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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


छब्बीस


आज हेमू को गल्ला खरीदने के लिए आगरा से पूर्व के गांव की ओर जाना था। वह तैयार हो रहा था। गजराजसिंह शास्त्राभ्यास कराकर लौट गये, वह राधावल्लभ जी की पूजा भी कर चुका। अब वह भस्मी के डिब्बे को फूलों से सजाने लगा। वसन्त के मेला का दश्य झलक उठा, उसकी पलकें बन्द हो गयीं। पारो का मुखड़ा झिलमिलाने लगा, व्यथा उभरती-उभरती थम गयी, क्षण-भर के बाद वह मुखड़ा पार्वती कुंवर का मुखड़ा बनने लगा। उसने आंखें खोल दी। ऐसा क्यों हो रहा है ? क्या वह आकर्षित हो रहा है ? अपनी पारो की कल्पना इस पारो में कर रहा है ? ऐसा कैसे हो जायगा?

मुंशी हरसुखलाल के शब्द सुनायी पड़े, वह उठ बैठा। मुंशी हरसुख लाल के साथ सेठ सोहनलाल से मिलने गया, मिलकर गल्ला खरीद के सम्बन्ध में बातचीत कर ली और तब खा-पीकर दोनों चल पड़े। यमुना को पार कर इक्के पर सवार हुए, घोड़े की टापों पर चक्के घूमने लगे। राजधानी की चारदीवारी और छावनी को पारकर बढ़ते गये। पक्की सड़क पर इक्का चल रहा था। इक्कावान कभी पुचकार कर और कभी चाबुक चलाकर घोड़े को चला रहा था। सड़क की दोनों तरफ पेड़ थे। खेतों में दूर-दूर तक हरियाली थी। ग्रामीण बस्तियां दिखायी पड़ने लगीं। सड़क के किनारे लोगों का आना-जाना हो रहा था। इक्का चलता रहा। एक सराय के पास इक्का रुका। दोनों उतरे, किराया चुकाया तथा थोड़ा विश्राम कर और कुएं का शीतल जल पीकर दोनों ने पगडंडी से सामने के गांव की ओर कदम बढ़ाये।

रास्ते में एक किसान ने मुंशी हरसुखलाल को पहचाना। मुंशीजी ने भी पहचाना। साथ-साथ बातचीत करते हए सभी ने गांव में प्रवेश किया। किसान अपने घर पहुंचा। दोनों का स्वागत किया। गल्ला -खरीद की बातचीत होने लगी। मालूम हुआ कि गांव का अधिकांश गल्ला बिक चुका है, थोड़ा ही मिल सकता है। दोनों ने आगे के गांव में जाना चाहा, किसान ने रोक लिया। रात में 'आल्हागीत' होना था। रात में रुककर आल्हा सुनने का आग्रह किया, दोनों ठहर गये।

रात में गांव के लोग एक पुराने मन्दिर के आगन में इकट्ठे हुए। लगा कि सारा गांव उमड़ आया। आल्हा गाने वाले दो दल थे। वे चौकी पर बैठाये गये। आंगन के द्वार पर एक मशाल जलने लगी। ढोलक पर थाप पड़ी। आल्हा में युद्ध का वर्णन होने लगा, ढोलक और झाल के संगीत के साथ ओजस्वी आल्हा का स्वर चढ़ने लगा। वीररस का प्रवाह बह चला, घोड़ों की टापों से धरती दरकन लगी। तलवारों की टकराहट से बिजली चमकने लगी, रक्त की धार से पृथ्वी नहा उठी। बाह रे आल्हा-ऊदल !

हेमू ने देखा कि कुछ अधेड़ और नौजवानों का एक समूह अपने किशोर बालकों के साथ आ गया, वे सबसे पीछे बैठकर सुनने लगे। सभी वीररस में बहने लगे। पर वे सबसे थोड़ा हटकर बैठे हैं। चेहरे और पहनावे से अछूत मालूम नहीं पड़ते थे। लम्बे-तगड़े हैं, बलिष्ठ लग रहे हैं। ये कौन हो सकते हैं ? इन्हें रोका तो नहीं गया है, तो भी ये अलग-थलग बैठे हैं, पर आंखों में ओजपूर्ण उल्लास झलक रहा है। ये कौन हैं ? क्या जाति से बहिष्कृत लोग हैं ? हो सकता है, पूछा जाये।

