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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


तीस



सिकन्दराबाद में यह खबर सड़क-सड़क और गली-गली फैल गयी। जमाल ने सुना, बहुत खुश हुआ। क्षणभर के लिए लगा कि उसे ही सम्मान मिला है। सहसा उसके भीतर कुछ कौंधा। वह सोचने लगा कि क्या यही भाग्य-लेख है ? सेठ सोहन लाल का पुत्र वह है। पर नगर सेठ का सम्मान हेमचन्द्र को मिला, लक्ष्मीभवन के एक कर्मचारी को यह ओहदा मिल गया। यह भाग्य का कैसा चक्कर है ! उसने हिन्दू के रूप में सम्मान पा लिया। वह जमाल अहमद बन कर भी घुट रहा है। मथुरा में उसके कुल-परिवार का स्मरण कर लोग अशुभ बोल बोल रहे थे। उसकी निंदा कर रहे थे, वह पहचान के डर से चला आया। और यहां उसके घर पर उसकी बहन पर सरवर ने हाथ डाला। लगता है कि वह न घर का रहा न घाट का, यह तो संयोग की बात थी कि हेमू ने साहस से सरवर को पकड़ लिया। सदर काजी ने इंसाफ कर दिया। नहीं तो सरवर और उपद्रव कर सकता था, आगे भी कर सकता है-कैदखाने से रिहा होकर।

कुछ लोगों ने सरवर के लिए पैरवी की थी। यह पक्षपात था." हेमचन्द्र के सम्मान पर भी ये खुश नहीं हैं क्योंकि वह काफिर-हिन्दू है। ओह अजीब दिल-दिमाग है। चूंकि वह जमाल अहमद बन गया है, इसलिए उसे प्यार दिया जाता है। यह मजहबी प्यार है, पर नूरी का प्यार हृदय से प्रकट हुआ है।

हेमू बुद्धिमान है, साहसी है, शस्त्रधारी भी है। उसने बादशाह को सही सलाह देने की कोशिश की। बादशाह ने माना, कामयाबी मिली। इसीलिए उसे सम्मान मिला, वह बेकार ईर्ष्या कर रहा है। ईर्ष्या उचित नहीं है, यह जरूर है कि हेमू सेठ सोहनलाल के जरिए बादशाह तक पहुंच सका है। सेठ का पुत्र तो भटक रहा है, यह बुद्धि की करामात है या भाग्य की? कुछ भी हो, हेमू को बधाई मिलनी ही चाहिए।

अचानक नूरी ने आकर पूछा-'हुजूर ! उधर गुलों ने चादरे-शबनम में मुंह लपेट लिया है, इधर लबों पर कलियों की मुस्कराहट सो गई है। बात क्या है ?'

'आओ, नूरी ! बात यह है कि उषा की लाली देख कर ही कंवल मुस्कराता है।'

'आंखों में तो फिक्र की लकीरें झलक रही हैं।'

'अरे भई ! हेमचन्द्र को शाही दरबार में जगह मिल गयी है। मैं सोच रहा हूं कि लक्ष्मीभवन के नौकर की किस्मत से डाह करूं या उसे बधाई दूं।'

'उसे मुबारकबाद दें...."डाह क्यों ? मेरी ओर से भी...।'

'दूर एक गांव से आया हुआ आदमी इतना आगे निकल गया... और मैं आंखें फाड़कर देख रहा हूं।'

'यह तो फल की बात है कि सेठ जी के नुमाइन्दे को दरबार में जगह मिली है। आपको बधाई देने जाना है।'

'कहती हो तो जरूर जाऊंगा।'

सुबह जमाल किशनपुरा जाने के लिए तैयार होने लगा। वह नूरी से मिलकर चल पड़ा, गलियों से होता वाटिका के द्वार पर आ पहुंचा। हेमू गजराज सिंह के साथ शस्त्राभ्यास कर रहा था। मुंशी हरसुख लाल का पूजापाठ चल रहा था। उसने द्वार पर आवाज दी, द्वार तो खुला ही था। वह भीतर आ गया, हेमू के शस्त्राभ्यास को देखा। उसे थोड़ा अचरज-सा हुआ। बाद में समझ गया कि हेमू योद्धा कैसे बन गया ! इतना साहसी कैसे हो गया ! वह देखता रहा, थोड़ी देर के बाद शस्त्राभ्यास पूरा हुआ। पसीने से लथपथ हेमू ने जमाल अहमद को देखकर प्रणाम किया। जमाल ने उसके जुड़े हुए हाथों को अपनी हथेलियों से थामकर कहा- 'हेमचन्द्र ! मेरी बधाई स्वीकार करो। नूरी ने भी मुबारकबाद दी है।'

