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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


पैंतीस



गजेन्द्र को स्मरण आया कि उसकी बांसुरी उसके पास नहीं है। वह टट्टओं को देखने लगा जिन पर सामान लदा था। बांसुरी दिखायी नहीं पड़ी। उसकी दृष्टि चन्दा पर गयी। वह मुस्करा रही थी, बांसुरी उसी के पास थी। वह बांसुरी को लेकर चल रही थी, चन्दा कितना ध्यान रखती है ! पर बांसुरी बजाना सीख नहीं सकी है। थोड़ा सीख
सकी है, इसी बांसुरी ने उसे निकट ला दिया है। बाजीगर का खेल देख रहा था, अन्त में चन्दा आयी थी। चूंघट में नाच रही थी, वह चूंघट में छिपे उसके भोले-भाले मुखड़े को देख रहा था। उसे अचरज हुआ था, बाजीगर के खेल-तमाशे में ऐसी लड़की कहां से आ गयी। बाजीगर की बेटी तो नहीं लगती। कोई खेल भी दिखा नहीं पाती। नाचना भी अच्छी तरह नहीं जानती। पर उसका भोलापन अच्छा लगा, वह प्रतिदिन खेल-तमाशे देखने पहुंच जाता। पहले पहुंच जाता, आसपास बैठकर बांसुरी बजाता रहता। खेल आरम्भ होने पर आसन जमा देता। ऐसा एक सप्ताह तक चलता रहा, खेमा उखड़ गया। ये लोग आगे बढ़ गए, वह भी पहुंच गया। वहां उसकी बांसुरी बजती रही।

चन्दा ने बांसुरी के स्वर को पहचान लिया था, उसने खुदादीन को कहा था। खुदादीन ने उसे बुलाया था। उसे बांसुरी बजाने को कहा गया। उसका अन्तर खिल उठा था, वह पलकें बन्द कर बजाता रहा ! सभी 'वाह-वाह कर उठे थे। उसकी पलकें खुली थीं। उसने देखा कि चन्दा उसे देख रही है। उसके होंठ थरथरा रहे हैं। वह कुछ बोलना चाहती है, पर बोल नहीं पा रही है। वह बुन्देली लोकगीत की धुन बजा रहा था, लगा कि कड़ी टूट जाएगी। पर उसने कड़ी को टूटने नहीं दिया। चरम बिन्दु तक पूरा किया, सबका मन झंकृत हो उठा। चन्दा कहीं खो गयी थी। यही बेसुधी कला की सफलता है। हर कलाकार चाहता है कि जैसे वह बेसुध हो जाता है, वैसे ही सभी बेसुध हो जायें। धरती और आकाश को भूल जायें, काल की गति को भूल जायें। उसने कला द्वारा चन्दा को बेसुध कर दिया है, अपनी ओर आकृष्ट किया है। उसका अन्तर प्रफुल्लित हो उठा।

उसे याद है कि खुदादीन ने उससे नाम-धाम पूछा था। वह छिपा नहीं सका था, उसने सब कुछ बता दिया था। पर वह कुछ पूछ नहीं सका था। चाहता था कि वह चन्दा के बारे में पूछे लेकिन पूछना ठीक नहीं था। खुदादीन की बीवी ने पूछा था—'क्या वह उनके साथ रहना चाहता है ?

उसने उत्तर दिया था—'उसकी इच्छा तो है।'

'तुम्हारे घरवाले ढूढेंगे, पकड़े जाने पर हम लोगों की भी मारडांट हो सकती है।'

'बाजीगरी किसलिए है ? छिप जाऊंगा। कोई पहचान नहीं सकेगा।'

'लेकिन तुम क्यों भटक रहे हो ? हमारे पीछे क्यों आ रहे हो ? हम लोग तो नट-बाजीगर हैं। तुम तो क्षत्री राजपूत हो।'

'मैं बाजीगरी सीखना चाहता हूँ। मैं बांसुरी सिखा दूंगा, साथ रहने दो। तुम लोगों की रखवाली भी हो जाएगी।'

