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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


छत्तीस



सड़क की दोनों तरफ किशनपुरा के बाल, किशोर, तरुण और अधेड़ लोग उत्साह और उल्लास के साथ हेमचन्द्र और पार्वती को विदा कर रहे थे। सड़क पर भीड़ लग गयी। हेमचन्द्र वृन्दावन के संत पूरनदास का पुत्र है। वह हिन्दुओं की ओर से अफगान दरबार में स्थान पा चुका है। वह केवल सेठ सोहनलाल का नहीं, सबका पाहुना है। सबके स्नेह और आदर का पात्र है इसलिए उस पर फूल और अक्षत बिखेरे जा रहे थे। उधर श्रीविलास में शाह हरखलाल ने खिड़कियों को बन्द कर मुंह छिपा लिया।

सबने महसूस किया कि विवाह के बाद बारात लौट रही है। वृन्दावन की ओर बढ़ती हुई टोली बारात बन गयी थी। लोग सहर्ष अभिनन्दन कर रहे थे, आगरा नगर बधाई दे रहा था।

आगरा नगर से बाहर निकलते ही चौधरी नरवाहन ने संत पूरनदास से अनुरोध किया—'इस बार हम जमनाजी को पारकर गोकुलगोवर्धन की ओर चलें।'

'बात क्या है, नरवाहन जी। भैगांव चलने का विचार है क्या ?' मुस्कराते हुए संत पूरनदास ने पूछा।

'विचार तो है, गोवर्धन में भगवान श्रीनाथ के दर्शन हों। मेरे भैगांव में स्वागत-सत्कार हो और फिर वृन्दावन।'

आपका विचार उत्तम है, नरवाहन जी ! मेरी सहमति है।' संत नवलदास ने मधर स्वर में समर्थन किया।

'जब आप लोगों को सहमति हो गयी, तब मैं क्या कहूं !' पूरनदास ने विजय वाहन को यमुना तट की ओर इशारा किया।

विजयवाहन ने रास्ता बदल लिया। सभी यमुनातट पर पहुंचे, नाव से नदी पार की। सभी गोकुल की ओर बढ़ चले, बारात श्रीनाथजी के दर्शन-पूजन के लिए बढ़ती गयी। पश्चिम की ओर यमुना बह रही थी। जहां-तहां कदम्ब के पेड़ों के झुरमुट थे। उनमें फल लगे हुए थे। गोचारण के लिए निकले गोपबालक कदम्ब तोड़ रहे थे। कोई कदम्ब पर चढ़कर बांसुरी बजा रहा था। कहीं तमाल कुंज दिखायी पड़ रहा था, पूरब की ओर थोड़ी-थोड़ी दूर पर छोटे-छोटे गांव दिखायी पड़ने लगे। गांव के आस-पास आम, जामुन, गूलर, कदम्ब, नीम और पीपल के उपवन थे। लग रहा था कि प्रत्येक गांव उपवन के बीच बसा हुआ है। चारों ओर खेतों में हरियाली थी। गायें चर रही थीं।

सोना ने पार्वती को गांव का दृश्य देखने के लिए अनुरोध किया। पालकी में बैठी पार्वती गांव का यह दृश्य देख लेती। कभी यमुना जी की ओर देखने लगती। वह अपने पिताजी-मां जी के साथ एक बार वृन्दावन जा चुकी है। उसे गांव और उपवन के दृश्य बड़े अच्छे लगे थे, पर जहां-तहां गरीब बच्चों-बूढ़ों को देखकर उसका हृदय सिहर गया था।

