ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य हेमचन्द्र विक्रमादित्यशत्रुघ्न प्रसाद
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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!
तैंतीस
संत पूरनदास ने सोहनलाल से अनुरोध किया कि हेमू को वधू के साथ वृन्दावन और गोकुल जाकर दर्शन-पूजन करना चाहिए। रेवाड़ी भी जाना आवश्यक है।
संत नवलदास ने इसका समर्थन किया।
सोहनलाल ने एक क्षण सोचकर कहा–'अब तो हेमू हेमचन्द्र है...हिन्दुओं का सिरमौर है। हम सभी हेमचन्द्र ही कहेंगे, उसे विवाह के बाद आराध्य देवता के चरणों में आशीष के लिए झुकना ही चाहिए। आपके आदेश से वह जरूर जाएगा।'
'सेठ सोहनलाल जी ! हम बचपन में प्यार से हेमू कहते आए हैं। हेमचन्द्र तो है ही, ऐसा हो कि वह हम लोगों के साथ चले। अकेले जाना उचित नहीं होगा, लगे कि परिवार के साथ वर-वधू धूमधाम से देवदर्शन के लिए जा रहे हैं। बारात वापस लौट रही है।' संत राजा परमानन्द के ये शब्द थे।
'आपने मेरे मुंह की बात छीन ली।' चौधरी नरवाहन ने मुस्कराते हुए कहा।
'बारात के बुजुर्गों की हर बात को मानना मेरा धर्म है, मुंशीजी ! आप बारात की विदाई की व्यवस्था करें।' सोहनलाल ने उत्तर दिया, और मुंशी जी को संकेत किया। सभी मन्द-मन्द मुस्कराने लगे।
हेमचन्द्र योगी शिवनाथ, धर्मपाल शर्मा और खेमराज के साथ गपशप कर रहा था। मुंशी चाचा के संकेत पर वह योगी जी से अनुमति लेकर सन्तों के पास जा पहुंचा।
पूरनदास ने कहा- 'बेटे ! तुम्हें वधू के साथ वृन्दावन चलन है। हम लोगों के साथ दर्शन-पूजन हो। अपने चाचा के साथ रेवाड़ी भी हो आओ। गांव, कुल और कुल-देवता को भूलना नहीं चाहिए।'
‘जो आज्ञा।' हेमचन्द्र ने उत्तर दिया।
'मुंशी जी यात्रा की तैयारी कर रहे हैं।' सोहनलाल ने बताया।
'मैं बादशाह से मिल लेना चाहता हूं। मालूम हुआ है कि वे थोड़ा बीमार हैं।'
'आज मिल आओ। सोहनलाल ने आग्रह के स्वर में कहा।
हेमचन्द्र अपराह्न में बादशाह सलामत से मिलने किले के द्वार पर जा पहुंचा। आदर के साथ प्रवेश मिला, वह शाही हरम की ओर बढ़ा। सिपहसालार शादी खां, वकील और हकीम एक साथ लौट रहे थे। उसने अदब से बन्दगी की। शादी खां ने मुबारकबाद दी, और बताया कि बादशाह सलामत थोड़ा बीमार हैं। लेकिन कोई फिक्र की बात नहीं है।
वह उनसे रुखसत होकर शाही हरम के दरवाजे पर आया। हथियारबन्द पहरेदार अपने सालार के साथ तैनात थे। खबर भेजी गई। इजाजत मिली, वह सालार के साथ हरम के बाहरी कमरे में पहुंचा। यहां भी हथियारबन्द पहरेदार थे। बादियों का आना-जाना हो रहा था। हरम की बेगमें पर्दे में चली गईं। हेमचन्द्र नजर झुकाए बादशाह के पास आया। झुककर सलामी दी। सलीमशाह बादशाह ने लेटे-लेटे उसकी सलामी को कबूल किया। साथ ही शादी के लिए बधाई दी।
हेमचन्द्र ने कहा-'शाही सौगात को पाकर सभी फूले नहीं समाए, आपकी बड़ी इनायत है। सबने एहसास किया कि आप मौजूद हैं। बाद में मालूम हुआ कि आप...। मैं रुक नहीं सका।'
'कोई खास बात नहीं है, हेमचन्द्र ! हकीम साहब आए थे। लेकिन हकमत और सियासत की बातें ही खास-खास हैं। इनसे छुटकारा नहीं है।'
'अभी आप फिक्र न करें, आराम करें।'
'रिश्तेदारों का रंग-ढंग अच्छा नहीं लग रहा है। बेटा फिरोज बहुत छोटा है।'
'इन रिश्तेदारों पर कड़ी नजर रखी जाय।'
'क्या करूं? हमारे अफगान सरदार भी तो नाखुश ही हैं। उनकी मनमानी बहुत कुछ बन्द कर दी है।' बादशाह सलीमशाह ने कहा।
'आपने तो सबको काबू में रखा है। मुगलों को तो हिम्मत भो नहीं है कि वे इधर कदम बढ़ायें।'
'बस ! इतना तो हो सका है।'
'आपके इकबाल से सब ठीक होता जाएगा। आपकी इजाजत हो तो कुछ दिनों के लिए वृन्दावन होता हुआ गांव जाऊं! सबकी राय है कि विवाह के बाद दर्शन-पूजन जरूरी है।'
'जरूर जाओ, लेकिन जल्द लौट आना। यहां तुम्हारी जरूरत है।' बादशाह सलीमशाह सूरी ने उसे खुशी-खुशी इजाजत दे दी।
वह बाअदब रुखसत हो यमुना के पार हुआ। सिकन्दराबाद में जमाल अहमद से भेंट हो गई, कुशल-मंगल पूछा। जमाल ने अपने घर में स्वतन्त्र जीवन पर बड़ा सन्तोष प्रकट किया।
'नूरी भाभी को कैसा लग रहा है ?'
