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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


अट्ठाईस



दूसरे दिन आगरा शहर में सेठ सोहन लाल के घर चोरी होने का रोमांचकारी संवाद फैल गया। किशनपुरा के चौराहे पर लोग बातचीत कर रहे थे-'हेमचन्द्र ने बड़ी वीरता से चोरों से मुकाबला किया, और चोरों को सिपाहियों के हवाले कर दिया। सेठ जी के सारे स्वर्णाभूषण और चांदी के सिक्के बच गए। चोर तो बड़ी चतुराई से गया था। अंधेरी रात, मुंशी जी और हेमचन्द्र का बाहर होना खूब सोच-समझ कर वे फुलवाड़ी के पीछे से घुस गए थे, लेकिन हेमचन्द लौट आया था। चोरों की सारी चतुराई निकल गयी। हेमचन्द्र की तलवार से वे बच नहीं सके। कमाल तो यह है कि न कोई मारा गया और न घायल हुआ। कुछ भाग गये, कुछ पकड़ में आ गये।'

अपने कोठे पर बैठे-बैठे हरखलाल को बातचीत सुनायी पड रही थी। बातचीत अच्छी नहीं लग रही थी, अचरज हो रहा था कि हेमचन्द्र ने कैसे सब बचा लिया !

सिकन्दराबाद के चौराहे पर लोग कह रहे थे – रमजान के महीने में चोरी ! यह बहुत ही बुरी बात है, अफगान बादशाह माफ नहीं करेगे। काजी जी माफ नहीं कर सकेंगे, कोई भी हो, सजा तो मिलेगी ही। यही इंसाफ भी है, सरवर अली पकड़ा गया है। यह चोरी करने क्यों गया ? अमीर नहीं है, गरीब भी नहीं है। दौलत की भूख...! जमाल से दुश्मनी है क्या ? मोहनलाल मुस्लिम बिरादरी में आ गया है। फिर उससे दुश्मनी क्यों ? उसके वालिद के दौलतखाने में यह हरकत...। इसे दौलत चाहिए...इस रमजान में ! या अल्लाह !

मस्जिद में बैठे कुछ लोगों के बीच मुल्ला साहब भी गुस्सा जाहिर कर रहे थे। लेकिन एकाध लोग सरवर को बचाने के लिए अर्ज करने लगे। नहीं तो बड़ी फजीहत होगी। मुल्ला का गुस्सा ठण्डा हो गया। दिमाग में यह बात आ गयी कि सिफारिश होनी चाहिए, किशनपुरा के लोगों में फजीहत न हो।

उधर इत्रफरोश इलाहीबख्श भी सोचकर परेशान हो रहा था। उसे लगा कि सरवर ने जमाल से बदला लेने के लिए ऐसा किया होगा। हो सकता है कि उसकी बहन को गायब करने के ख्याल से गया हो। सरवर को तो दौलत चाहिए, औरत चाहिए और चाहिए शराब। यह गुनहगार है- रमजान में ही गुनाह की राह पर दौड़ पड़ा। इसका अंजाम अच्छा नहीं होगा, लेकिन उसे चुप रहना है। घर के भीतर नूरी को भी यह खबर मिल गई। वह गुस्से में बिफर रही थी, उसे बात समझ में आ गई थी कि वह बदला लेने के लिए चोर करने गया था। पता नहीं-दौलत पर हाथ फेरने गया था या इनकी बहन पर हाथ डालने। उसकी अम्मा ने शान्त करने की कोशिश की। उसने कहा'जरा ख्याल करो, अम्मा ! इन्होंने मजहब बदल लिया, वे सब कुछ छोड़कर अपनी रोजी-रोटी के लिए खाक छान रहे हैं, और यह गुनाहगार उनके घर पर चोरी करने गया, जरूर इनकी बहन को गायब करने गया होगा।'

'खुदा भी उसके गुनाह को माफ नहीं करेंगे, बेटी !'

'वे लौटकर आयेंगे, सब सुनेंगे, तब वे क्या सोचेंगे ? ये सब लोग क्या जवाब देंगे ? उन्होंने नूरी को बरबाद नहीं किया है, अपने को बरबाद कर अपनाया है।'

'नूरी ! सरवर पहले से ही बिगड़ा हुआ है, बिगड़ता जा रहा है। तुझसे शादी नहीं होने के कारण पागल-सा हो गया है। अब वह कंदखाने में ही आदमी से इंसान बन सकेगा' मेहमान को तो समझाना ही पड़ेगा। मुहल्ले के बुजुर्ग और मुल्ला साहब दिल को दिलासा दे सकेंगे।

नूरी चुप रही, वह भीतर-ही-भीतर रो रही थी। वह चाह रही थी कि वह किशनपुरा जाकर सबसे मिले। उनकी तकलीफ व परेशानी में शामिल हो जाय। मुश्किल है, वह जा नहीं सकेगी। यह कितना गलत है, यह कैसा मजहब है जो दो के बीच में दीवार की शक्ल में मौजूद है!

