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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


बत्तीस



हरखलाल ने सुना कि पार्वती का विवाह निश्चित हो गया है। सोहनलाल को कहीं दौड़ना नहीं पड़ा। उसके आगे झुकना नहीं पड़ा। पं० गणेशीलाल कथा सुना रहे हैं। उनके शंख की ध्वनि तेज हो गई है। वे ही विवाह-संस्कार करायेंगे, वह तिलमिला कर रह गया। पं० गणेशीलाल को रोक नहीं सका। जाति-बन्धुओं को भड़का कर भी कुछ नहीं कर सका। इनका सब काम होता चला जा रहा है। वह भ्रष्ट-पतित मोहन...जमाल उसके व्यापार को भी चोट पहुंचा रहा है। वह क्या करे...क्या नहीं करे ! लगा कि उसका हृदय बैठ रहा है।

लक्ष्मी भवन में सेठ सोहनलाल, पत्नी दुर्गा कुंवर और मुंशी हरसुखलाल से विचार-विमर्श कर विवाह समारोह की तैयारी में लग गए। शरीर और मन-दोनों स्वस्थ हो चले हैं। पंडित गणेशोलाल प्रातःकाल पूजन के साथ कथा सुनाते और फिर समारोह की तैयारी में अपना परामर्श देते। सोहनलाल ने इसी क्रम में पूछा-'पंडितजी ! हेमचन्द्र तो शाही दरबार से जुड़ गया है। उधर भी निमन्त्रण जाएगा, कुछ दरबारी सरदार और वजीर भी आ सकते हैं।'

'अवश्य आयें, सबका स्वागत-सत्कार हो।'

‘पर वे तो तुरक-अफगान हैं।'

'वे केवल मंडप में नहीं बैठेगे। घर के भीतर भोज नहीं होगा, बाहर सब प्रबन्ध हो।'
'जी, हां ! आपसे पूछ लेना उचित था।'

'आपका मोहन...जमाल भी आ सकता है। वह भी मंडप में नहीं बैठ सकेगा, यह ध्यान में रहे।'
'वृन्दावन और गोवर्धन में आचार्य और सन्त सबको भक्ति का अधिकार दे रहे हैं। कुछ मुसलमान भी भक्ति में लीन हैं।'
'वे कर सकते हैं। मैं तो शास्त्र के नियमों से बंधा हूं, मैं उन नियमों में परिवर्तन नहीं कर सकता।'
'ठीक है, जैसा आप चाहें !'
दुर्गा कुंवर ने हेमचन्द्र को बुलाकर कहा–'हेमचन्द्र ! सबको न्यौता जा रहा है ?
‘जी, हां ! वृन्दावन और रेवाड़ी तो भेज चुका हूं। पड़ोस के गांवों में भी जा रहा है। अब इस नगर में भेजना है।'
'बेटे ! मोहन से मिलकर अपनी ओर से न्योता देना और मां की
ओर से विनती कर देना। पंडित जी ने मंडप में बैठने से मना कर दिया है, वे मंडप के सामने की कोठरी में बैठेंगे। उनकी आंखों के सामने मंडप रहे..भले ही वे आंगन-ओसारे में न रहें।

'अवश्य अनुरोध करूंगा, आज ही जाऊंगा। ये पंडित पुरोहित एक ओर अपने कठोर नियमों से लोगों को संभाल रहे हैं। दूसरी ओर जांत-पांत और बहिष्कार नीति से लोगों को दुत्कार भी रहे हैं। बड़ा अहित हो रहा है, शूद्र लोग दु:खी हैं। वे एक किनारे उपेक्षित जीवन बिता रहे हैं। कुछ लोग नये मजहब को अपनाकर दूर जा रहे हैं। एक खाई पैदा हो रही है।'

'इधर बहिष्कार है, उधर दबाव है। या तो घुट-घुटकर जीओ या कदर बन जाओ। क्या होगा मेरे मोहन का ?'

'घुट-घुट कर जीना है।'
'मैं ही अभागन हूं, बेटा !'
संध्या में हेमू सिकन्दराबाद के लिए निकल पड़ा। इलाहीबख्श के दौलतखाने पर पहुंचा। इलाहीबख्श ने नगर सेठ को मुबारकबाद दी। इत्र में रचा-बसा एक फाहा भेंट किया, आदर युक्त व्यवहार और सुगन्ध से उसका रोम-रोम तृप्त होने लगा।

इलाहीबख्श ने अवसर पाकर कहा-'हेमचन्द्र ! जमाल अहमद साहब को यहां कोई तकलीफ नहीं है, लेकिन वह दूसरे मकान में जा रहे हैं। अपने पैरों पर खड़ा होना चाहते हैं। अच्छी बात है, लेकिन यहां रहें। मैं तो मदद ही करूंगा...उन्हें जरा समझा दो।'