'उसे विवाह की विधि अच्छी लगी। नये घर में प्रवेश का समारोह भी पसन्द किया। फूल-माला, अक्षत और दीप को बुरा नहीं माना। साईंदास का भजन सुनकर बहुत खुश थी, लेकिन मुल्ला साहब खुश नहीं हैं।'
'उनका दबाव तो बढ़ सकता है, पर चिन्ता न करें। ऐसा हो कि आप हिन्दी-मुसलमानों से मेलजोल बढ़ावें। उनको अपनी धरती, अपनी 'परम्परा और अपनी भाषा से जोड़े रखने की कोशिश करें। आपको भी थोड़ा बल मिलेगा।'
'बिल्कुल सही सुझाव है, हेमचन्द्र ! इस सुझाव के अनुसार करना है। मैंने अनुभव किया है कि ये अरबी, ईरानी और अफगान हिन्दी मुसलमानों को अपने से छोटा मानते हैं। ये समझते हैं कि हिन्दी मुसलमान पक्के मुसलमान नहीं हैं, ये तो कबीरपंथी साधु से मिलते रहते हैं। हिन्दी मुसलमान चाहते हैं कि वे मुसलमान बनने के बाद भी अपनी धरती, अपने पुरखों और अपनी रीतिनीति से जुड़े रहें। ये मुल्लामौलवी इन्हें अरबी-ईरानी रंग में रंग देना चाहते हैं, यह एक उथल-पुथल है।'
इसलिए इन्हें आपस में जोड़ना चाहिए, और इन्हें कबीरपंथ की ओर मोड़ना चाहिए जिससे इनमें मजहबी कट्टरता पैदा न हो।'
'लेकिन मुल्ला-मौलवी कबीर पंथ को भी कुफ्र समझने लगे हैं। ये तो सूफी शायरों को भी पसन्द नहीं करते।'
'सूफी फकीर तो मुल्लाओं के मुताबिक चलते हैं।'
'सूफी शायर थोड़ा आजाद मिजाज के हैं। वे सूफी विचार को इस देश की धरती से जोड़ देना चाहते हैं।'
‘मंझन साहब की भावना और भाषा इसके प्रमाण हैं।'
'उनसे बार-बार मिलने की इच्छा होती है, हेमचन्द्र !'
'वे प्रयाग की ओर जाने की बात कह रहे थे, पर अभी रहेंगे। भेंट होगी।'
'उनसे मिल कर मन को बड़ी शान्ति मिलती है।'
'वैसे भी वे रमता जोगी हैं, हमेशा मिलना कठिन है। एक अनुरोध है।'
'वह क्या ?'
