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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


दो



पूरब की लाली देख पंछी कलरव करने लगे। देवली गांव का सारा आकाश पंछी समूह के कलरव से गूंज उठा। आकाश के नीचे घर-घर से बूढ़ों का भजन सुनाई पड़ने लगा। उधर नाथपंथी मठ में गोरखनाथ की वाणी का पाठ शुरू हुआ।

हेमचन्द्र (सबका हेम) कन्धे में झोली लटकाए घर से निकला। द्वार पर खड़े वाचा करणमल के चरण छुए। पड़ोस के द्वार खल गए। सबको झुककर प्रणाम किया। उसी समय उसके मित्र धर्मपाल शर्मा और चौधरी खेमराज आ गए। डबडबाई आंखों में विदाई का भाव लिये पास आए। हेमू अपने को रोक नहीं सका। वह उनसे लिपट गया। कुछ क्षणों के लिए समय का रथ मानो रुक गया। केवल हृदय की धड़कनों की गति का अहसास होता रहा। आकाश में पंछियों के गीतों के साथ-साथ नाथपंथी मठ से आता एक स्वर मंडरा रहा था-

गगन सिषर महि सबद प्रकास्या,
तहं बुझै अलष विनांणी।

थोड़े-सी देर के बाद श्रृंगी की ध्वनि सुनाई पड़ी। हेमू ठिठक गया। धर्मपाल और खेमराज उधर ही देखने लगे। हेमू की आंखों के आगे योगी शिवनाथ और उनके त्रिशूल झलक उठे।

श्रृंगी की ध्वनि बन्द हुई। गांव के युवक शूल लिये उधर जाने लगे। हेमू देखता रहा। धर्मपाल और खेमराज ने सोच लिया कि आज वे नहीं जाएंगे।। हेमू बोल उठा- 'योगी का बुलावा आ गया। अब दोनों को उधर जाना है। मेरी ओर से क्षमा मांग लेना, धर्मपाल !'

'आज तो हम हेम को विदा करेंगे। धर्मपाल ने खेमराज की ओर देखकर कहा।

खेमराज ने सिर हिला दिया। दोनों साथ-साथ चलने लगे।

'हम जीवन भर साथ-साथ चलेंगे, धर्मपाल ! पर शस्त्रों का अभ्यास जरूरी है।' हेमू ने समझाया।

'कहो तो हम मथुरा भी साथ-साथ चलें। तीर्थ भी हो जाएगा।' खेमराज ने प्रस्ताव कर दिया।

अभी पहला धर्म शस्त्रों का अभ्यास है, खेमराज! दोनों को रुकना है। नहीं तो सारे नौजवान बैठ जायेंगे। हेमू ने प्रस्ताव को बड़े स्नेह से ठुकरा दिया।

दोनों मान भी गए। दोनों गांव की सीमा तक हेमू के साथ गए। हेम् ने उन्हें लौट जाने का अनुरोध किया। दोनों आधे मन से लौटे। पर वे बार-बार पीछे देख लेते थे। हेम् की आंखें भी पीछे मुड़ जाती थीं। आंखें मिलती थीं। आंखों में अलग होने का दर्द छलक उठता था। क्षण भर के लिए पैर रुक जाते थे। फिर दूसरे क्षण चाचा को फटकार गूंजने लगती थी। तीसरे क्षण हेमू को लगता था कि वृन्दावन में पिताजी प्रतीक्षा कर रहे हैं। वहां पहुंचना है। अब रुकना नहीं है। चलते जाना है। और उसके पैर चल पड़े। धूप निकल आई थी।

हेमू ने देखा कि पश्चिम की तरफ बादल के टुकड़े मंडराने लगे हैं। उधर ही तो पारो का गांव है। दो वर्ष बीत गए। उसे बसंत के मेले में देखा था। उसने भी देखा था। अपनी सहेलियों के साथ थी। उसका भाई भी था। उसने कुछ समझा था। ब्याह की बात चली। बात पक्की हो गई थी। मन में बड़ा उत्साह था। मेले की एक झलक आंखों की उपासना बन गई थी। धर्मपाल और खेमराज दिन-रात विनोद करन लगे थे। लगता था कि जीवन के सरोवर में कमल खिल उठा है। भौंरों का गुंजन शुरू हो गया है। हंस अपने सुनहले डैने समेटे तट पर आ गए हैं। कभी लगता था कि वह वसंत के मेले में पारो के साथ घूम रहा है। शहनाई वाले ने उन दोनों को घेर लिया है। शहनाई के संगीत में वे दोनों बंध गए हैं। मेले की भीड़ नहीं रह गई है। केवल वे दोनों ही हैं और शहनाई के सुर हैं।