उसी समय जमाल अहमद आ गया। हेमू को देखा, घर के भीतर ले गया। नूरी पर्दे में चली गई, नाश्ते का इन्तजाम करने लगी। हेमू ने सिर झुकाकर विनम्र स्वर में कहा-'आज मैं मां जी का संवाद लेकर आया हूं, उनकी एक विनती है।'

'मां की विनती है !'
'जी, हां ! पार्वती जी का विवाह समारोह...।'
'अरे, वाह !.. कहां !! कब !!!...'नूरी, सुनना जी।'
'दशहरे के दिन प्रातःकाल ही आप दोनों को आ जाना है।'
'वर कौन है ? कहां का है ? इतना शीघ्र कैसे कुछ ?'
'जी...सबकी इच्छा रही। इस कृपा को स्वीकार कर लिया।' सिर जीचा कर हेमू ने उत्तर दिया।
एक क्षण के लिए जमाल चुप रहा, और फिर उल्लास के साथ वह बोल उठा---'तुम मेरी पारो के दूल्हे राजा हो ! लक्ष्मी भवन से लेकर बादशाह के दीवाने खास तक तुमने कुछ तंत्र-मंत्र कर दिया है ! मेरी मंगलकामना है, हेमचन्द्र !'

'आप दोनों को लक्ष्मी भवन आना है। आंगन के पास के कक्ष में बैठना है जिससे आप विवाह संस्कार देख सकें, आशीर्वाद दे सकें।'

'तो यह पंडित गणेशीलाल की व्यवस्था है?'

'पंडित जी की व्यवस्था तो भवन के बाहर जनवासा में है, जहां दरबार के अमीर-उमरा बैठेंगे, वह मां की व्यवस्था है। शाह हरखलाल के विरोध के बाद भी सब ठीक है।'

पर उस दिन तो मैं संध्या में अपने नये घर में जाऊंगा। सिकन्दराबाद के मोड़ के पास है, तुमको आना है।'
दोनों कार्य पूरे होंगे...मैं अवश्य आऊंगा।'

जमाल और नूरी ने आदर के साथ हेमू को विदा किया। दोनों उसे देखते रह गए—आश्चर्य और उल्लास के साथ। हेमू के पैर लक्ष्मी भवन की ओर बढ़ते गए।

लक्ष्मी भवन में रामायण कथा चलती रही। षष्ठी, सप्तमी और अष्टमी कथावार्ता और पूजा-हवन के साथ बीतती रही। विवाह संस्कार और भोज की तैयारी में सभी व्यस्त रहे। संध्या में ढोलक की थाप के साथ मंगल-गीत आरम्भ हो गया। नवमी की संध्या में संत पूरनदास, संत परमानंद, चौधरी नरवाहन और विजयवाहन के साथ गो० हितहरिवंश जी के पुत्र वनचन्द्र जी आ पहुंचे।

विजयादशमी नयी किरण और नीलकंठ दर्शन के साथ आ गयी। शहनाई का मधुर संगीत गूंजने लगा। रामकथा की पूर्णाहुति हवन के साथ हुई। शंखध्वनि आकाश तक जा पहुंची। आरती के बाद विवाह संस्कार का शुभारंभ हुआ। मंडप में हेमचन्द्र वर के रूप में सज-धज कर विराजमान हुआ। पार्वती वधू रूप में मंगलगीत की धुन पर बायीं तरफ आई। अक्षताशीष के साथ विवाह मन्त्र मुखरित हो उठा। हेमचन्द्र सोच रहा था कि रेवाड़ी से सबको आ जाना चाहिए।

शाही दरबार के वजीर और सरदार बादशाह की सौगात लेकर आए। बाहर जनवासे में उनका स्वागत-सत्कार होने लगा। नगर के प्रमुख व्यापारी और गांवों के किसान आ पहुंचे। सबका स्वागत हुआ, अन्त में रेवाड़ी से चाचा करणमल, पंडित धर्म पालशर्मा और चौधरी खेमराज, योगी शिवनाथ के साथ आ गए। शाह हरखलाल के मना करने के बाद भी जातिबन्धु आ गए थे।

जमाल नूरी के साथ प्रातःकाल ही आ गया था। मंडप के सामने वाले कक्ष में उसका आसन लग गया था। नूरी साथ ही बैठकर खिड़की से विवाह विधि देख रही थी। इन दोनों को देख कुछ स्त्रियां प्रसन्न थीं, कुछ अचरज कर रही थीं। धीरे-धीरे बात फैल गई, एकाध जातिबन्धु उठकर चले गए। हरखलाल अपनी छत से कुछ बोलने लगा। पर वृन्दावन के संतों, रेवाड़ी के योगी शिवनाथ और दरबार के सरदारों को देख अधिक बोल नहीं सका, बाधा पैदा नहीं कर सका। गणेशीलाल भी त्रुप रह गए, संतों और योगी के सामने आपत्ति नहीं कर सके।

