था।

सभी 'जय-जय श्रीकृष्ण' का घोष करते चल पड़े। किसी ने शंख बजा दिया। किसी की बांसुरी बजने लगी। स्त्रियां पुरुषों के सुरक्षित घेरे में थीं। हेम भी सबके पीछे-पीछे चला।

नगर-द्वार पर शाही सिपाहियों के साथ तीर्थयात्रा कर वसूल करने वाला 'मुकद्दम' मौजूद था। अपने दफ्तर में 'मुहतसिब' भी था जो जजिया और तीर्थ कर की देखरेख करता था।

सभी तीर्थयात्री बारी-बारी से पांच-पांच 'दाम' 'कर' के रूप में देने लगे। अभ्यस्त या दबा हुआ मन क्षुब्ध नहीं हुआ। कुछ में असन्तोष उभर कर दब जाता था। हुकमत का रोब जो था। सबको खिराजवसूली की पर्ची मिलने लगी। सभी पर्ची लेकर खुशी-खुशी मथुरा जी की धरती पर सिर टेक कर आगे बढ़ने लगे।

हेमू अनमने भाव से खिराज-वसूली देख रहा था। लोगों की विवशता का अनुमान कर रहा था। हुकूमत के रोब का अनुभव कर रहा था। उसका अन्तर क्षुब्ध हो उठा। पर वह कुछ कर नहीं सकता था। न ही कुछ कह सकता था। उसने कहा-'मैं तीर्थ करने नहीं आया हूं। मैं अपने बूढ़े पिता से मिलने आया हूं। मुझसे खिराज नहीं लिया जाय।'

‘जरूर मुलाकात करने जाओ, बरखुरदार ! खिराज तो तुमको देना ही पड़ेगा।' मुकद्दम ने कड़क आवाज में जवाब दिया।

लेकिन यह खिराज तो तीर्थयात्री के लिए है। मैं तो तीर्थयात्री नहीं हूं। मुझसे खिराज नहीं लिया जाय।' हेमू ने तर्क दिया।

'तुम तो जियारत करने वालों के साथ हो। और कहते हो खिराज नहीं दूंगा। खिराज दो या लौट जाओ।'

'पिताजी से मिलने आया हूं। लौटकर वापस जाने नहीं आया हूं। तीर्थ करने नहीं आया हूं। आप को ख्याल करना है।'
'रोजगार करने आये हो ?'
'जी, नहीं !'
'तब बहस क्यों कर रहे हो ? शहंशाह शेरशाह और सलीम शाह सूरी की सल्तनत में काफिरों को तकलीफ नहीं है। इसे तुम्हें ख्याल रखना है। यह जुल्मी मुगलों की हुकूमत नहीं है। इन्तजाम के लिए खि राज देना है। देना ही है।'
'आप ठीक कह रहे हैं। मैं मानता हूं। लेकिन...'
'लेकिन-लेकिन क्या लगा रखा है। जाओ, मुहतसिब से कानून को बारीकी पर बात कर लो। मेरे पास वक्त नहीं है।'
हेमू मुहत सिब के पास गया। अपनी बात रखी। वह भी उसकी बात को सुनने-समझने को तैयार नहीं हुआ। वह आंखें लाल कर सिपाही को बुलाने लगा। हेमू ने अपनी विवशता को सह लिया। पर भीतर-ही-भीतर उबलता रहा। वह फिर से मुकद्दम के पास आ गया। मुकद्दम मुस्करा रहा था। उसने क्षोभ के साथ खिराज का भुगतान कर दिया। पर्ची मिल गयी। वह पर्ची को देखता रहा। उसे लगा कि पीले कागज के टुकड़े पर बड़े काले अक्षर उसे चिढ़ा रहे हैं। उसे जंजीर में बांधकर ढकेल रहे हैं। वह जंजीर में बंधकर जाने लगा।
तीर्थयात्रियों का झंड उसके लिए रुक-रुक कर चल रहा था। उसे देखकर सभी प्रसन्न हए। वह उन्हें देखकर धीरे-धीरे तनाव से मुक्त होने लगा।
श्रीकृष्ण जन्मभूमि का मन्दिर आ गया। सभी हर्ष में विभोर हो गये। पर यह क्या-श्री केशव देव के मन्दिर के स्थान पर तो और कुछ है। मन्दिर की दीवार है। टूटा हुआ शिखर है। पर भीतर तो ईदगाह है। चारों ओर शाही सिपाही हैं।

हेमू ने अपने साथ के तीर्थयात्रियों को देखा। सबके शीश झुके हुए हैं। कोई कह रहा है-'सिकन्दर लोदी ने मन्दिर को तोड़ दिया था। उस स्थान पर ईदगाह बनवा दिया।'

'तब इधर आने की क्या जरूरत है।' हेमू बोल उठा।

'हम कैसे भूल जायें-भगवान की जन्मभूमि को, मन्दिर को-यह तो हमारे विश्वास की बात है। यह हमारे भाव की भूमि है।'

'भाव की भूमि है ! ठीक कहते हो। टूटा हुआ शिखर विश्वास का आधार हो सकता है। भाव का आधार हो सकता है।' हेम् की आंखों में निर्जीव पारो की देह झलमला आयी।

'भाव को कैसे मिटाया जा सकता है ? विश्वास को कैसे तोड़ा जा सकता है ?'

'विश्वास को सम्भाल कर रखना। बड़ी बात है।' यह कहकर हेमू ने भी शीश झुका दिया।

वह खड़ा रहा। सब की परिक्रमा देखता रहा। विश्वास की लीला देखता रहा। भावना का अनुभव करता रहा। वह तीर्थयात्रियों को प्रणाम कर आगे बढ़ गया। उसे पिताजी के पास पहुंचना है। इस विश्वास को समझना है। विश्वास या अन्धविश्वास या जीने का आधार-इसे समझना है। और रोटी की समस्या तो गरदन पर सवार है। पिताजी ही रास्ता दिखायेंगे।

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