इस बार गोवर्धन की यात्रा है। आज वह बहू है, मन ने जिसे चाहा, उसे पा लिया। वे साथ-साथ हैं, वह अपने सौभाग्य के लिए भगवान श्रीनाथ से विनती करेगी, लोग तो गोवर्धन की परिक्रमा करते हैं। वह नहीं कर सकेगी, फिर कभी अवसर मिलेगा, वह इनके साथ परिक्रमा करेगी। ये उसे पारो समझकर अपने हृदय का पूरा प्यार देंगे। ऐसा तो न होगा कि पारो की याद में उसे पूरा स्नेह न मिले ! ऐसा नहीं होगा, वह दोनों संध्या बड़ी बहन पारो की भस्मी के आगे शीश झुकायेगी, पांच फूल भस्मी के डब्बे पर चढ़ाकर पांच फूल इनकी अंजुरी पर अर्पित करेगी, अपने हृदय का सम्पूर्ण स्नेह उड़ेल देगी। सम्पूर्ण समर्पण से इनका स्नेह पा लेगी, यही तो सौभाग्य है !

सोना ने दिखाया कि गोप बालक गेंद खेल रहे हैं। एक बालक गेंद से दूसरे को छू लेने के लिए गेंद को फेंक रहा है। दूसरा अगलबगल हट रहा है। गेंद छू गयी। अब वह गेंद उठाकर उस पर फेंक रहा है। गेंद को छूते ही हर्ष के शब्द गूंज उठे।

पार्वती गेंद के खेल को देखने लगी। पालकी बढ़ती जा रही थी। करील की झाड़ी की आड़ हो गयी। खेल का दृश्य छिप गया। बालकों की आवाज आती रही। उसका मन प्रसन्न हो उठा। उसने भी इन्हें लक्ष्य बना कर छू लिया है। इन्होंने भी छू लिया, तभी तो आज साथसाथ गोकुल की ओर जाना हो रहा है। पर ये जब-तब याद में खो जाते हैं। वह भी साथ-साथ उस याद में खोयेगी, और फिर ये पारो समझ कर हृदय से लगा लेंगे।

रास्ते में भोजन-विश्राम करते हुए यह दल गोकुल की ओर चलता रहा।

कच्ची सड़क की दोनों तरफ करील की झाड़ियां दिखायी पड़ी। साथ ही कांस के उजले फूल भी मुस्कराते हुए झलकने लगे। गोकुल के पास पहुंचते हुए सबने देखा कि मैदान में चौगान का खेल चल रहा है। गेंद को मुड़े हुए डंडे (हेंगुरि) से मारकर दूसरे दल के हाल की ओर ले जाया जा रहा था। दूसरा दल अपनी हेंगुरि से हाल में पहुंचने से बचा रहा था।

विजयवाहन ने चाहा कि सभी कुछ क्षण रुककर बटा-चौगान के खेल को देखकर आनन्द प्राप्त करें। वह रुक गया, सभी रुक गए। झाड़ियां नहीं थीं। खेल का दृश्य दिखाई पड़ रहा था, खिलाड़ी बड़े सतर्क थे। उत्साह एवं नियम से खेल रहे थे। हेंगुरि की एक चोट से गेंद हाल में पहुंच गई। विजयी दल उमंग में उछलने लगा। दूसरे दल ने भी जीत को कबूल कर लिया।

विजय गोकुल से होते हुए गोवर्धन की ओर मुड़ा। चौधरी नरवाहन क्षेत्र का परिचय कराते बढ़ रहे थे। संत पूरनदास और नवलदास में भी श्रद्धायुक्त उत्कंठा थी। वे वृन्दावन में रम रहे थे। इधर नहीं आ सके थे, नरवाहन जी के गांव में भी नहीं जा सके थे। इस बार यात्रा पूरी हो जाएगी, और पुष्टि सम्प्रदाय के गोस्वामी विट्ठलनाथ और भक्त कवि सूरदास जी के भी दर्शन हो जाएंगे। सूरदास का कवित्व तो सबको आकृष्ट कर रहा है। सूरदास की वाणी से पुष्टि सम्प्रदाय लोकप्रिय हो रहा है।

