ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य हेमचन्द्र विक्रमादित्यशत्रुघ्न प्रसाद
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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!
चौंतीस
गजराज सिंह महोबा के पास के गांव का था। वह यह सोचता हुआ गांव पहुंच रहा था कि गजेन्द्र को कहां ढूंढा जाय ! घर में किसी से झगड़ा हो गया ? लेकिन वह बाजीगरों-नटों के साथ कहां चला जाएगा?
हेमचन्द्र ने सुझाव दिया है कि अफगान सेना में सैनिक परिवारों के नौजवान भर्ती हों, वह तो दरिद्री में अफगान बादशाह की सेवा कर रहा है। कुछ राजपूत परिवार खेती में लग गए हैं। कुछ भटक रहे हैं, पर अफगानों की सेवा करने को तैयार नहीं हैं। विदेशी-विधर्मी की सेवा स्वाभिमान के विरुद्ध है, शेरशाह ने कालिंजर के किले को घेरा था। वह जीत कर भी हार गया, अपनी बारूद से खुद जलकर मर गया। पर उसके बेटे सलीमशाह ने बारूद का क्रोध कालिंजर के राजा पर उतारा। इसने राजा और राजपरिवार मार डाले, सारा कालिंजर शोक में डूब गया। महोबा हाय-हाय करता रहा, भीतर ही भीतर रोष उभरता है। पर अफगान बादशाह की ताकत के सामने लोग दबे हैं। ये कैसे अफगान सेना में भर्ती होंगे?
हेमचन्द्र का सोचना भी सही लगता है। यदि प्रजा और सैनिकों का दबाव बढ़ जाय तो अफगान बादशाह जजिया कर भी वसूल नहीं कर सकता। ये मुट्ठी भर तुर्क-अफगान करोड़ों पर राज्य कर रहे हैं। जैसा चाहें, वैसा कर लेते हैं। अलग-अलग क्षेत्रों में कोई तलवार उठाता...है वह कुचल दिया जाता है। हेम चन्द्र ने इस जंगली हाथी पर अंकुश लगाने के लिए एक यही रास्ता निकाला है।
उसने गांव में प्रवेश किया। लोगों ने पहचाना। बड़े-छोटों से यथायोग्य प्रणाम-आशीर्वाद आरम्भ हो गया। कुछ लोग साथ हो गए। वह घर के द्वार पर पहुंचा। पड़ोसी इकट्ठे होने लगे। कुछ नहीं भी आये, उन्हें अफगानों की सेवा अच्छी नहीं लगती थी। उनकी दृष्टि में स्वाभिमान का पतन है। रोटी के लिए यह झुकना है, गिरना है पर अधिकांश ने गजराज सिंह का स्वागत किया। उसने सबसे कुशलक्षेम पूछा। किसी ने खाट पर चादर बिछायी, कोई लोटा में पानी लाया। कुछ तो बादशाह के खिदमतगार के चेहरे को पढ़ रहे थे। घर में त्यौहार-सा आनन्द छा गया। उसने अपनी मां और पिता के चरणों का स्पर्श कर आशीष पा ली। धूल से भरा उसका मुखड़ा मां को बड़ा मोहक लगा, दो-दो बच्चे उसके पास आकर उछलने लगे। उनके कपोलों पर अपना प्यार जड़ दिया। दरवाजे के पास चूंघट में पत्नी का मुख झलका। और फिर उसने देखा कि वह उसके पैरों पर झुक रही है।
स्नान-भोजन के बाद वह विश्राम करने लगा। दोनों बच्चे अगलबगल लेट गए, उन्हें लग रहा था कि उन्होंने बहुत दिनों के बाद अपने बापू को पा लिया है। अब उन्हें छोड़ना नहीं है। गजराज उनकी उमंग को समझ रहा था। प्यार कर रहा था। पत्नी पैरों में तेल लगाने लगी। उसने पूछा-'गजेन्द्र कहां चला गया है ? छोटे चचेरे भाई को किसी ने कुछ कह दिया है क्या?'
'उन्हें तो सबसे प्यार मिल रहा था। उनका ब्याह भी ठीक हो रहा था, पर...।'
'क्या बात हो गयी?'
'बरस भर से उनका इधर-उधर घूमना-फिरना हो रहा था। कहीं बाजीगर का खेल देखने चले गए, कहीं कथा हो रही है तो उधर ही ठहर गए। इधर कई माह से पता नहीं है।'
‘पता लगाना चाहिए था। ढूंढ़ना नहीं हुआ क्या ?'
'सब हुआ है, पर वे तो बाजीगर के साथ चले गए हैं।'
'बाजीगरी का तमाशा देखते-देखते लापता हो गया !'