'आप प्रातः आएं। सबसे भेंट हो जाएगी। कल सभी एक साथ ही...विदा होंगे।'
'अवश्य आऊंगा, हेमचन्द्र ! पर चाचा हरखलाल की दृष्टि बड़ी पैनी है। मेरे ऐसे भ्रष्ट पर वे नाराज रहते हैं।'
'उनका स्वार्थ प्रबल है, द्वोष प्रबलतम है। कोई चिन्ता नहीं...आपको आना ही है।'
दोनों एक-दूसरे से विदा हुए।
हेमचन्द्र सोचता हुआ किशनपुरा की ओर बढ़ा कि योगी शिवनाथ को आगरा में रहने के लिए अनुरोध होना चाहिए। वे यहां रहेंगे तो उनका सहारा रहेगा। विजय और खेमराज तो अपने क्षेत्र के किसान नौजवानों के साथ सेना में भर्ती हो चुके हैं। उधर गजराज सिंह के समझाने पर सैनिक परिवार के लोग भी हो सकेंगे। इस सैनिक बल से आतंक धीरे-धीरे कम होगा। अफगान शासक प्रजा के निकट आएगा, विदेशी मुगलों को दूर रखा जा सकेगा।
लक्ष्मीभवन में सन्त नवलदास और पूरनदास का सत्संग चल रहा था। सारे आमन्त्रित लोग उपस्थित थे। योगी शिवनाथ तो योगमार्गी थे; भक्तिमार्गी नहीं थे। वे गुरु गोरखनाथ की वाणी का स्मरण करते हुए भक्ति के पद सुन रहे थे। सोच रहे थे कि योग में मन की वृत्तियों का नियमन किया जाता है। शरीर, मन और प्राणवायु पर नियन्त्रण कर एक बिन्दु पर ध्यान लगाना पड़ता है। कठोर साधना है, इससे शरीर और मन की नियन्त्रित एवं केन्द्रित शक्ति आत्मोन्मुख होती है। पर भक्ति में मन की वृत्तियों को सांसारिक सम्बन्धों की ओर से हटा कर निर्गुण या सगुण ब्रह्म की ओर लगाना है। मन का प्रेमभाव कृष्ण या राम के प्रति निवेदित हो ! सांसारिक सम्बन्ध इष्टदेव के प्रति बन जाये --यही भक्तियोग है। आज यही भक्ति लोकप्रिय हो रही है। यह सबके लिए सहज है। कबीरदास ने योग को भक्ति में मिला दिया है, उनके राम निर्गुण हैं। उस निर्गुण में सगुण प्रेमभाव''अद्भुत है। बुनकर होने के कारण ब्राह्मण कबीर को ऊंचा स्थान नहीं देते। उधर मुल्ला-मौलवी भी उन्हें नहीं मान रहे हैं। कबीरदास ने किसी की चिन्ता नहीं की, किसी को नहीं छोड़ा, नाथयोगी को भी नहीं छोड़ा।
हेमचन्द्र ने आगरा में रहने के लिए अनुरोध किया है। रहा जा सकता है, पर रेवाड़ी से होकर ही यहां रहना सम्भव है। योगी गृहस्थों के साथ हाट-बस्ती में तो नहीं रहेगा। बस्ती से हटकर कुछ प्रबन्ध करना होगा।
दूसरे दिन प्रातःकाल हेमचन्द्र अपनी नववधू के साथ वृन्दावन की ओर प्रस्थान कर रहा था। जमाल और मंझन दोनों साथ-साथ आ गये। दोनों ने मंगलकामना के साथ विदाई दी। सन्त पूरनदास, सन्त नवलदास, चौधरी नरवाहन, विजयवाहन, धर्मपाल शर्मा, खेमराज और योगी शिवनाथ ने सोहनलाल से विदा मांगी। सोहनलाल प्रसन्न थे, सबको नये वस्त्रों के साथ विदा करने लगे। मुंशी हरसुखलाल ने विदाई में मिठाइयों का टोकरा भी रख दिया। साथ ही रास्ते की सुरक्षा के लिए भी थोड़ा प्रबन्ध किया। वैसे भी चौधरी नरवाहन, विजयवाहन और खेमराज सशस्त्र थे। पार्वती के साथ दासी सोना भी जा रही थी।
शाह हरखलाल से विवाह समारोह देखा नहीं जा सका। प्रयत्नों के बाद भी विघ्न पैदा नहीं हो सका। कुछ लोगों को इशारा किया कि पाहुन तो घर में ही रह रहा था। उसी पर पर्दा डाला जा रहा है। एकाध ने सर हिलाये, एकाध तो हेमचन्द्र के आचरण को जान रहे थे। उन्हें यह भी मालूम था कि हेमचन्द्र लक्ष्मीवाटिका में मुंशी हरसुखलाल के साथ रहता था इसलिए उन पर प्रभाव नहीं पड़ा। और अब हरखलाल बिछावन पर पड़ा-पड़ा अपने भाग्य को कोस रहा था।
सोहनलाल को लग रहा था कि बेटी की विदाई हो रही है। अब घर सूना हो जाएगा। घर भरा तो नहीं, पर घर सूना हो गया। वे कभी अपने मोहन-जमाल को देखते और कभी बेटी पार्वती की ओर : सबने साथ छोड़ दिया, वे अकेले हो गए। क्या यही संसार है ?
दुर्गा कुंवर की आंखों में आंसू थे। वह बार-बार पार्वती को गले से लगा रही थीं। दासी सोना को बेटी को संभलाने के लिए समझा रही थीं। मुंशी चाचा का मन गद्गद था, पर गम्भीरता छायी हुई थी। जमाल सोच रहा था कि हेमू और पार्वती को लौट कर यहीं आना है। फिर आंखों में आंसू क्यों ? मां-पिताजी दोनों इतने विकल क्यों हैं ?
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