'यह तो आप दोनों की मंगल कामना का फल है।' हेमू ने उत्तर दिया।

'हेमचन्द्र ! तुमने मेरी बहन की रक्षा की है। मैं तो कुछ नहीं कर सका। मन को बड़ी चोट लगी है, मैं तुम्हारा कृतज्ञ हैं। और तुमने पहली बार अफगान हुकूमत में हिन्दू के रूप में सम्मान पाया है। यह बहुत बड़ी बात है, मैं तो जमाल अहमद बन गया हूं। पर खून तो वही है। खून और खून के सम्बन्ध को तोड़ा नहीं जा सकता। इसे तोड़ना मनुष्यता के विरुद्ध होगा।'

'आप सही ढंग से सोच रहे हैं। सभी हिन्दी मुसलमानों को इसी ढंग से सोचना चाहिए। लोग चाहें तो कबीर की वाणी से प्रकाश मिल सकता है। राम-रहीम और कृष्ण-करीम का पथ दिखाई पड़ सकता है।'

'यह रास्ता मिल जाय तो चैन मिले।'

'हिन्दी मुसलमानों के लिए यही रास्ता सही है।'

'इस रास्ते पर चलने के लिए रोटी का प्रबन्ध हो जाना चाहिए। कर रहा हूं।'

'वह आप संकल्प और परिश्रम से कर लेंगे। और फिर निर्भीकता के साथ अपने घर में बसें।'

'बहिष्कार और दबाव--दोनों से बचने के लिए यही करना पड़ेगा।'

'आपकी शंका उचित है। बहिष्कार करने वाले पंडित-पुरोहित सोचते हैं कि बाहर से आया हआ मजहब हमलावरों के साथ आया है। ये हमलावर रक्तपात करते हैं। गुरुकुलों, मन्दिरों और मठों का विध्वंस करते हैं। ये जुल्मी बनकर शासन करते हैं, इस नये मजहब वालों का खान-पान और रहन-सहन हमसे अलग हैं। हमारे आदर्शों से भिन्न हैं। इसलिए इनसे दूर रहो, जो कोई इनके निकट पहुंच जाता है, उसका बहिष्कार कर दिया जाता है। वैसे भी पडित-पुरोहित -सबको अनगिनत नियमों-रूढ़ियों में बांधे चलते हैं।'

'इन मुल्लाओं का दबाव क्यों है ?'

'एक नये मजहब का जोश है। यह सामूहिक उपासना का मजहब है, एक पैगम्बर साहब और एक पवित्र ग्रंथ के आदेशों का मजहब है। ये सारी दुनिया से कुफ्र को मिटाने और अपने मजहब को फैलाने निकले हैं। अतः ये किसी से समझौता नहीं करते, दबाव से काम लेते हैं।'

'सूफी तो दबाव नहीं डालते।'

'हां, सूफी सन्त और कबीरपंथी साधु बीच का रास्ता निकाल रहे हैं। वे समझते हैं कि सैकड़ों वर्षों से साथ-साथ रहने के बाद इतनी दूरी क्यों रहे ? तालमेल जैसे मार्ग को ढूंढ़ना चाहिए। राम और रहीम की एकात्मता तथा एकता का एहसास होना चाहिए।'

'इनका सोचना तो सही है।'

'जी, हां !' यह कहकर हेमू ने घर के भीतर संवाद भेजना चाहा। पर जमाल ने रोक दिया। वह बधाई देकर निकल गया। हेमू देखता रह गया।

गजराज सिंह इन दोनों की बातें सुन रहा था। जमाल चला गया, पर वह सोचता रहा। कलेवा आया, दोनों कलेवा करने लगे। गजराज सिंह ने कहा-'हेमचन्द्र ! आप बहुत दूर तक सोचते हैं। सही सोचते हैं।'

