लोगों की राय

ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य

हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

56 पाठक हैं

हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


इकत्तीस



लक्ष्मी भवन की दासी सोना कोठरी, ओसारा, आंगन, पूजा-घर हुलास की मदद से धो-पोंछ रही थी। प्रायश्चित और पूजन होने वाला था। पार्वती कुंवर मां की पूजा के लिए फूल लाने वाटिका में पहुंच गयी। उसका हृदय धड़कने लगा, वह सामने नहीं, नीचे देखती जा रही थी। कभी-कभी सामने भी देख लेती थी। हेमू गजराजसिंह को विदा कर द्वार से लौट रहा था।

गजराजसिंह छुट्टी लेकर घर जाने वाला था। वह अपने गांव के आसपास के क्षेत्र में फौजी भर्ती के लिए हिन्दू सैनिक परिवारों (राजपत परिवारों) से अनुरोध करेगा, उसे संवाद भी मिला था कि उसका चचेरा भाई गजेन्द्रसिंह बाजीगरों और नटों के पीछे-पीछे कहीं चला गया है, उसका पता नहीं चल रहा है।

पार्वती हेमू के कक्ष तक आ गयी। हेम् दिखायी पड़ गया, उसके पैर ठिठक गये। वह साहस बटोरकर बोल उठी। 'नगर सेठ को बधाई हो।'
'जी...! आपकी बधाई स्वीकार है।' हेमू ने ठिठककर उत्तर दिया, पर वह रुककर बातचीत करने का साहस जुटा न सका। वह धीरे-धीरे अपनी कोठरी में चला गया।
पार्वती फूल तोड़ती रही, कभी-कभी कोठरी की ओर देख लेती, धीरे-धीरे डलिया में फूल लिये लौट आई।

सोहनलाल और दुर्गा कुंवर प्रायश्चित के लिए पंडित गणेशीलाल शर्मा के सामने आ गए। पार्वती ने थाली में फूल, अक्षत, रोली, जल और धूप की व्यवस्था कर दी। संकल्प के साथ आठ घड़ी का पूर्ण उपवास होना था, समापन के साथ पंचगव्य का सेवन और पूजन होगा। इसके बाद ही रामायण की कथा हो सकेगी। पार्वती संकल्प के कर्मकाण्ड को देख रही थी। यन्त्रवत् सहयोग दे रही थी, पर उसका मन वाटिका में घूम रहा था।

संकल्प का कर्मकाण्ड समाप्त हुआ, अब वे दोनों अलग-अलग कंबल पर बैठकर उपवास करेंगे, साथ ही भागवत का पारायण करेंगे। पार्वती ने सोना की मदद से सारी व्यवस्था कर दी, वह अपने कक्ष में लेट गयी, पलकें बन्द हो गयीं। पर आंखों के सामने झलकने लगी-वाटिका की पुष्पगंधमयी क्यारियां और वह कोठरी। कोठरी के भीतर भस्मी का डिब्बा और डिब्बे के आगे झुका सहृदय पुरुष...हेमचन्द्र....। सुनहली धूप में तलवार का अभ्यास करता और उस रात में अपनी तलवार से उसकी
रक्षा करता। चीखती पार्वती को भरोसा दिलाता' 'हेमचन्द्र।

वह बुदबुदा उठी, कमल के समान कोमल हृदय वज्र के समान कठोर बांहें। बादशाह ने नगर सेठ का ओहदा दे दिया, वे दरबार के लिए नगर सेठ हैं। पारो के लिए हृदयदेव - प्रेमदेवता। उस पारो के लिए और इस पारो के लिए भी। पर वे मानेंगे ? उसने तो मान लिया है। पार्वती ने शंकर के लिए तप किया था। यह पार्वती भी शंकर (हेमचन्द्र) के लिए तप करेगी। कोई उसे रोक नहीं सकेगा।

सोना उसके कक्ष के पास आ गयी, मन्द स्वर में शब्द सुनायी पड़ रहे थे, वह सुनने लगी।

पार्वती बोल रही थी, 'पारो की भस्मी के आगे झुका हुआ हृदय क्या उसके पास आ सकेगा? वह भी पारो है। उसी भाव से ले आयेगी, वे बहुत दूर नहीं हैं। उन्होंने उस दिन सोना की बात का समर्थन कर कुछ कह दिया था। भाभी की सुन्दरता की तुलना उससे हो रही थी, और वे लजा गये थे, वह भी लजा गयी थी। लगता है कि उनके हृदय में वह स्थान पा गयी है। उसके हृदय में तो वे आ ही चुके हैं। लोग क्या कहेंगे. अपने लक्ष्मी भवन के एक कर्मचारी के प्रति ऐसा भाव ? मन पर वश नहीं रहा, भैया भी अपने मन पर वश नहीं रख सके।'

