ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य हेमचन्द्र विक्रमादित्यशत्रुघ्न प्रसाद
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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!
पच्चीस
हेमू कलेवा कर सेठ सोहनलाल से मिलने आया। सोहनलाल ने सहर्ष पास बैठाया, और पूछा-'कलेवा कर लिया ?'
'जी, हां !'
'बहुत परिश्रम करते हो, हेमू ! भोजन में संकोच नहीं करना। अब इस लक्ष्मी भवन का कलश तुम्हारी बांहों पर टिक गया है।
‘ऐसा न कहें, मैं तो आपके संकेत पर सब कर रहा हूं। सब आपके आशीर्वाद से हो रहा है।'
'सब मेरे संकेत पर नहीं हो रहा है, हेमू ! मोहन जमाल बन गया, मैं कुछ नहीं कर सका। तुम कपड़े और मिठाई पहुंचा आए । मैं जान नहीं सका, बाद में मालूम हुआ।' मां की ममता नहीं मान सकी। मैंने आपसे पूछा नहीं...अपराधी हूँ।'
'तुम्हारा दोष नहीं है । तुम्हारे कारण तो खाट से उठ सका हूं। पर एक चिन्ता हो रही है। बेटा तो हाथ से निकल गया, अब संत जी का पुत्र न हाथ से निकल जाए।' ‘जी, मैंने समझा नहीं।'
'बात नीति की है, हेमू ! नीति कहती है कि राजा कब प्रसन्न होगा और कब अप्रसन्न–कहा नहीं जा सकता। इन शाहों-सुल्तानों का दिमाग कब कैसा रहेगा--कौन बताएगा? इनसे सावधान रहना और दूर रहना ही अच्छा है।'
'आपकी आशीष से इनका दिमाग समझ में आने लगा है। इस मेलजोल से लाभ ही होगा। दफ्तर के मुंशी और हाकिम मुझे पहचान गए हैं।'
हां, यह तो ठीक है, मैं रोक नहीं रहा हूं। पर सतर्क रहना चाहिए। सिर्फ अपने काम से मिलना इनकी राजनीति में दखल नहीं .. ये हमसे सलाह क्यों लेगे ! हम तो काफिर हैं; गुलाम हैं !!'
‘ऐसी हालत बन रही है कि ये हमसे सलाह लेंगे और सहायता की--आप देखते रहें। मुझे विश्वास हो गया है कि मेरा या लक्ष्मी भवन का नुकसान नहीं होगा। आप भरोसा रखें।'
'उनके गुस्से से कोई नुकसान न हो-यही चाहता हूं, और हां, आज हाट से अपने लिए कपड़े खरीद लो। सब जगह आना-जाना है। ये रुपये लो।
हेमू ने एक क्षण सोहनलाल की आंखों में झांका। भाव अच्छा लगा, सोहनलाल ने रुपये बढ़ा दिए। उसने रुपये ले लिये। कपड़े की जरूरत थी, संकोच से कह नहीं पा रहा था। वह रुपये लेकर लक्ष्मी भवन से बाहर निकला, सोचा कि छोटे सेठ से मिलना है। साथ ही किले की तरफ भी जाना है, आज यह काम हो जाय।
वह आगे बढ़ा। लक्ष्मी भवन के बाद साह हरखलाल का 'श्री विलास था। आगे जाकर दाहिनी तरफ मुड़ना था। खिड़की के पास स होकर जा रहा था। कुछ बातचीत सुनाई पड़ी। वह रुक गया। सड़क पर खड़ा रहा, खिड़की से होकर शब्द आ रहे थे।
पंडित जी ! इस बार आप पड़ोस में भागवत कथा सनाने नहीं आए। बात क्या है ?'—यह हरखलाल की कुटिल जिज्ञासा थी।
'उन्होंने बुलाया ही नहीं। मैं क्यों जाऊं?' पंडित गणेशीलाल शर्मा ने उत्तर दिया।
'बेचारे भाई साहब बेटे के विधर्मी बन जाने के शोक में गल रहे हैं। आप शांति-पाठ कर देते।'
'यह उनकी इच्छा पर निर्भर है, हरखलाल जी ! यह कलियुग है। तुरक राज्य है। पुत्र हो या कन्या-दोनों को बड़े संयम-नियम से रखना है। नहीं तो ऐसी ही गति होगी।'
'यह तो सच है, पंडित जी ! सुना है कि मोहन यानि जमाल अहमद साहब कभी-कभी आ जाते हैं।'
'तब तो पूरे परिवार से बचना होगा, इस लक्ष्मी भवन का जलग्रहण करना भी अधर्म होगा।'
'जब आप परित्याग कर देगे तो जाति पंचायत भी कुछ सोचने को विवश होगी। इन्हें बेटी का ब्याह भी करना है।'
'ग्रह अच्छे नहीं लग रहे हैं।'
हेमू यह सुनकर सहम उठा, सोचा कि अभी पंडित जी से मिलकर बातचीत करे। वृन्दावन के भक्तिलोक में यह कड़ाई नहीं है, ऐसा निषेध नहीं है, सबको अपनाने की उमंग है। राधा वल्लभ जी के सामने प्रेम-श्रद्धा में विभोर हो जाने का उत्साह है। पंडित-पुरोहित केवल निषेध की बात कर रहे हैं, दोनों में कितना अन्तर है ! क्या मोहनलाल जी के लिए कोई रास्ता नहीं निकलेगा? अपने अंग को काटकर अपंग क्यों बना जाय?
