ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य हेमचन्द्र विक्रमादित्यशत्रुघ्न प्रसाद
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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!
चौबीस
शाम हो गई, इमामबाड़े में दरी बिछी। मसनद लग गए। मुल्ला साहब के लिए एक छोटा-सा तख्त रखा गया। तख्त पर कालीन बिछाया गया। शमादान में मोमबत्तियां जलने लगीं। मुहल्ले वाले इकट्ठे होने लगे। इलाहीबख्श सबका इस्तकबाल कर रहा था। सबका बैठा रहा था। मुल्ला आए, तख्त पर बैठे। सरवर आ गया। जमाल की राह देखी जाने लगी। इलाहीबख्श का दिल घबरा रहा था, ऐसा न हो कि वह नहीं आए, लेकिन उसे आना चाहिए। उसके अपने फायदे की बात है। इतना तंग हो रहा है, वह जरूर आएगा। जमाल आता दिखाई पड़ा, बड़ी खुशी हुई। जमाल आकर चुपचाप बैठ गया। झुकी निगाहों से सबको देखने लगा। उसने देखा कुछ चेहरे तो नये हैं। कुछ को रोज देखता है, कुछ से सलाम-बन्दगी भी हो जाती है। बचपन से ये चेहरे तो अपने नहीं रहे हैं, बचपन और तरुणाई के वे जाने-पहचाने चेहरे तो दूर छूट गए। इनसे वह जुड़ रहा है। क्या वह इन नये चेहरों से जुड़ सकेगा ? ये हिन्दी मुसलमान तो नहीं हैं ! ये लोग इनके पुरखे सौ-दो सौ वर्षों में बाहर के देशों से आए। कुछ राज्य करने आए, कुछ फौजी बनकर आए। कुछ आकर रोजगार करने लगे, यहां बस गए। पर ये अपने को हिन्दुओं और हिन्दी मुसलमानों से बड़ा मानते हैं। शासक जाति के हैं। इनसे वह जुड़ रहा है, ये भी अपना रहे हैं। नूरी के कारण अपने रक्त से अलग हो जाना और दूसरों से मिलना हो रहा है, मिलना पड़ेगा। मनुष्य अकेला तो रह नहीं पाता। वह दस लोगों के साथ रहना चाहता है। दस लोगों के बीच में रहना चाहता है। अपने रक्त से, अपने कुल परिवार से अलग हो जाना बड़ा कष्टकारक है। पर वह विवश है। उसे अलग किया गया है, वह अलग होना नहीं चाहता था।
मुल्ला साहब की आवाज गूंज उठी-'पाक परवरदिगार अल्लाह ताला की मेहरबानी है कि रमजान का महीना आ पहुंचा है। हम सबको पूरी ईमानदारी से रोजा रखना है। पांच बार नमाज अदा करना है। इस रमजान महीने में अपने मजहब पर ईमान रखकर पाकसाफ जिन्दगी को जियें जिससे इस खल्क का मालिक हम पर खुशियां इनायत कर सके। रोजा, नमाज और अपनी-अपनी आमद के मुताबिक खरात-किसी देश से गफलत न हो। कोई गमराह न हो। अगर कोई गुमराह हो जाता है तो उसे खदा माफ नहीं करेंगे। कयामत के दिन जवाब देना होगा। ऊपर अल्लाह सब देख रहे हैं। नीचे हमारे शहंशाह देख रहे हैं। हुकूमत हमारी है। हमारे आईने के जरिए हिन्दोस्तान से तुर्किस्तान तक की दुनिया को चलना है। दुनिया चल रही है, करोड़ों सर सिजदा कर रहे हैं। इसी से इंसान को ऐशो-आराम मिल सकेगा अमन-चैन मिल सकेगा। इसीलिए तो हमारा काफिला जमना व गंगा के किनारे उतरा है।