हेमू ने देखा कि मुंशी चाचा मग्न हैं। सचमुच मग्न होना ही है। यह आगरा में सम्भव नहीं, आगरा तो अफगान बादशाह की राजधानी है। वहां फारसी की शेरो-शायरी है। सूफी शायर की मसनवी है, कहींकहीं कबीर के सबद सुनायी पड़ जाते हैं। कहीं-कहीं हित हरिवंशजी और सूरदास के पद गंज उटते हैं, पर आल्हा के गीत नहीं गूंजते।

इस वीररस के गीत के मूल में क्या है ? दिल्ली के सम्राट पृथ्वीराज चौहान और महोबा के राजा परमाल का युद्ध है, दो राजाओं का आपसी द्वष है। आल्हा-ऊदल दो भाइयों का रोमांचकारी युद्ध है। इससे दिल्ली की शक्ति का ह्रास हुआ और उसके बाद मुहम्मद गोरी का आक्रमण..।

गायन समाप्त हो गया, गायन की प्रशंसा करते हुए ग्रामीण लौट रहे थे। सबकी चाल-ढाल और बोल-चाल से वीरत्व के भाव प्रकट हो रहे थे। आल्हा और ऊदल की वीरता की चर्चा होने लगी थी। मुंशीजी अलग-थलग बैठे हुए अधेड़ से बातचीत करने लगे। हेमू बड़े उत्साह से पास पहुंच गया। मशाल की रोशनी में देखने लगा। मुंशीजी ने परिचय कराया—'यह रेवाड़ी का हेमचन्द्र है-संत पूरनदास जी का पुत्र। सेठजी के यहां काम कर रहा है, बड़ा होनहार है।'

हेमू ने नमस्कार किया।

'और ये बहादुर खां हैं, इसी गांव के राजपूत कुल के हैं। ये कुछ वर्षों से खेती में लग गये हैं, इनके पास गल्ला है। कल भोर में तौल हो जायगा।' मुंशीजी ने बताया।

हेमू सिर हिलाकर सोचने लगा कि यह क्या रहस्य है ? उसे समझ में नहीं आया, वह पूछ नहीं सका, वह देखता रह गया। मुंशीजी लौटने लगे, वह भी साथ हो गया, अपने को रोक नहीं सका, वह पूछ बैठा-'मुंशी चाचा ! यह क्या रहस्य है ? नाम बहादुर खां और परिवार राजपूत था ?'

'हां, रहस्य है। तीस-बत्तीस वर्ष पहले सिकन्दर लोदी का दमनचक्र चला था, इधर के गांव पीस दिए गए थे। ये लोग युद्ध में हार जाने के बाद कैद कर लिये गए, बलात बहादुर खां और बब्बर खां बना दिए गए।'

'गांव के पुरोहित जी ने भी आंखें फेर ली होंगी?'

'हां, आंखें फेर लीं, मन्दिर में जाना मना कर दिया। गांव के लोगों को विवश होकर भोज-भात में सम्मिलित होना रोकना पड़ा, पर किसी का हृदय दूर नहीं हो सका। ये भी अपनी नीति-रीति और परम्परा को छोड़ नहीं सके हैं, आहार-विहार में कोई अन्तर नहीं। परिवार साथ है, इसलिए इन्हें अधिक कष्ट नहीं होता।'

मतलब यह है कि ये नाम के बहादुर खां हैं लोदी के अत्याचार के कारण, शेष हिन्दू-राजपूत जैसे ही हैं।

'हां ! ये कुछ कर भी नहीं सकते, उनकी हुकूमत है। इधर पंडितपुरोहितों का बहिष्कार निषेध है। मन मारकर बहादुर खां बने हुए हैं।'

'आगरा-दिल्ली का दबाव तो...!'
'दूर का गांव है, इसलिए दबाव कम है।
दोनों अपने परिचित किसान के घर आ गये। भोजन कर सो गये।
दूसरे दिन प्रभात में दोनों बहादुर खां के टोले में पहुंचे। प्रतीक्षा हो रही थी, बहादुर खां ने दोनों का स्वागत किया। पूछकर कटोरी में माखन-मिश्री ला दी। मुंशीजी हेमू की ओर देख रहे थे, हेमू सहर्ष खाने लगा। उसे वृन्दावन का स्मरण आ गया। मुंशी चाचा ने भी राधाकृष्ण का नाम लेकर खाना शुरू किया। बहादुर खां को दोनों के व्यवहार का फर्क समझ में आ गया, पर विवशता थी। आह भरने के सिवा कुछ शेष नहीं था....उसने कलेवा कराने के बाद गल्ले का भंडार दिखाया, भाव की बातचीत हुई। तौल हुआ, मोल लगा। मुंशीजी ने अग्रिम राशि दी। बहादुर खां का मन सतुष्ट हुआ, पर हेमू कुछ और वार्तालाप के लिए आकुल हो रहा था।