हेमू आगे बढ़ गया। छोटे सेठ ने तो चाहा कि पहले अपनी रोटी का अर्जन हो, फिर अपने राम को 'पर ये अपने राम को क्या अपनाने देंगे? ये तो दुत्कार देंगे, हरखलाल तो सेठ सोहनलाल के विरुद्ध कान भर रहे थे। ऐसा क्यों? यह धर्मभाव नहीं हो सकता, यह तो द्वष है। परिवार और व्यापार-दोनों का विद्वेष। यह तो भयानक स्वार्थपरता है, स्वार्थ ने ही विद्वेषी बनाया है। यह उचित नहीं है, पर वह क्या कर सकता है ? मानव अपनी ओछी वृत्ति से विवश है।
ऐसा सोचता हुआ वह सिकन्दराबाद तक जा पहुंचा। इलाहीबख्श का मकान दिखाई पड़ने लगा। उसे रोमांच हो आया, मोहनलाल और नूरी- दोनों कैसे मिले होंगे ! कैसे एक-दूसरे की चाहत में विकल हुए होंगे !! मोहनलाल ने अद्भुत साहस किया और इतना त्याग कर दिखाया।
जमाल बाहर आता दिखाई पड़ा। कमकर के सिर पर गट्ठर लाद कर वह सड़क पर आ गया, हाट की ओर बढ़ चला। हेमू तेजी से चलकर साथ हो गया। जमाल खुश हुआ, हेमू ने मन्द मुस्कान से अपनी प्रसन्नता प्रकट की।
जमाल ने पूछा- 'क्या समाचार है, हेमू !'
'सब कुशल है, आपसे मिलने ही चला आया हूं। सब मंगलमय है न ?' हेम ने उत्तर दिया।
'सब ठीक तो है, पर मेरी परेशानी बढ़ गई है।'
'आपकी परेशानी...?'
'अरे, भाई ! यहां त्रिकोण प्रेम का चक्कर था। इलाहीबख्श साहब के भतीजे सरवर अली साहब नूरी के आशिक बने हुए थे। पर वे सफल नहीं हो सके। इसलिए मुझे तंग करने लगे। रमजान के मौके पर उन्हें चेतावनी मिल गई है, और मुझे रोजा-नमाज की सलाह। उपवास रहना और दिनभर दौड़ना, यही परेशानी है !'
'रोजा में योदय के पूर्व और सूर्यास्त के बाद भोजन की बात तो है।'
'सूर्योदय के पहले खाया नहीं जाता। जब भूख लगती है तो हिदायत सुनाई पड़ती है, पूरे माह का फेरा है।'
'यह तो परेशानी है, परन्तु घर पर भी आप व्रत करते ही होंगे।'
'उस अभ्यास से काम नहीं चलेगा, हेमू महाशय ! और भी बातें हैं। अपनी भाषा को भूल जाओ, अपना पहनावा बदल दो, रहन-सहन का ढंग बदल दो, तुर्की-अरबी की वेशभूषा अपनाओ। सूफी कवि ऐसा नहीं चाहते। वे अपने दर्शन और उपासना के बाद इस देश की मिट्टी से जुड़ना चाहते हैं, लेकिन मुल्ला-मौलवी ऐसा नहीं चाहते।'
'यह तो गम्भीर बात है। ये मुल्ला-मौलवी और पीर-औलिया नये बने मुसलमान को इस धरती, प्रकृति और संस्कृति से पूरा काट देना चाहते हैं। सूफी कवि और कबीर पंथी प्रयत्न कर रहे हैं कि बीच का रास्ता निकल सके।'
'बीच का रास्ता निकलना ही चाहिए। नये मुसलमान-हिन्दी मुसलमान अपनी धरती, संस्कृति और परम्परा से अलग क्यों किए जायें ? बीच के रास्ते के लिए नूरी सहयोग दे सकती है, पर पठानअफगान नहीं मान सकते। मुल्ला साहब नहीं मान सकते।'
'यदि अफगान शासन थोड़ा उदार हो जाय, समझदार हो जाय।'
'सूफी शायरों की वाणी से, तो बीच का रास्ता निकालने में मदद मिल सकती है। यदि कबीर की वाणी पर ये ध्यान दें तो कुछ हो सकता है।'
‘पर सम्भव नहीं दिखता, हेमू ! वहां मजहबी हिदायत बहुत सख्त है। बीच का रास्ता कुफ्र-सा है। परन्तु बीच के रास्ते की चर्चा बढ़ गई है। थोड़ा असर तो पड़ रहा है।'
'असर तो पड़ेगा ही।'
'मेरे लिए एक और समस्या आ रही है।'
'वह क्या?