'आपकी मंगलकामना है।'

'मेरी शुभकामना है कि आप प्रजा की ओर से आगे बढ़ते जायें। मेरी तलवार आपके साथ रहेगी।'

'नहीं, गजराजसिंह ! हम सबकी तलवारें इस धरती मां के लिए हैं। हिन्दू योद्धा इस सत्य को सर्वदा स्मरण रखें। अफगान बादशाह को प्रजा के पास आना है, और दोनों को मिलकर मुगलों से जूझना है।'

'यह संदेश हरेक योद्धा के पास पहुंचेगा। आप दरबार में रहकर बादशाह और प्रजा को अनुकूल बनाएं।'

'यही होना है, इतिहास बदलेगा।'

लक्ष्मीभवन के अपने कक्ष में सोहन लाल सोच रहे हैं कि हेमू तो गेहूं-चना-ज्वार-बाजरा बेचते बादशाह तक जा पहुंचा। दरबार में स्थान पा लिया, सबका सिरमौर बन गया। कल संध्या में बधाई देने वालों का तांता लग गया था। ऐसा लग रहा था कि उन्हें ही बधाई मिल रही है। पर पड़ोसी चचेरे भाई साहब हरखलाल नहीं आये। जलते रहे हैं, जलते ही रहेंगे। नीचा दिखाने की कोशिश करते रहे हैं, मोहन के जमाल बन जाने पर इनको अवसर मिल गया। पंडितजी के कान भरते रहे हैं। अब वे संभलकर कुछ करेंगे, हेमचन्द्र की बुद्धिमत्ता और निर्भीकता से प्रतिष्ठा बढ़ी है। हरखलाल पर प्रभाव पड़ा होगा। पंडितजी को संवाद भेजा है, उन्हें आना चाहिए, नहीं आयेंगे तो वे स्वयं उनके पास जायेंगे। हेमू ही जाएगा अब हेमचन्द साधारण व्यक्ति नहीं है, उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती।

बाहर से पैरों की आहट आयी। द्वार पर खट-खट् के शब्द हुए। पंडित गणेशीलाल शर्मा के आगमन का अनुमान हुआ। वे उधर उन्मुख हुए, हुलास ने द्वार खोला। पंडित गणेशी लाल को कक्ष में पहुंचाया। सोहनलाल ने सादर बैठने के लिए अनुरोध किया। हुलास ने दुर्गा कुंवर को सूचना दे दी। वे फौरन शीश झुकाए आ गयीं। पंडितजी ने सबको आशीष दी। दोनों के शीश झुके, पंडित गणेशीलाल गम्भीर बने रहे। कई क्षणों तक चुप्पी छायी रही। क्या कहा जाय, कैसे कहा जाय !

दुर्गा कुंवर ने अपने पति की ओर देखा। सेठ सोहनलाल ने आंखों से ही संकेत किया कि वे ही कुछ बोलें। दुर्गा कुंवर ने हाथ जोड़कर कहा-पंडित जी ! दशहरा आ रहा है, रामायण की कथा होती रही है। आप से विनती है कि आप...।'

'अवश्य होनी चाहिए। पर आपका पुत्र धर्म-भ्रष्ट हो चुका है। समाज से पतित हो चुका है, वह धर्म-भ्रष्ट और पतित यहां आता रहा है। अब यह लक्ष्मीभवन अशुद्ध है, अनुष्ठान कैसे सम्भव है ?' 'पंडित गणेशीलाल ने गम्भीर स्वर में उत्तर दिया।

'पंडित जी ! यह तो कलि का प्रभाव है और हमारा दुर्भाग्य है, हम बहुत दुःखी हैं। भगवान राम तो निषाद से गले मिलते हैं, शबरी के जूठे बेर खाते हैं, वे अपने भक्तों को बिसार नहीं देते।'

'मैं भगवान नहीं हूं, शास्त्र के अनुसार चलने और चलाने वाला पुरोहित हूं। निषाद भ्रष्ट नहीं था, केवल निम्न वर्ण का था। भगवान की दृष्टि में ऊंच-नीच का मोल नहीं है। उनके लिए सभी समान हैं। इसलिए उन्होंने अपनाया।'

'अजामिल और गणिका को उन्होंने तार दिया था। मोहन का भी उद्धार करेंगे, वह प्रायश्चित करने को तैयार है, पंडित जी !'