अपने राधावल्लभ सम्प्रदाय में शृगार ही मुख्य है, पर वल्लभाचार्य के पुष्टि सम्प्रदाय में वात्सल्य की प्रधानता रही है। गुरु गोस्वामी कह रहे थे कि गौड़ीय सम्प्रदाय के प्रभाव से आचार्य वल्लभ ने प्रियाजी को श्रीकृष्ण के वामभाग में स्थान दिया है। माधुर्य भाव को अपनाया है, पर गुरु गोस्वामी ने राधावल्लभ सम्प्रदाय को स्वतन्त्र सिद्धान्त के आधार पर खड़ा किया है। राधा जी का स्वरूप गोस्वामी हितहरिवंश जी की साधना की देन है। वृन्दावन में भी कवियों का समूह एकत्र हो रहा है। अपने गुरु देव भी रससिद्ध कवि हैं।

नाथपंथी योगी शिवनाथ योग की साधना से भिन्न भक्ति-साधना को देखने-समझने के लिए उत्कंठित हो रहे थे। वे विचार कर रहे थे कि हेमचन्द्र ने आगरा में रहने को कहा है, अवश्य ही रहा जाय। राजधानी में रहने से योग का प्रभाव फैल सकता है। हेमचन्द्र की सहायता की जा सकती है, तेजस्वी शिष्य है। पता नहीं, वह व्यापार करेगा या राजकाज में लग जाएगा। देवली में तो वह बहुत कुछ सोचता रहा है। यहां वह अफगान बादशाह तक पहुंच चका है। ऐसा न हो कि वह बादशाह का मुसाहिब बन जाय। दरबार की चकाचौंध में वह खो जाय। राग-रंग में डूब जाय। आतंक के शासन, जजिया के शासन और मुगलों के आक्रमण को भूल जाय। यह स्मरण दिलाने के लिए आगरा में रहना चाहिए।

धर्मपाल और खेमराज हेमचन्द्र के साथ चल रहे थे। उनका विनोद चल रहा था, वे अपने नव-विवाहित मित्र के साथ विनोद के अवसर को छोड़ना नहीं चाहते थे। हेमचन्द्र भी मुस्करा कर विनोद का रस ले रहा था, स्वयं भी विनोद कर लेता था।

धर्मपाल ने कहा-'हेमू भाई ! रासो के युद्ध वर्णन पढ़ते-पढ़ते शशिव्रता और संयोगिता की मधुयामिनी तक आ पहुंचे।'

खेमराज ने टोका-पंडित धर्मपाल जी ! अफगान राजदरबार के सभासद हेमचन्द्र हैं, हेमू नहीं। इन्हें सुहाग की मधु रात्रि का संयोग मिल गया, क्यों छोड़ दें।'

'हां, भाई ! पार्वती में पारो की झलक मिली। मन में द्वन्द्व रहा, उधर सेठ सोहनलाल की समस्या थी, उनकी बात को मान लेना पड़ा।'

'आपने आगरे के सेठ का उद्धार किया है या अपने मन का या दोनों का परिणाम अच्छा ही रहा है। हम लोगों ने मन भर भोजन किया है। इसलिए हमने बधाई दी है।' धर्मपाल ने मुस्कराते हुए कहा।

'सच है, हेमचन्द्र जी ! वधू में पारो की झलक है। आपने पक्का ध्यान लगाया है। पार्वती-पारो नाम की धारणा भी ठीक रही है।' खेमराज ने चुटकी ली।

'अरे खेमराज ! ये तो योग को छोड़कर संयोग के चक्कर में पड़ गए। उधर योगिराज इन्हें अपना शिष्य मानते हैं।' धर्मपाल ने विनोद किया।

'धर्मपाल ! पढ़-लिखकर मूरख बनते हो !' खेमराज बोला।
'क्या मूर्खता हो गई ?' धर्मपाल ने पूछा।

'योग का अर्थ जोड़ना है। इसलिए मेरे सखा की गांठ सेठ की पुत्री से जुड़ गई। कहां गलत हुआ ?' खेमराज ने प्रहार कर दिया।