'बात यह है कि बाजीगर के साथ एक नाचने वाली है, उसी के पीछे-पीछे वे।'
यह सुनकर गजराज सिंह का क्रोध उफनने लगा। पर वह सोच नहीं सका कि किस पर क्रोध किया जाय ! गजेन्द्र तो यहां नहीं था। उसने आंखें बन्द कर लीं। यह कैसा उन्माद है ! कैसी मस्ती है ! आगरा में मोहनलाल और यहां गजेन्द्र।
पत्नी उसके थके पैरों में तेल लगाती हुई जवाब दे रही थी। उसने देखा कि उन्हें नींद आ गयी है।
दूसरे दिन से गजराज सिंह ने गजेन्द्र को ढूंढ़ना आरम्भ कर दिया। वह प्रातःकाल निकल जाता और संध्या तक खाली हाथ लौट आता। बच्चे प्रतीक्षा करते रहते। पत्नी कोठरी की छोटी खिड़की से रास्ता देखती रहती। गजेन्द्र की विधवा मां को भरोसा हो गया था कि गजेन्द्र लौट कर आ जाएगा। गजराज ढंढ़ लाएगा।
दशहरा निकट आ गया। परन्तु गजेन्द्र का पता नहीं चला। वह निराश हो गया।
दशहरे के दिन वह शस्त्रपूजन आधे मन से ही कर सका। देवीपूजन का ढोल बजता रहा, लोग शस्त्रों का प्रदर्शन करते रहे। उसने भी लोगों के अनुरोध पर कुछ दिखा दिया। पर मन नहीं लगा, पास के गांव में तांत्रिक अपनी साधना में लगा हुआ था। गांव में उसी की चर्चा फैल रही थी, पर वह घर में आकर गजेन्द्र की मां को समझाने लगा। मन में मोहनलाल और हेमचन्द्र की यादें उभर आयीं। हेमचन्द्र का विचार भी स्मरण हो आया। पर वह क्या करे ?
उसने संध्या में कुछ नौजवानों से अफगान फौज में भर्ती होने के लिए अनुरोध किया। लोगों ने प्रश्न किये, बड़े-बूढ़ों को समझाने का प्रयत्न किया। कुछ लोग सहमत हुए, कुछ असहमति में चुप रहे। एकाध ने अपनी असहमति को रूखे शब्दों में प्रकट कर दिया। गजराज सिंह आशा-निराशा की धुंधली स्थिति को समझता रहा।
घर में गजेन्द्र की खोज के लिए बातें उठीं। वह बेचैन हो उठा, वह दूसरे दिन पश्चिम की तरफ निकल पड़ा। आगे बढ़ने पर मालूम हुआ कि उधर कोई बाजीगर आया हुआ है। वह उधर जा पहुंचा। बाजीगर अपना खेमा उखाड़ कर आगे बढ़ गया था। वह भूखे-प्यासे दूसरे गांव तक पहुंच गया। बाजीगर खुदादीन खेल की तैयारी कर रहा था। गजेन्द्र वेश बदल कर खेमे में पड़ा हुआ था, उसने दूर से देख लिया था कि भैया आ रहे हैं। वह घबरा गया, उसने खुदादीन को इशारा कर दिया। वह खेमें में घुस आया। चन्दा ने वेश बदलने की सलाह दी। वह खुद भोजन पकाने लगी। बाहर खुदादीन ने ढोलक बजाकर दर्शकों को बुलाना शुरू कर दिया। लोग इकट्ठे होने लगे। बच्चे उछलते हुए आ चुके थे। गजराज सिंह सतर्क आंखों से देखने लगा। रस्से पर खेल शुरू हुआ, एक नौजवान नट रस्से पर सन्तुलन के साथ चल रहा था। छोटी-सी छड़ी ने सन्तुलन कायम रखा था, लेकिन गजराज सिंह का सन्तुलन नहीं रह गया था। वह खेमे की ओर चला गया। उधर भी झांक-झांक कर देखा, मैले-कुचैले कपड़े में एक लड़की खाना पका रही थी। और कोई नहीं था, वह नाचने वाली नहीं लगी। चेहरे और चाल में ऐसी कोई बात नहीं थी। गजेन्द्र का पता नहीं था, वह नट का खेल देखने लगा। उससे रहा नहीं गया। वह खुदादीन से पूछ बैठा—'गजेन्द्र नामक नौजवान खेल देखने आता है। तुम्हारे साथ रहता है, वह कहां है ?
खुदादीन ने अपने कान पकड़ कर कहा- 'जी नहीं, मालिक ! गांव के लोग खेल देखते हैं और अपने घर लौट जाते हैं। कोई साथ क्यों आएगा? इस गरीब के पास क्या है ?