'इस प्रायश्चित का विधान मेरे पास नहीं है, सेठानी !'
'तब फिर हम क्या करें?' सोहनलाल ने हताश होकर कहा।
'आप दोनों को पहले प्रायश्चित करना होगा और तब इस भवन में कथा पूजा हो सकेगी। आगे दीपावली की पूजा भी हो सकेगी।'
'बच्चे को दुत्कार कैसे दें ! वह तो धर्म और समाज की गोद में में आना चाहता है।'
'तुरकन से ब्याह और धर्म दोनों साथ नहीं चलेंगे, सेठजी !'
'सुना है, पंडितजी ! कि चाणक्य पंडित ने चन्द्रगुप्त का ब्याह तुरकन या यवनी से कराया था। शास्त्र में तो अवश्य विधान होगा।'
वे समर्थ थे। मैं उतना समर्थ नहीं हूं, आपको प्रायश्चित करना है। भ्रष्ट पुत्र के साथ उठना-बैठना और खान-पान नहीं होना चाहिए। नहीं तो कन्या का विवाह भी नहीं हो सकेगा। यह ध्यान में रहे, शाह हरखलाल बोल रहे थे।'
'वे तो जलते हैं। ईर्ष्या-द्वष से ऐसा बोल रहे हैं।'
'ईर्ष्या हो सकती है। पर बात तो सही है, भ्रष्ट परिवार की कन्या से कोई कैसे विवाह करेगा?'
'मेरी बेटी ने कोई अधर्म नहीं किया है। आपको तो सोचना चाहिए।' दुर्गा कुंवर ने सिसकते स्वर में कहा।
'एक व्यक्ति की समस्या नहीं है। कुल-परिवार और समाज की मर्यादा की समस्या है।'
‘एक की त्रुटि सबकी त्रुटि नहीं हो जाती। आप विचार करेंगे।'
'यह त्रुटि नहीं है। यह तो धर्म भ्रष्ट होकर समाज से अलग हो जाना है। आप लोग कन्या के विवाह तक उससे दूर रहें। पतित पुत्र से क्या मोह-माया?'
'आप हरखलाल को समझा दें, वे ईष्यविश उपद्रव खड़ा न करें।'
'मैं समझा दूंगा, आप प्रायश्चित करने को तैयार हों तो मैं आ जाऊं।'

'जैसी आपकी आज्ञा हो।' पति-पत्नी एक साथ बोल उठे।

पंडित गणेशीलाल शर्मा गंभीर मुद्रा में मंगल कामना करते हुए चले गये। इन दोनों के मन का भार कुछ कम हुआ, पर वे जो चाह रहे थे, वह तो नहीं हो सका, बेटी के लिए यह सब करना पड़ेगा।

इसी चिंता में संध्या आ गयी। आसपास से संवाद मिला कि हरखलाल जाति बंधुओं के साथ विचार-विमर्श कर रहा है।

सोहनलाल की चिंता बढ़ने लगी। घंटे भर के बाद विचार-विमर्श का विवरण भी मिल गया। 'यदि सोहनलाल विधिवत् प्रायश्चित् नहीं करते और सबसे क्षमा नहीं मांगते, तब तक कोई इनके यहां भोजन नहीं करेगा। विवाह की बातचीत भी नहीं चल सकेगी।

यह भी पता चला कि दो-चार लोगों ने इस निर्णय का विरोध किया है। वे सेठ सोहनलाल और शाही दरबार से सम्मानित हेमचन्द्र को आदर दे रहे थे, पर निर्णय होकर रहा।

सोहनलाल चिंता और क्रोध में कुछ बोल नहीं सके। वे छत और दीवार को देखते रहे, आलोकपात्र में जलती बत्ती पर पतंगे उड़ रहे थे। कुछ जल रहे थे, इच्छा हुई कि बत्ती को बुझा दें और पतंगों को भगा दें।

यह सब हरखलाल की कुटिलता है। प्रायश्चित तो होना ही है। कथा-पूजा के बाद देखा जायगा।

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