रुपये-पैसे की लेन-देन के बाद वह धीरे से बोल उठा—'आप कैसा अनुभव कर रहे हैं बहादुर खां के रूप में ?'
'हेमचन्द्र ! सिकन्दर लोधी की जंजीर गले में पड़ी है, इसे निकाल कर कोई हमें मुक्त कर नहीं पाता, हमारे पंडितजी अपनी लाचारी बताते हैं...इसलिए मान लिया है।'
'मुल्ला-मौलवियों का दबाव तो होगा ही।'
'थोड़ा है क्योंकि दूर का गांव है और सारे परिवार के बीच में रहना है, गांव का दबाव तो नहीं है। इसलिए बहादुर खां का यह रूप खटकता नहीं है। अपनी सारी रीतियां-परिपाटियां घर में निभ जाती हैं, हम भूलना भी नहीं चाहते। अपनी भाषा, अपना पहनावा, अपना खान-पान और रीति-रिवाज कैसे भूले जा सकते हैं ?'

'तब तो मन आहत नहीं होता होगा !'

'पंडितजी के बहिष्कार, मन्दिर-निषेध तथा खानपान पर रोक के कारण मन जब-तब आहत होता है। कभी-कभी बाहर से आये मुल्ला की हिदायत और पाबन्दी से भी मन कुढ़ता है, लेकिन सामान्य रूप से हम अपने परिवार और परम्परा से जुड़े हुए हैं, इसलिए मन बहुत अधिक पीड़ा नहीं पाता।'

'पंडित-पुरोहित कालचक्र को समझकर व्यवहार नहीं कर रहे हैं, पर मथुरा-वृन्दावन-गोकुल में भक्ति के आचार्य और सन्त समय गति को पहचान गए हैं। वे सबको साथ लेकर चल रहे हैं...आप तो निर्दोष हैं और आप अपनी रीति-परम्परा के अनुसार जी रहे हैं फिर बहिष्कार क्यों?
 
'यह तो पुरोहितजी को समझना है, हम अपने बच्चों को कैसे संस्कार दिलायें ? थोड़ा-बहुत तो घर में मिल जाता है। कभी-कभी मुल्ला साहब सवार हो जाते हैं तो भी घर के संस्कार प्रबल सिद्ध हो रहे हैं।'

'सेना-फौज में सैनिक बनना हो तो...!'
'इच्छा नहीं है, अनाचारी शाहों-सुलतानों की सेवा नहीं की जायगो।'
'यदि अपने संस्कारों के साथ इस गांव के युवक आपके युवक अफगान फौज में भर्ती हों तो बादशाह पर अपना प्रभाव जम सकता है। अफगान बादशाह ने तो खिलजी और लोदी सुलतानों के जुल्म को बहुत कुछ बन्द कर दिया है।'
'यह तो है।'
'तो आप विचार करें, फौजी भर्ती होने वाली है। पहली बार हिन्दुओं को अवसर मिल रहा है, लोग भर्ती हों, आगे के लिए ठीक रहेगा। अत्याचार पर भी अंकुश रह सकेगा।'
'बात तो दूर की कह रहे हो, हेमचन्द्र ! बड़े विचारशील हो। राजनीति पर ध्यान है—काश, राणा सांगा सफल हो जाते !'
'देश का दुर्भाग्य है कि वे असफल हो गये। हम उनसे प्रेरणा ले सकते हैं। एक बात हो सकती है कि अफगान बादशाह को प्रजा के और अनुकूल बनाया जा सकता है, मुगलों को रावी और यमुना की लहरों से दर रखा जा सकता है।'
'यह कैसे हो सकता है ?
'अफगान बादशाह प्रजा के पास आयें, प्रजा उनके पास पहुंचे। आप लोग इस धरती की भावना के साथ फौज में आ जायें। मेरी ओर से कोशिश हो रही है। बादशाह समझने लगे हैं।'
‘पर तुम तो व्यापार में लगे हुए हो।'
‘पर मेरी दृष्टि इस समस्या पर लग चुकी है। बादशाह और वजीरों तक पहुंच रहा हूं, आप मुझे सहायता करें।'
'तब तो मैं अवश्य सोचूंगा, हेमचन्द्र !'

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