सहसा समाचार मिला कि अफगान बादशाह सलीमशाह सूर का सरदार खवास खां बागी बनकर पंजाब की ओर जा रहा है। वह गांव को उजाड़ता चला गया। उसके सिपहसालार ने पारो को पकड़ना चाहा। उसने उसी के खंजर से आत्महत्या कर ली। खून और मिट्टी ने
पारो को ढक दिया। खवास खां चला गया। उजड़े हुए गांव में प्राणहीन शव पड़े हुए थे। मनहूस सन्नाटे में चीख फैल रही थी। वह दौड़कर गया, साथ में धर्मपाल और खेमराज थे। चारों तरफ सन्नाटा था। खून से लथपथ लाशें थी। प्राणहीन पारो का मुखड़ा कुछ कह रहा था। उसने साहस के साथ अपनी प्रतिष्ठा बचा ली थी। उसके अंतरमन ने चाहा कि वह इस साहस पर न्यौछावर हो जाए। उसे फूलों से सजा दे, और आंखों के सामने से ओझल न होने दे।

चिता धधक उठी। उसका हृदय भी धधकने लगा। वह कभी आगरे की ओर अपनी आग को उड़ेल देना चाहता था। और कभी लाहौर की ओर। पर चिता की आग में केवल पारो जल रही थी। लपटें ऊपर उठीं। लेकिन लाहौर और आगरा दोनों बहुत दूर थे।

वह धर्मपाल और खेमराज के साथ चिता की राख लेकर लौट आया। उसकी आग को चाचा जी समझ नहीं सके। उसकी उदासी को पढ़ नहीं पाए। समझाते जरूर थे। वह समझ नहीं पाता था। दिन कट रहे थे। धर्मपाल और खेमराज बातचीत से मन को बहलाने का यत्न करते थे। यह गांव भी उजड़ चुका है। हुमायूं और शेरशाह की लड़ाई के समय उनकी फौज ने इसे रौंद दिया था। गरीब गांव क्या करता ! आह भरकर रह जाता। युद्ध और उसके विनाश को भूला नहीं जा सकता। युद्ध की छाप गांव के जीवन पर ऐसी पड़ती कि बरसों तक इसे कोई मिटा नहीं पाता।

शाही फौज, घोड़ों की टापें, नगाड़े, बेरहम तीर-तलवारों का टूट पड़ना, मौत की चीखें और गांव का विनाश इनसे बचाव कैसे हो ? यह जीवन की कठोर सच्चाई है। पारो कितनी पारों का अपहरण या मृत्यु का आलिंगन · खेती-व्यापार का उजड़ जाना गांव छोड़कर भागना-यही भाग्यलेख बन गया है। इस भाग्यलेख से टकराने के लिए अपने गांव में नाथपंथी मठ के मैदान में गांव के नौजवान शूल का अभ्यास करने लगे हैं। योगी का त्रिशूल सबमें विश्वास पैदा करने लगा है। कुछ लोग इसे बचकानी बात समझ रहे है। कुछ इसे संकट का बुलावा मान रहे हैं। पर योगी शिवनाथ त्रिशूल उठाकर नौजवानो का स्वागत करते हैं। कितना अच्छा लगता है।

वह वृन्दावन जा रहा है गांव छोड़कर। उसका मन भटकता रहा है। चाचा जी उसके मन को समझ नहीं पाते। उनकी अपनी समस्या है। अपना संसार है। वे अपनी सीमा में बन्द हैं। वे भी क्या करें!

सूरज शीश पर चमक रहा था। किसान खेत में हल चला रहे थे। कुछ पेड़ों की छाया में बैठकर विश्राम कर रहे थे। आषाढ़ का दूसरा पक्ष था। एक बार वर्षा हो चुकी थी। बादलों का आना-जाना चल रहा था। हेमू ने देखा कि वह बड़ी सड़क पर आ गया है। इसे ही 'सड़के-आजम' कहते हैं। इसे शेरशाह ने बनवाया था। यह सड़क आगरा की ओर जा रही थी। शायद यही सड़क मथुरा की ओर भी जाएगी। वह आगे पूछ लेगा। वह थकान और भूख महसूस कर रहा है। सामने सराय है। पेड़ों की सघन छाया है।