सोना ने यह सब सुना, मन की बात समझ गयी। मन-ही-मन मुस्कराती चली गयी।

दूसरे दिन आठ घड़ी का उपवास पूरा हुआ। स्नान-पूजन के बाद पं० गणेशीलाल के मंत्रोच्चारण के साथ सोहनलाल और दुर्गा कुंवर ने पंचगव्य लिया। प्रायश्चित का विधान समाप्त हुआ, पितरों को तर्पण भी दिया गया।

उल्लास के साथ पूर्णकलश पर स्थापित प्रज्वलित दीप के समक्ष पंडित गणेशीलाल जी ने रामायण कथा आरम्भ कर दी। शंखध्वनि गूंज उठी, यजमान दम्पति मनोयोग से मूलकथा के साथ भाष्य सुनने लगे। पार्वती भी साथ में बैठ गयी।

श्रीविलास के शाह हरखलाल की इच्छा थी कि पं० गणेशीलाल प्रायश्चित न कराएं। सोहनलाल के लक्ष्मीभवन में रामायण कथा न हो, और न कोई भोजन के लिए जाये, और वह ठठाकर हंसे। हेमचन्द्र नगरसेठ बनकर भी कुछ न कर सके। परिवार का सामाजिक-धार्मिक बहिष्कार हो जाय। पर यह सब नहीं हो सका, प्रायश्चित हो गया। कथा शुरू हो गयी, शंखध्वनि उसकी छाती पर चोट करने लगी। ऐसा लगा कि सेठ सोहनलाल उस पर हंस रहे हैं।

अपराह्न में विश्राम के समय दुर्गा कुंवर ने सुख-शांति की सांस ली। भगवान को धन्यवाद देती हुई बोल उठी-'सोना ! कैसा भाग्यचक्र है। बेटे के कारण लक्ष्मी भवन अशुद्ध हो गया था। मन ने ऐसा नहीं माना। पंडितजी के हठ के कारण प्रायश्चित करना पड़ा।

'पंडित जी बहुत कठोर हैं।' सोना ने कहा।

'धरम-करम चलाने के लिए कठोर होना पड़ता है। पर हमने कोई अधरम नहीं किया है तो भी मान लेना पड़ा। ये पुरोहितजी बेटा का प्रायश्चित नहीं करा सकेंगे ? यह तो अधूरा धर्मशास्त्र है। अधूरा क्यों रहा?'

इसी अधूरेपन से तो लोग तुरक बन रहे हैं ! धरमशास्त्र केवल डांटता है। डांटकर भगा देता है। भागे हुए को बुला नहीं सकता।'

'बेटी के ब्याह के लिए डांट सुननी है। क्या करें। उधर पड़ोसी शाह जी कूटचाल चल रहे हैं।'

'बिटिया दीदी के ब्याह के लिए इतनी क्यों घबरा रहीं है !'
'घबराएं नहीं! कैसी बात करती है, सोना !'
'कथा हो रही है। पूजा हो रही है, शंख बज रहा है, ब्याह का बाजा भी बजेगा।'
'ब्याह का बाजा बजना इतना सहज नहीं है, री !'
'सब सहज हो जायेगा, सेठानी जी !' यह कहकर सोना मन्द-मन्द मुस्कराने लगी।
'क्या बात है री? मुस्करा क्यों रही है ?'
'जी...क्या कहूं !'
'बोल, कुछ तो है।'
'पारो दीदी हेमचन्द्र जी को मन से मानने लगी हैं।'

दुर्गा कुंवर देखती रह गयी और फिर आंखें बन्द कर कुछ सोचने लगी, कुछ देर के बाद बोल उठी—'सोना ! सेठजी को मेरा संवाद दो।'

सोना घबरायी, वह समझ नहीं सकी कि उसकी बात का क्या फल होगा ? वह झटके से उठी, सेठजी को बुला लायी। सोहनलाल भी घबराए हुए आए, देखा कि पत्नी गंभीर मुद्रा में है। पास में बैठते हुए पूछा- 'क्यों, क्या बात है ?'

'पार्वती हेमू को मन-ही-मन मानने लगी। यह लोग इस घर में...क्या सोचते हैं ?

सोहनलाल के मुख पर गंभीरता छा गयी और फिर चिन्ता की रेखाओं ने मुख को घेर लिया। आंखें ऊपर उठीं, छत की कड़ियों को देखने लगीं। ये प्रेम-रोग कैसे हो जाता है ? सेठ की बेटी, उधर संतजी का धनहीन पुत्र लक्ष्मीभवन का कर्मचारी नौकर ! पर इसने बेटी की रक्षा की है, यह तो उसका कर्म था। वह राजधानी में सबका सिरमौर बन गया है। दरबार में स्थान पा गया है। अब वह साधारण नहीं रहा। पर है तो वह नौकर, अब वह नौकर नहीं रहा। पारो उसे मानने लगी है। इसे डांटकर मन के भाव को मिटा दिया जाय ? क्या यह संभव है ? उसे डांटा जाय ? वह तो भस्मी के डब्बे के सामने झुका रहता है। मन से बड़ा कोमल है। प्रेम मन को कोमल बना देता है। क्या वह भी पारो को मानने लगा है ? क्या यह उचित है ? सुखी तो हो सकते हैं, बेटी का सुखी होना बड़ी बात है। दरबार में सम्मानित हेमू पर कोई उंगली नहीं उठा सकता, पर कैसे ?