नूरी बड़ी उत्कंठा से विवाह-समारोह को देख रही थी। मंगलगीत, मंडप की सजावट, वर-वधू का साथ बैठना और विवाह-कर्म-सब उसे रोचक लग रहा था। वर-वधू की प्रतिज्ञाएं और अग्नि के चतुर्दिक सप्तपदी-उसे बड़ी अच्छी लगी। गीत के साथ मांग में सिंदूर देते देखकर वह रोमांचित हो उठी। इस विवाह विधि में स्त्री की प्रतिष्ठा को देखकर वह बहुत खुश हुई।

विवाह विधि पूरी हुई। वर-वधू ने झुककर प्रणाम किए। आशीष के अक्षत शंखध्वनि के साथ बरस पड़े। उसी समय बादशाह की सौगात को हेमचन्द्र ने सहर्ष ग्रहण किया।

हेमचन्द्र सबको प्रणाम करता और आशीष पाता जमाल के पास आया, चरणों में झुका। जमाल ने हृदय से लगा लिया। नूरी पार्वती से गले मिली, सब भेदभाव विलीन हो गया। पंडित गणेशीलाल कुछ बोल नहीं सके।

और फिर भोजन-सत्कार शुरू हुआ।

सारे नगर में इस विवाह-समारोह की चर्चा रही। इसी चर्चा के साथ संध्या आ गई। लोगों ने देखा कि सिकन्दराबाद के मोड़ पर, जहां से किशनपुरा शुरू होता है, पूता-रंगा घर शहनाई के मधुर संगीत से गूंज रहा है। फूल-मालाओं से द्वार सजा हुआ है। द्वार पर संत पूरनदास, नवलदास, राजा परमानंद, धर्मपाल शर्मा और खेमराज के साथ योगी शिवनाथ उपस्थित हैं। सरजू थाली में अक्षत-फूल लिये खड़ा है। बुन कर शकील इत्र-फाहों के साथ मौजूद है। कुछ लमहों के बाद शहनाई वादकों की टोली के साथ जमाल नूरी के साथ आता दिखाई पड़ा। नूरी रंगीन बुरके में पीछे-पीछे चल रही थी। इलाहीबख्श, शायद मंझन मुल्ला और हेमचन्द्र साथ में थे। इस नजारे को देखने के लिए भीड़ इकट्ठी हो गई। कबीरपंथी साईंदास भी आ गए।

द्वार पर जमाल आ पहुंचा, योगी शिवनाथ ने फल-अक्षत बिखेर कर स्वागत किया। मुल्ला को अच्छा नहीं लगा, वह तीखी नजर से देखकर चुप रह गया, और वह शकील को इत्रफाहों से इस्तकबाल करते देखकर खुश हुआ।

जमाल ने नूरी के साथ घर में प्रवेश किया। जमीन पर झुका। फूल अर्पित किया। इलाहीबख्श मुल्ला की ओर देख रहा था, मुल्ला की आंखों में नाराजगी थी। दो लमहों के बाद अपनी नाराजगी को भूलकर मुल्ला ने अगरबत्ती जलाकर इबादत शुरू की। सभी उसके पीछे कायदे से बैठ गए, और फिर उसने कुरान शरीफ की आयतों का पाठ किया। दोनों को दुआएं दीं, और तब शर्बत से सबका स्वागतसत्कार हुआ।

शायर मंझन ने साईंदास को संकेत दिया। वे भजन गाने लगे। मुल्ला के कदम घर के बाहर हो गए। इलाहीबख्श मन मारकर बैठा रहा। शकील बुनकर को तो भजन अच्छा लग रहा था। साईंदास ने आशीष दी। मंझन ने भी अवधी में वन्दना करते हुए दुआएं दी, और कहा- 'जमाल मोहन ! अल्लाह और ईश्वर दो नहीं हैं। अलग-अलग देश की अलग-अलग भाषाओं के शब्द हैं। वह तो एक है, हम उस एक को पहचानें। उसे प्यार करें, उसकी सन्तानों को प्यार करें तभी वह खश होगा...उसकी मेहरबानी से तुम आगे बढ़ जाओगे।'

योगी शिवनाथ ने संयमपूर्ण गृहस्थ जीवन बीताने का उपदेश दिया।
नये घर के भीतर दीप जलने लगे।

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