'भाई खेमराज ! तूने तो एकदम ठीक कहा है। योगी जी को बधाई है।' धर्मपाल और खेमराज ने हेमचन्द्र की ओर देखा।

'आप सबकी हार्दिक बधाई स्वीकार है। अब आप लोग गोवर्धन के पास पहुंच रहे हैं। श्रीकृष्ण का ध्यान लगाइए, हेम-पार्वती पर ध्यान लगाने से कुछ लाभ नहीं होगा।'
हेमचन्द्र ने विनोद किया।

'सर्वथा अनुचित, हेमचन्द्र ! धर्म-परम्परा से पार्वती-हेमचन्द्र का जोड़ा बनता है, हेम-पार्वती का नहीं जैसे गौरी-शंकर, राधा-कृष्ण और...।' यह धर्मपाल की मधुर चेतावनी थी।

'यदि आपने दरबारो शान में इस परम्परा को तोड़ा तो हम भाभी से झगड़ा करा देंगे।'-खेमराज ने सरस चुनौती दी।

"मित्रो ! अपनी त्रुटि को कान पकड़कर मानता हूं।'

मन्द-मन्द हास का हरसिंगार बरस पड़ा। पास की पालकी में पार्वती खेतों-उपवनों को देखना भूल गई। प्रिय के मित्रों के विनोद को सुनना-समझना चाहा, पर वह सुन नहीं सकी।

श्रीनाथ जी का मन्दिर दिखाई पड़ने लगा। विजयवाहन ठहर गया, सभी के पैर रुक गए। मानसी गंगा के तट पर कदम्ब की छांह में ठहरने और विश्राम का प्रबन्ध हुआ। सभी मानसी गंगा में हाथ-मुंह-पैर धोकर पवित्र हुए। फिर श्रीनाथ जी के मन्दिर के द्वार पर आ पहुंचे। सन्त पूरनदास, नवलदास, योगी शिवनाथ और चौधरी नरवाहन आगेआगे थे। हेमचन्द्र के साथ विजय, धर्मपाल और खेमराज थे। सोना के साथ पार्वती थी, और सबके पीछे रक्षक और भारवाहक थे।

गोस्वामी विट्ठलनाथ को जानकारी मिल गई कि राधावल्लभ सम्प्रदाय के पूरनदास जी अपने पुत्र का विवाह सम्पन्न कराकर दर्शन के लिए आ रहे हैं। साथ में संत नवलदास, संत राजा परमानन्द, रेवाड़ी के योगी शिवनाथ और भैगांव के चौधरी नरवाहन हैं। मन प्रसन्न हुआ, उन्होंने अधिकारी कृष्णदास को सबका स्वागत करने का निर्देश दिया। अधिकारी कृष्णदास ने मन्दिर के प्रांगण में सबका स्वागत किया।

सभी अधिकारी कृष्णदास के साथ श्रीनाथ जी की प्रतिमा के समक्ष आए। सबके शीश झुक गए, गोस्वामी विट्ठलनाथ ने सबको मंगलाशीष दी। सभी बैठे, संत पूरनदास ने देखा कि श्रीकृष्ण के वामभाग में श्री राधाजी विद्यमान हैं। उनके नयन चकोर बन गए। नवलदास तथा परमानन्द की दृष्टि भी टिक गई। सबने देखा कि शरद् के फूलों से शृंगार हुआ है, शोभा अनुपम है। योगी शिवनाथ राधाकृष्ण की छवि को देखते रह गए।