'सुनिए ! आप हेमचन्द्र के हृदय को टटोलें।'

'हां, दुर्गा ! मैं बेटी को सुखी देखना चाहता हूं। पहले लोग हंसते थे। अब कोई नहीं हंसेगा। हरखलाल के षड्यन्त्र का भी उत्तर देना चाहता हूं। उसे अपने कुरूप चेहरे को छिपाना पड़ेगा।'

संध्या के सूर्य की किरणों ने सिन्दूरी रंग बिखेर दिया। घोंसले की ओर लौटते हुए पंछी आकाश में उड़ान भर रहे थे। किशनपुरा के लक्ष्मीभवन में सोहनलाल ने केवड़े से सुवासित कर शर्करोदक तैयार कराया और हेमू को बुला भेजा। थोड़ी देर के बाद हेमू आया। सोहनलाल ने बड़े स्नेह से बैठाया। शर्करोदक पीने के लिए अनुरोध किया। स्वयं भी लिया, मधुर स्वाद से तृप्त होकर कहा- 'क्यों हेमचन्द्र ! कैसा बना है ?

'शीतल और मधुर !'
'राधावल्लभ जी की कृपा से सब मधुर होता जा रहा है, हेमू !'
'जी, हां!'
'एक बात और है।'
'जी, वह क्या ?'
'तुम बड़े भावुक जीव हो। स्वर्गवासी पारो की स्मृति के साथ जीना सच्ची भावुकता है, प्रेमभावना है।'
'जी, मन की भावना है !'
‘परन्तु जीवन लम्बा है, हेमचन्द्र ! किसी के साथ जीवन के पथ पर चलना पड़ेगा। मेरी बेटी तेरे लिए तप कर रही है। तुम उसे पारो मान लो, वह पारो की स्मृति को जगाये रखेगी।'
'यह आप क्या कह रहे हैं ? कहां आप...कहां मैं ?'
'हां, मैं कह रहा हूं। संतजी का पुत्र संत है, सूरमा है और अब हम सबका सिरमौर है। सबसे ऊपर पार्वती का महादेव बन गया है। दोनों के बीच में मैं बाधक नहीं बनूंगा।'
यह कहकर सोहनलाल ने हेमू का हाथ थाम लिया। आंखों में अनुरोध का भाव छलक उठा।

हेमू ने अनुरोध के भाव को पढ़ा। उसका शीश झुक गया। पार्वती के व्यवहार को समझने लगा था। अपने बढ़ते आकर्षण को महसूस कर रहा था। उसकी आंखें ऊपर उठीं। सेठ जी की आंखों में आंसू की बूंदें दिखायी पड़ी।

हेमू बोल उठा-'सेठ जी ! आपने मुझे इतना ऊपर उठाया है। आपका इतना स्नेह मुझे मिल रहा है। मैं ठुकराने का साहस नहीं कर सकता, आपकी आज्ञा सिर आंखों पर'..!'
सोहनलाल ने उसे हृदय से लगा लिया, और कहा- 'दशहरे के दिन पूर्णाहुति के बाद संस्कार सम्पन्न हो जाय। जितना सम्भव हो.. वृन्दावन, रेवाड़ी और इस नगर के प्रमुख लोगों को निमन्त्रण देना है। पड़ोस के गांवों के किसानों को निमन्त्रण मिलना चाहिए। यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा यज्ञ होगा।'

हेमू ने शीश झुकाकर आदेश को स्वीकार किया। और उसका मन पार्वती की बधाई के शब्दों के माधुर्य का आस्वादन करने लगा। आस्वादन करता हुआ वह अपने कक्ष में लौट गया।

कक्ष में भस्मी का डिब्बा दिखाई पड़ा, वह डिब्बे के पास पहुंचा। उसे हृदय से लगा लिया। पलकें बन्द हो गईं। बन्द पलकों में पारो झलक उठी। वह बुदबुदाया- 'मैं तुझे भूल नहीं सकता, हृदय से दूर नहीं कर सकता।

पारो की झलक पार्वती में बदल गई। उसने सुना-'मैं भी पारो हूं। मुझे आप पारो ही समझें।'
'वह तो चिता की राख बन गई थी। मैं ऐसा नहीं कर सका था। हेमू बुदबुदा रहा था।

'मैं नाम से...भाव से पारोही हूं।...आपने तो मेरी रक्षा की थी।'

'क्या यह मेरा आकर्षण ही है या केवल धर्म-कर्म...जिससे मैंने रक्षा की?

'मेरे हृदय के भाव ने आप तक पहुंचने का प्रयत्न किया है।'

'लगता है कि आकर्षण भाव बन चुका है। वचन भी दे दिया है। पर पारो ही समझूंगा।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book