खुदादीन ने आपस में बातचीत की, हो सकता है कि चन्दा से भी पूछताछ हुई हो। उसके साथ रहने का फैसला हो गया। उसकी प्रसन्नता की सीमा न रही। वह चन्दा के निकट रह सकेगा। उसे समझने का अवसर मिलेगा। उसने अपनी बांसुरी को हृदय से लगा लिया, अपने गांव में भी लोग बांसुरी सुनने को घेरे रहते थे। कुछ लोग जलते भी थे।

वह बाजीगर दल के साथ-साथ चला, चन्दा कभी भोर और रात में बांसुरी बजाने को कह देती है। वह अपना हृदय उड़ेल देता, और वह निकट आता गया। खुदादीन ने बुरा नहीं माना। ऐसा लगा कि वह अच्छा महसूस कर रहा है। धीरे-धीरे पता चल गया कि चन्दा उसकी बेटी नहीं है, इन लोगों ने इसे गुण्डों से बचाया था। वह फिर अपने घर लौट नहीं सकी। शायद कोई खोजने वाला भी नहीं था। घर छोड़ी लड़की को कौन स्वीकार करे। इसीलिए खुदादीन उसे बेटी के समान रख रहा था। यह भी बड़ी बात थी। उसे एक कलाकार समझकर रख लिया, पर अभी उसकी परीक्षा ली जा रही है। वह टिकता है या भागता है !

चन्दा अपने बारे में पूरा पता नहीं बताती है। वह मुस्कराकर टाल देती है। कभी-कभी वह उदास होकर आकाश की ओर देखती रहती है। शायद मां की याद आती होगी, यह स्वाभाविक है।

चन्दा बांसुरी को हाथों में थामकर चल रही थी। वह मैना काकी के साथ थी, उसे याद आ रही थी कि इसी बांसुरी के कारण गजेन्द्रसिंह से मिलना हो सका। वह प्रत्येक दिन बांसुरी सुनती रही है, उसका अन्तर खिंचता रहा है, वह कौन है ? उसकी बांसुरी कोयल से भी मीठी तान सुनाती है।

काका ने बांसुरी वाले को बुलाया था। उसने बाजीगर के साथ रहने की इच्छा बतायी थी, उसने उसके खिचाव का अनुभव कर लिया था। वह भी तो उसकी बांसुरी पर रीझ उठी थी। उसका अन्तर खिंचता चला गया। वह आठ-नौ वर्षों से इन बाजीगरों के साथ है। वह किशोरी थी, आज वह युवती है। उसे तो एक प्रकार से बाजीगर के हाथों में सौंप दिया गया। ये कुछ भी कर सकते थे। उसे सड़कों पर नचा सकते थे, पर खुदादीन काका ने ऐसा नहीं किया। बेटी के समान रखा, जहां-तहां तुर्क-अफगान हाकिमों की नजर पड़ जाती, खुदादीन काका परेशान हो जाते। हर बार बचाया है, बचाना कठिन हो रहा था। शायद इसीलिए एक राजपूत यूवक साथ में रख लिया, पर यह केवल रखवाला नहीं है। वह सर्वस्व बन रहा है। वह बांसुरी के साथ तलवार भी चमका देता है, और तलवार को रखकर बांसुरी से चमत्कृत कर देता है। यदि वह पकड़ में आ जाता तो वह आंसू बहाती रह जाती। समझ जाती कि ईश्वर ने उसे भाग्य की कंटीली झाड़ी में फेंक दिया। वह लहूलुहान होकर भटक रही है। पचासों के सामने नाचने जाती है। नाच नहीं पाती, पर वह नाचती है। लोकलज्जा कहां बची है।