गोस्वामी विट्ठलनाथ कह रहे थे-आचार्य वल्लभ देव ने 'कृष्णाश्रय' में लिखा है-देश म्लेच्छाक्रान्त है। गंगादि तीर्थ दुष्टों द्वारा भ्रष्ट हो रहे हैं। अशिक्षा और अज्ञान के कारण धर्म नष्ट हो रहा है। ऐसी स्थिति में एकमात्र कृष्णाश्रय में ही जीवन का कल्याण है। धर्म और जीवन के पतन की विषम अवस्था में प्रेम रूप श्रीकृष्ण के अनुग्रह से भक्ति ही सर्वस्व है। हमारे हृदय के भाव-वात्सल्य, राख्य, माधुर्य भाव श्रीनाथ जी के प्रति अर्पित होकर दिव्य बन जाएं। हम दिव्य भाव में उनके नित्य विहार में सम्मिलित हों। मुक्ति नहीं, केवल भक्ति.. भगवान के विग्रह की सेवाभक्ति ! भक्त शिरोमणि सूरदास की वाणी क्या कहती है हम सुनें!

सूरदास ने शीश झुकाकर पद सुनाना आरम्भ किया -

प्रीतिबस स्याम है रावरंक कोउ, पुरुष के नारि नहिं भेदकारी।
प्रीतिबस देवकी गर्भ लीन्हो बास, प्रीति के हेत ब्रज वेष कीन्हौ।
प्रीति के हेतु जसुमति-पयपान कियौ, प्रीति के हेतु अवतार लीन्हौं।
प्रीति के हेतु बन धेनु चरावत कान्ह, प्रीति के हेतु नन्द-सुवन नामा।
प्रीति के हेतु सूरज प्रभुहिं पाइए, प्रीति के हेतु दोउ स्याम-स्यामा।

इसी प्रीति की अनन्यता की अभिव्यक्ति शरद् रास में हुई है। शरत पूनो की चांदनी में श्रीकृष्ण ने प्रीतिवश मुरली बजाई। सभी गोपियां बेसुध हो दौड़ पड़ीं। गोपियों के मध्य श्रीकृष्ण राधाजी के साथ मरली की ध्वनि पर नत्य करने लगे। सबने समझा कि श्री श्याम उन्हीं के साथ हैं।

यमुन पुलिन मल्लिका मनोहर सरद सुहाई यामिनी।
सुन्दर ससि गुण रूप राग निधि, अंग-अंग अभिरामिनी।।
रच्यौ रास मिलि रसिक राइसों, मुदित भई ब्रजभामिनी।
रूप निधान स्याम सुन्दर घन-आनन्द मन विस्रामिनी॥

सभी मन्त्र मुग्ध-से हो गए। लग रहा था कि सूर की अमृतवाणी उनके प्राणों में गूंज रही है, और आंखों के सामने शरद चन्द्रिका में रास का अलौकिक दृश्य है। यह रास नृत्य वृन्दावन में हुआ था। रास कुंज उसी तट पर है, पर इधर सूर ने अपनी वाणी से रास कुंज की रचना कर दी है। श्याम सब जगह हैं। सबके साथ हैं। प्रेम के वश हैं। हेमचन्द्र ने पार्वती की ओर देखा। पार्वती ने मन्द मुस्कान के साथ पलकें बन्द कर लीं, और फिर श्रीनाथ जी के सामने सिर झुका दिया।

अधिकारी कृष्णदास के संकेत पर सबको प्रसाद मिला। गोस्वामी विट्ठलनाथ ने रात्रि विश्राम का अनुरोध किया। संत पूरनदास ने विनम्रतापूर्वक अनुरोध को मान लिया।

रात में हेमचन्द्र विजय से बातचीत कर रहा था। विजय बता रहा था कि इधर के जाट बन्धु फौज में भर्ती हुए हैं। बहुत समझाना पड़ा है। लोग तैयार नहीं हो रहे थे। कहते थे कि तुर्क-अफगानों की सेवा क्यों करें? इनकी फौज में शामिल होकर अपने ही भाई-बन्धु को दबाएं ? धीरे-धीरे बात समझने लगे हैं, और भी भर्ती होंगे।
दूसरे दिन प्रातःकाल स्नान-दर्शन कर सभी ने चौधरी नरवाहन के गांव भैगांव के लिए प्रस्थान कर दिया।

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