'तुम्हारे पास खेल-तमाशे हैं। नाचने वाली लड़की है।'
'आपके सामने सब हैं, हुजूर ! मैं किसी को छिपा कर क्यों रखूगा ! यह गलती नहीं हो सकती। वे कहीं चले गए होंगे।'
गजराज सिंह चुप हो गया। खेल के अन्त में नाचने वाली लड़की आयी। मुखड़े पर चूंघट डाले साधारण ढंग से नाचती हुई बांसुरी बजाने का अभिनय करने लगी।
खुदादीन ने ढोलक बजाते-बजाते अपनी मांग रख दी। सबके -सामने हाथ पसार दिया। बिछी हुई चादर पर कोई पैसा फेंकने लगा, कोई अनाज देने लगा। और बाजीगर का खेल खत्म हो गया।
गजराज सिंह ने फिर से एक बार चारों तरफ देखा। उदास भाव से लौट चला। उसने सोचा कि घर में कोई बात हुई है। उसी से रूठ कहीं चला गया है। इन नटों पर सन्देह करना व्यर्थ है। वह आगरा की ओर लौटेगा तो पास के गांव में पूछता हुआ जाएगा। फौजी भर्ती के लिए थोड़ी और बातचीत कर लेगा। कुछ लोग तो तैयार हुए हैं,
लोगों में विशेष उत्साह नहीं है। गजेन्द्र के कारण उसका उत्साह भी मारा गया है, पर कुछ तो प्रयत्न करना है।
इधर खुदादीन ने सोचा कि यहां से जल्द ही आगे बढ़ जाना चाहिए। यहां रुकने पर परेशानी बढ़ जाएगी। इसलिए उसने सबको खा-पीकर आगे बढ़ने का हुक्म दे दिया। खेमे में वेश बदलकर छिपे हुए गजेन्द्र को यह हुक्म अच्छा लगा, लेकिन उसे खेमे से बाहर निकलने का साहस नहीं हो रहा था। चन्दा सबको खिलाने का इन्तजाम कर रही थी। वह खेमे के भीतर ही खाना लेकर गयी। गजेन्द्र उठ बैठा, वह चुपचाप खाने लगा। चन्दा ने कहा-'आज तो आप पकड़ में आ जाते। बच गये।'
'बाजीगरों के साथ रह कर भी पकड़ में आ जाता तो यह अजीब बात होती।' गजेन्द्र ने उत्तर दिया।
'बाजीगरी कब तक आपको बचाएगी?'
'खुदादीन मियां की बाजीगरी से ऊपर भी चन्दा की कला है। वह कला किस दिन काम में आती ?'
'चन्दा की कला सूरज के ताप के सामने फीकी पड़ जाती, हाथी सिंह जी!
'मैं हाथी हूं ! हाथी के समान मोटा-सोटा हूं !'
'आप ही तो कह रहे थे कि गजेन्द्र का मतलब इन्द्र का हाथी होता है।'
'इसलिए मैं हाथी हो गया ! और तुम दूर-दूर रहकर चमकने वाली चन्दा हो ?'
'हां, जब-तब अंधेरे में छिप जाने वाली चन्दा हूं।'
'बात क्या है, चन्दा ! ऐसी-ऐसी बातें क्यों बोलती हो और कभी उदास हो जाती हो?'
'आप पकड़ में आ जाते तो मन उदास नहीं होता?'
'तुम दूर-दूर चली जाती। मैं गांव में रहकर राह देखता रहता।'
'फिर आपका विवाह हो जाता। चन्दा की याद भी नहीं आती।'
'ऐसा मत कहो, चन्दा ! चन्दा और लोरिक की कहानी गांवों में सुनायी पड़ती है।
एक और चन्दा और गजेन्द्र की कहानी बन जाती।'
'कहानी तो बन रही है, अब आप इसी वेश में चलने को तैयार हो जाइए।'
खेमा उखड़ गया, टट्टुओं पर सामान लद गया। दस लोगों का जत्था आगे बढ़ गया। गांव के बच्चे बड़ी उत्सुकता से इन्हें देख रहे थे। एकाध पूछ रहे थे कि वे क्यों जा रहे हैं ? उन्हें तो ठहरना चाहिए। खेल दिखाना चाहिए।
खुदादीन ने मुस्कराकर बच्चों को समझाया कि दूसरे गांव से बुलावा आया है। जाना जरूरी है, इधर फिर आना है। यही तो कामधन्धा है, धूमते रहना है।
गजेन्द्र ने मुड़कर पीछे देखा। गांव पीछे छूट रहा था। भैया का भय नहीं रहा। वे तो कुछ दिनों में आगरा लौट जायेंगे, वह निश्चिन्त होकर चन्दा के साथ गांव-गांव चलता जाएगा। पर गांव में मां रो रही होंगी, वह क्षण भर के लिए ठिठक गया। पीछे मुड़कर देखा, गांव बहुत दूर छूट गया, वह सब छोड़कर आगे....।
खुदादीन ने टोका–‘रुकना नहीं है। आगे बढ़ना है, नहीं तो परेशानी बढ़ जाएगी।'
गजेन्द्र के कदम आगे बढ़ते गये।
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