वह बार-बार उससे पूछता है, उसकी जीवन-कथा जानना चाहता है। उसकी व्यथा बढ़ जाती है। एक कहानी गढ़ ली गयी है। वह उसे दुहरा देती है, उसे इस कहानी पर पूरा विश्वास नहीं हो पाता, पर इससे अधिक क्या कहा जाय ! वह उसके सिसकते जीवन के पास आया है। वह टिक जाय, पर बाजीगरों के साथ टिक जाना एक समस्या है। खेल-तमाशा दिखाना, हाथ पसारना और गांव-गांव खेमा गाड़ना- उसे अच्छा लगेगा? लेकिन वह टिकेगा। एक खिचाव से वह चन्दा ही है। उसे टिकना है, इस राज्य में उसका सबकुछ नष्ट हो चुका है। बांसुरी उसके शून्य जीवन में कुछ भर रही है।

उसने कई बार यमदेवता का आवाहन किया, जी कर क्या लेना था ! गड्ढे में गिरकर जीना व्यर्थ लगा। लगा कि कोई पंछी बाज से घायल होकर किसी झाड़ी में गिर गया है और फिर बहेलिया के हाथ में पड़ गया है, पर नहीं, खुदादीन काका ने उसकी पीड़ा को समझने का प्रयत्न किया।' वह कई माह रोती रही। माथे को फोड़ने की चेष्टा की, एक बार एक छुरी मिल गयी। उसने उसी से यमदेवता को बुला लेना चाहा। मगर काकी के कारण वह बच गयी।

अब लगता है कि बांसुरी के कारण जी लेगी। नाम, धाम और कुल को छिपाकर वह जी लेगी। हाथीसिंह ने नाम, धाम और कुल को नहीं छिपाया है। एक बड़ी बात है। इनसे सहारा मिल जायेगा। इनकी आंखों में कांटें नहीं हैं। इनकी सासों में विष नहीं है। बोल में कपट नहीं है। मन की बात बांसुरी कह देती है, वह समझने लगी थी, तभी तो खेमे के बाहर बजती हुई बांसुरी के लिए चाह जगने लगी। वह प्रतीक्षा करने लगी, बांसुरी के स्वर का अर्थ लगाकर शीश हिला, भीतर कहीं कुछ कंपन-सा अनुभव हुआ। वह कंपन नख से शिख तक फैला, अपने घर-द्वार को भूलकर उसके आस-पास बांसुरी बजाता रहा। बांसुरी बजती रही, उसके स्वर उसके पास आते रहे।

पुरुष कभी अपनी शक्ति से अधिकार करना चाहता है। पुरुष कभी अपने गुण से किसी को आकृष्ट करना चाहता है। कभी अपने अन्तर के अमृत को बरसाकर किसी को तृप्त कर देता है। हाथीसिंह ने अन्तर के अमृत को बरसाना चाहा है। तलवार दिखाने की चेष्टा नहीं की।

वह बांसुरी उसके हाथों में है ! हाथों में नहीं, हृदय के पास है। उसने इधर देखा है, इन हाथों में थमी हुई बांसुरी को देखा है। मन को आश्वासन मिल गया, जीने की यही भूमि है, अभी तक भूमि नहीं मिली। काका-काकी के कारण सांसें बन्द नहीं हो रही थीं। अब जीने के लिए सांस ले सकेगी।

यह ठीक है कि उसकी भटकन विवशता है। सांसों का भार ढोना पड़ा है, पर बांसुरी वाले की भटकन अनुराग के कारण है। यह अनुराग उसके प्रति है। अब दोनों की भटकन अनुराग की भूमि पर है, कांटों में फूल उगे हैं। मानो कांटें ही फूल बन रहे हैं। पिछले जीवन को भूल जाना है।

चन्दा क्षण भर के लिए थरथरा उठी और फिर आंखों की कोर में आंसू की बूंदें ढलक उठीं, उन्हें हाथों से मिटाने की इच्छा नहीं हुई। उसने पलकें बन्द कर कहा-'हाथों में बांसुरी रहे और आंखों में आंसू की बंदें, ये दोनों ही अपने हैं।'

पलकों को बन्द करते ही आंसू की बूंदें धरती पर गिर पड़ी। उसके पैर थम गये, उसने नीचे देखा, उन बूंदों से धरती के कण भीग गये थे। इन पर पैर नहीं पड़ना चाहिए। उसने बचकर पैर बढ़ाये और चलती रही।

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