'किले में चाचा हरखलाल से भेंट हो गई, थोक कपड़े के व्यापारी हैं। मुझे देखकर उन्हें लगा कि मैं उनके व्यापार में अड़चन डाल रहा हं। वे ईर्ष्या-द्वष के शिकार हो गए हैं।'
'मुझे भी लगा है।'
'सोचता हूं कि दूसरे नगरों में चला जाऊं।'
'जी, हां ! जाना ठीक रहेगा, आज मुझे कपड़े दिलवा दीजिए। मुझे नये कपड़े के लिए रुपये मिले हैं।'
'चलो, मेरे साथ !'
दोनों हाट में आ गए थे। इत्र-तेल, किराना और गहनों की दुकानों के बाद कपड़े की दुकानें लगी हुई थीं। दोनों एक बड़ी दुकान पर जा पहुंचे। जमाल ने हेमू के लिए किफायत दर पर कपड़े खरीद दिए। फिर अपने कपड़ों की बातचीत शुरू की। गट्ठर खुला, जमाल ने एक धोती और एक गमछी अपनी ओर से हेमू के हाथों में थमाकर कहा-'मेरी ओर से इन्हें स्वीकार करो।'
हेमू ने देखा कि मोहनलाल-जमाल अहमद की आंखों में स्नेहपर्ण आग्रह है। उसने विनम्रतापूर्वक ग्रहण किया। लगा कि दोनों के हृदय के भाव का आदान-प्रदान हो रहा है। दो क्षण दोनों एक-दूसरे की ओर देखते रहे। जमाल ने सस्नेह विदा किया। हेमू नदी की ओर चल दिया।
सोचा कि छावनी में गजराज सिंह से मिला जाय, पर उधर जाने में देर हो जाएगी। लौटकर मिला जाएगा।
नाव से जमना जी को पार किया, किले की तरफ चला, उसे इजाजत मिल गई। वह दीवाने-बरीद की ओर जाने लगा। दफ्तर खुला था, वह दरवाजे पर पहुंचा, उसे रोका गया, भीतर वजीर साहब मौजूद थे। वजीर ने उसे पहचाना, इजाजत पाकर भीतर गया, वजीर ने पास में बैठाया, और बोल उठा–'हेमचन्दर ! कमाल के आदमी हो। तुम्हारी सलाह के मुताबिक काम हो रहा है। पंजाब में जासूस जा चुके हैं। कामयाबी की उम्मीद है, बहुत अच्छे !'
'यह आपकी कृपा है, आपने मुझे इस लायक समझा है कि मेरी सलाह पर...।
'बेशक अक्लमन्द और दानिशमन्द हो। सल्तनत शुक्रगुजार है, हेमचन्दर !
'मैंने सीकरी की ओर भी इशारा किया था, हुजूर !'
'अरे, तुम फकीरों पर क्यों नाराज हो ? उधर भी एक को भेज दिया है।'
'बहुत ठीक हुआ, अफगान की सल्तनत की मजबूती से मुगलों के कदम रुक सकेंगे। मार-काट, खून-खराबी से प्रजा की जान बच सकेगी, राज्य की रक्षा ही सबकी रक्षा है।'
'जब हिन्दू ऐसा सोचेंगे तो अफगानों को कौन हिला सकता है !'
'हुजूर, याद रखें...सही सियासत, अच्छा सलूक, फौलादी फौज और प्रजा की दुआओं से ही सल्तनत ऊपर उठती है।'
‘बिलकुल ठीक, हेमचन्दर !' यह कहकर वजीर ने अपनी खुशी जाहिर की।
और सोचने लगा कि यह काफिर हेमचन्दर ऊंचे ख्याल का है। सल्तनत का खैरख्वाह है। तभी तो इसकी सलाह काबिले-गौर मानी जा रही है। एक काफिर की कद्र इतनी हो रही है।
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