तीसरे दिन सदर काजी के इजलास में सरवर अपने साथी के साथ हाजिर किया गया। हेमचन्द्र ने इलजाम लगाया। मुंशी हरसुखलाल ने गवाही दी। बस्ती के और लोगों ने भी गवाहियां दीं। कोतवाल ने अपनी तहकीकात पेश की, गश्ती के सिपाहियों ने अपने बयान दिए। पैरवीकार पेशकार के जरिए पैरवी पहुंचाने लगे। मुल्ला ने भी मिलकर इशारा किया।

बादशाह सलीमशाह सूरी तक यह खबर पहुंच चुकी थी। वे नाराज थे कि दारुल सल्तनत में उनके सामने रमजान में चोरी होने लगी। यह किसकी गफलत है ? माफी नहीं मिलनी चाहिए। सूफी शायर मंझन ने भी यही सलाह दी कि दीनो-ईमान का तकाजा है कि कसूरवार को सजा मिलनी चाहिए। बादशाह के पास भी माफी की पैरवी पहुंचने लगी। आपसी अदावत की बात कही गई। साथ ही यह भी कहा गया कि रोजा-नमाज के पाबन्द मुसलमान को माफी मिलनी चाहिए।

बादशाह और काजी- दोनों की मुलाकात हुई। दोनों ने इंसाफ के नुख्ते को रिआया के सामने पूरी दयानतदारी के साथ पेश करना तय किया। इंसाफ की तराजू नहीं झुके। नहीं तो अफगान बादशाहत की बदनामी हो जाएगी। इंसाफ खुदापरस्ती है। इंसाफ ही ईमान है। यह ठीक है कि इस्लामी हुकूमत है। काफिरों और मुसलमानों में फर्क है, लेकिन काफिर अपनी हिफाजत के लिए जो जजिया देते हैं। चुनांचे जजिया वसूलने वाली हुकूमत का काफिरों की हिफाजत करना फर्ज है। इंसाफ पर ही हुकूमत की बुनियाद है यह खिलजी और लोदी की हुकूमत नहीं है।

इजलास में सरवर की पेशी हुई। सिकन्दराबाद के बहुत-से लोग बूढ़े और नौजवान भी मदद में पहुंचे। सफाई में कुछ कहना चाहा। इजाजत मिलने पर आपसी अदावत की बात कही गई, झूठे इलजाम में फंसाने का किस्सा भी कहा गया। सदर काजी ने हालात पर गौर करते हुए सालभर की कैद की सजा सुना दी, सिर्फ सजा में सख्ती की बात नहीं थी।

किशनपुरा के लोग हेमू के साथ खड़े थे। सबने आभार प्रकट किया। काजी साहब व बादशाह सलामत के प्रति अपनी आदर भावना को प्रकट कर दिया। सिकन्दराबाद के पठानों के सर झुके हुए थे, कटघरे में खडे सरवर की आंखों में खन खौल रहा था।

सिपाही दोनों को कैदखाने ले जाने लगे, सड़क पर भीड़ लग गई। उसी समय जमाल अहमद शहर में प्रवेश कर रहा था। उसे यह समाचार मिल गया कि आज सदर काजी ने सरवर को चोरी के इलजाम में कैद की सजा दी है। वह हथकड़ी में बंधकर कैदखाने जा रहा है। आगे सड़क पर इस नजारे को देखने के लिए भीड़ लग गई है। उसकी बैलगाड़ी रुक गई, गाड़ी में सरजू बैठा रहा। जमाल उतरकर भीड़ की ओर बढ़ गया। सिपाहियों के घेरे में सरवर जा रहा था। कभी उसकी आंखें झुक जाती थीं और कभी वह तन जाता था। जमाल ने चाहा कि उसकी आंखें मिल जाएं और तब उसका मन शान्त हो। पर वह आगे बढ़ चुका था। सिर्फ उसकी पीठ दिखाई दी, वह अधिक आगे नहीं जा सका।

जमाल मुड़ गया, सामने हेमू और सूफी शायर मंझन दिखाई पड़े। हेमू सामने आ गया, तीनों भीड़ से अलग सड़क के किनारे खड़े हो गए। जमाल पूछ बैठा-'यह सरवर कैसे पकड़ में आ गया ? इसने चोरी की हेमचन्द्र ने बहादुरी से पकड़ा है, लक्ष्मी भवन के आंगन में पकड़ा है, आपको नहीं मालूम ?' मंझन ने उत्तर देते हुए प्रश्न भी कर दिया।

'मैं तो मथुरा से लौट रहा हूं, मंझन साहब !'
'जमाल मोहन !...'
यह सम्बोधन सुनकर दोनों चकित हो देखने लगे।
'अचरज क्यों ? फारसी और संस्कृत – दोनों पास-पड़ोस की भाषाएं हैं। दोनों मिलकर चलें तो हर्ज क्या है ? जमाल अहमद जमाल मोहन भी हैं। पहले से मोहन हैं, अब जमाल हैं, दोनों साथ-साथ रहें।' शायर ने मुस्कराते हुए बताया।
दोनों मुस्करा उठे, शायर मंझन का विचार दोनों को अच्छा लगा।

'हां, तो मैं कह रहा था कि सरवर ने लक्ष्मी भवन में चोरी करने की कोशिश की थी। हेमचन्द्र ने पकड़ लिया। काजी साहब ने इंसाफ किया, अब सारे शहर में हलचल है।'

'इसने कैसे हिम्मत की?'