हेमू सराय के दरवाजे पर पहुंच गया। वह अफगान बादशाह शेरशाह के इन्तजाम को अपनी आंखों से देखने लगा। दूर तक लम्बी सड़क है। दोनों ओर पेड़ हैं। सराय में आराम हो सकता है। साथ में डाक घर है। घोड़े पर हरकारा डाक ले जा रहा है। दूसरा घोड़ा भी मौजूद है। सराय के भीतर यात्री विश्राम कर रहे हैं। उसे यह बड़ा अच्छा लगा। वह भी सराय के भीतर जाने लगा। दरबान ने उससे पूछताछ की। उसे ठहरने की जगह मिल गई। वह सराय के पीछे हरे-भरे बाग में कुएं पर पहुंचा। उस कुएं से पानी भर कर हाथ-पैर धोये। वहीं एक यात्री से मालूम हुआ कि यह सराय नयी-नयी बनी है। बादशाह सलीमशाह सूरी ने बनवाई है। यहां भोजन का भी प्रबन्ध है। परन्तु वह तो अपनी झोली में रोटी-साग लेकर चला था। उसे हिन्दुओं के भोजनालय से रोटी-दाल की जरूरत नहीं थी।

हेमू ने थोड़ा विश्राम कर भोजन किया। फिर सराय के कोने में गमछा बिछाकर लेट गया। झपकी लग गई। पास में बनी मस्जिद से अजान की आवाज आई। वह उठ बैठा। आसपास अनेक यात्री खर्राटे भर रहे थे। उनमें से कई एक अजान की आवाज पर उठ बैठे। वह कुएं पर गया। शीतल जल पीकर तृप्त हुआ। फिर अपनी यात्रा पर चल पड़ा।

कभी बादलों की छाया और कभी पेड़ों की छाया से गुजरता हेम आगे बढ़ता गया। आगे की सराय में पूछताछ कर उसने रास्ता बदल लिया। अब वह मथुरा की राह पर चल पड़ा। मथुरा-वृन्दावन की ओर जाने वाले तीर्थ-यात्रियों के छोटे-बड़े झुंड दिखाई पड़ने लगे। वह भी उनके साथ हो गया। पुरुषों से सुरक्षित घेरे में स्त्रियां चेहरा छिपाकर चल रही थीं। वे बूढ़ी और अधेड़ उम्र की स्त्रियां थीं। चूंघट में ही श्रीकृष्ण का नाम ले रही थी। कुछ भजन गा रही थीं। पुरुषों के हाथ में झांझ-करताल के साथ डंडे भी थे। कन्धे पर झोले थे। कुछ के सिर पर कम्बल-बिछावन थे। ये झुंड चारों ओर देखते हुए और सुरक्षा का ध्यान रखते हुए चल रहे थे।

कोई कह रहा था- वृन्दावन में भक्तों का संगम है। कोई बता रहा था-गोकल-गोवर्धन में सन्तों का समागम है। कोई वल्लभाचार्य और सूरदास का नाम ले रहा था। कोई हितहरिवंश की प्रशंसा कर रहा था। एक ने हितहरिवंश का पद गुनगुनाना शुरू कर दिया। दूसरे ने सूरदास के पद को गाना आरम्भ कर दिया।

हेमू की उत्कण्ठा बढ़ गई। वह एक नये लोक में पहुंच रहा था। मथुरा, वृन्दावन और यमुना जी...और उस पार गोकुल, गोवर्धन, बरसाना श्रीकृष्ण की लीलाभूमि। सचमुच पिताजी भाग्यशाली हैं। परन्तु वे घर-द्वार और गांव की सारी समस्याओं से अलग हो गए हैं। कोई चिन्ता नहीं है। माया से मुक्त हैं। तो क्या यह सब माया है ? भ्रम है ? सत्य नहीं है ? ऐसा तो नहीं है ! घर-द्वार और गांव की समस्याएं प्रत्यक्ष सत्य हैं। भ्रम मात्र नहीं हैं।

संध्या होते-होते वह तीर्थ-यात्रियों के साथ मथुरा के पास पहुंच गया। तीर्थयात्री भुनभुना रहे थे कि पहले तीर्थयात्रा का कर भी चुकाना होगा। यह शाही कानून है। खिराज का भुगतान जरूरी है। हेमू इस शाही कानून के बारे में सोच नहीं सका था। उसे धक्का-सा लगा। तो क्या अपने देश में रहने के लिए जजिया कर और तीर्थयात्रा के लिए अलग से कर देना होगा क्यों ? क्योंकि हम सल्तनत की नजर में काफिर हैं। काफिरों से खिराज वसूल होता है। हमें देना है। सर झुकाकर देना है। नहीं तो हेमचन्द्र के बदले मेहताब आलम बन जाना है। सचमुच पराधीनता में शीश झुका ही रहता है। सपने में भी सुख नहीं मिलता।

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