'उसने सोचा कि हेमचन्द्र बाहर गया है, दौलतखाना सूना है। जमाल अहमद के वालिद को तंग किया जाय।' मंझन साहब ने स्पष्ट किया।

हेम ने चोरी के वास्तविक रूप को बताना उचित नहीं समझा, वह चुप रहा, केवल शीश हिलाया।
'मैं मथुरा से लौट रहा हूं, मैं भी बाहर ही गया था। हथकड़ी में सरवर को देख लिया, मन को संतोष हो गया। इसकी शैतानी पर रोक लग गई।' जमाल ने कहा।

'अब आप जायें, आराम करें। फिर भेंट होगी एक बार मां जी से आकर अवश्य मिलें।'
'जरूर, मां मां हैं। मजहब बदलने से मां नहीं बदल जाएंगी। अपनी धरती मां नहीं बदल जाएगी।' शायर मंझन ने अपना विचार रखा।
'आपके समान सभी क्यों नहीं सोच पाते, मंझन साहब ?' जमाल ने पूछा।
सिर्फ सूफी ही दिलोदिमाग के दायरे को बढ़ाने के लिए सोच पाते हैं, और इसलिए दकियानूस नाराज रहते हैं। हम फिर मिलेंगे तो सूफी ख्यालात पर बातचीत करेंगे। कोई इंतजार कर रहा होगा।' मंझन ने विनोद भी कर दिया।

सभी मुस्करा उठे। जमाल को ख्याल आया कि बैलगाड़ी रास्ते में खड़ी होगी। वह उसी तरफ चल पड़ा, आगे बढ़कर देखा कि बैलगाड़ी धीरे-धीरे आ रही थी। वह चौराहे पर साथ होकर सिकन्दराबाद के बाजार में मुड़ गया।

'नूरी ने जमाल की आवाज सुनी, उसका हृदय धड़क उठा। जमाल घर के भीतर आया, उसने देखा कि नूरी उसके पैरों पर झुक रही है। वह गद्गद् हो उठा, उसने नूरी को उठाया, नूरी की पलकें झुकी हुई थीं। दो क्षण के बाद उसने जमाल को आराम करने के लिए कहा। जमाल तो सफर की सारी थकान भूल चुका था।

शाम हो रही थी। रोजा तोड़ने का वक्त आ गया, जमाल खाट पर लेटकर याद करने लगा कि मथुरा में उसने सरजू को समझा दिया था। वह सूरजमल के रूप में धर्मशाला में ठहरा। सूरजमल के रूप में हाट में मिलने लगा। कपड़ों की बिक्री होने लगी। परन्तु एक व्यवसायी को मोहनलाल के विवाह और धर्म-परिवर्तन की बात मालूम थी। उसके भाइयों ने सेठ सोहनलाल के बेटे मोहनलाल के प्रेम-विवाह की चर्चा की। उसने 'हां में हां' मिला दिया। संयोग से वह व्यवसायी दिल्ली की तरफ गया था। वह पहचाना नहीं जा सका, लेकिन उसे आगरे से आया जानकर मोहनलाल के बारे में लोग पूछते रहे। वह इधर-उधर की बातें कहकर टाल देता था।

किसी ने कहा कि सेठ सोहनलाल की कन्या का विवाह कैसे होगा?

दूसरे ने कहा कि मोहनलाल मुसलमान बनकर ससुराल में रहता है। सोहनलाल का घर शुद्ध है, पवित्र है।

तीसरे ने मुंह बनाकर कह डाला था कि सोहनलाल का वंश डूब गया। यह सब सुनकर उसका हृदय आहत हो उठता था। वह कुछ सोचने के लिए विवश हो जाता था, वह क्या करे ? क्या वह प्रायश्चित करे? क्या प्रायश्चित का विधान है ? पंडित गणेशीलाल की पोथी में विधान लिखा हुआ है ?

सहसा मालूम हुआ कि वह व्यक्ति दिल्ली से लौट रहा है जो उसे पहचानता था। वह वहां से चल पड़ा। और यहां सरवर की हरकतें... कहों भी चैन नहीं है। कहीं उसके भाई-बन्धु उसे भ्रष्ट मानकर अपने से दूर भगा रहे हैं। कहीं सरवर जैसे लोग उस पर बार-बार चोट कर रहे हैं। वह कहां जाय ! क्या करे ?

नूरी पास में आ गई थी। वह धीरे-धीरे बोल रही थी-'आप सो गए हैं ?'

'अभी तो जगा हुआ हूं।'

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