मुझे बहुत खुशी है कि इलाहीबख्श के जरिए मोहनलाल जमान अहमद बनकर हमारे बीच हाजिर है। यह हमारी कामयाबी के इलाहीबख्श ने यह मौका दिया है कि जमाल अपनी जिन्दगी को संवार ले। जिन्दगी की सारी खुशी पा ले। इस्लाम की सारी बिरादरी उसे अपने में शामिल कर प्यार-मुहब्बत दे रही है। अब उसे गमराह नहीं होना है। वह पूरे कायदे-अदब के साथ इस दीन-दुनिया की राह से गुजरते हुए जन्नत की सारी खुशियों को हासिल कर ले।
सरवर अली अपने फर्ज को भूल गया था। यह उसकी नादानी थी। अब वह किसी तरह की शरारत नहीं करेगा। जमाल तो अपना बन गया। इसे हमसे हमदर्दी चाहिए; प्यार चाहिए।
मैं समझता हूं कि सरवर अली रमजान में सही राह पर चलेगा, यह मेरी हिदायत है।'
सरवर का सर झुका हुआ था। भीतर-ही-भीतर खीझ रहा था, सोचा कि रमजान में उसे चुप ही रहना चाहिए। लेकिन जमाल पर नजर रखनी है।
जमाल इस तकरीर को सुनकर थोड़ा घबराया। कहां दो दिलों का नेह-नाता ! कहां मजहबी कामयाबी का ऐलान !! हिन्दुस्तान से तुर्किस्तान तक की हुकूमत का अभिमान !!! ये तो बड़ी-बड़ी बातें हैं। उसने तो हृदय का संगीत सना है, नरो को सनाया है, दोनों मिले हैं। अब उसे स्वर्ग का स ख मिले या नरक का दुःख। उसे इस मजहबा फन्दे से क्या मतलब है ? लेकिन इनका दबाव है। इनकी हुकूमत का भी दबाव है, वह स्वच्छन्द प्रेम को अपनाकर स्वच्छन्द नहीं रह सका। एक नये मजहब और समाज के दबाव में आ गया। रोजा, नमाज और खैरात यह रास्ता तो अनदेखा है, अनजाना है। नूरी से समझना-बूझना पड़ेगा, जिन्दगी के रास्ते में इतनी सख्त चट्टानें !
'अल्लाहो अकबर' के नारे गूंज उठे, वह चौंक उठा। सभी रुखसत हो रहे थे, वह भी उठकर खड़ा हो गया। मुल्ला साहब ने उसे नयी जिन्दगी की मुबारकबाद दी। वह मुस्करा उठा, उसने दोनों हाथ जोडकर प्रणाम किया। मुल्ला साहब बिदक गए, साथ में खड़े बुजर्गों को भी अच्छा नहीं लगा। उनमें एक ने बताया- 'ऐसे नहीं-सलामबन्दगी का तौर-तरीका यह है। थोड़ा अदब-कायदा सीखो, जमाल साहब !'
जमाल ने उसी तरीके से सलाम किया। सभी खुश हो गए। इलाहीबख्श ने उसे साथ ले लिया और फिर अपने दौलतखाने की ओर चल दिए।
घर पर नूरी इन्तजार कर रही थी। इलाहीबख्श के साथ जमाल पहुंच गया। नरी ने देखा कि चेहरे पर फिक्र की लकीरें हैं। वह बोल उठी- 'बात क्या है ? आप फिक्र में डूबे नजर आते हैं !
इलाहीबख्श अपनी बीवी के सामने जलसे का बयान कर रहे थे। घर के भीतर के कमरे में जमाल कह रहा था-'नरी ! प्यार के रास्ते में दिल की बातें नहीं हैं। किस्म-किस्म के दबाव हैं। वैसे तो सरवर साहब को शरारत नहीं करने की हिदायत मिल गई है। फिक्र थोड़ी कम हो गई है, लेकिन रोजा-नमाज का बंधन बढ़ गया है।'
'एक फन्दे से छुटकारा तो मिल गया, उसकी फिक्र ज्यादा थी !'
'लेकिन वह दिनभर भूखे-प्यासे रहकर दौड़-धूप कैसे कर सकेगा?' एक माह का दौर-दौरा है। बिना अभ्यास के वह क्या कर सकेगा?'
'यह सवाल तो खडा हो गया है। परे महीने किसी मस्लिम मकान में रोजे के वक्त खाना नहीं मिलेगा, न सराय में भटियारे रोटी दे सकेंगे और न बाजार में नानबाई और हलवाई कुछ बना सकेंगे। सिर्फ शाम को रोजा तोड़ने के वक्त वे अपनी दुकानें खोल सकते हैं।'
'मैंने तो देखा ही है।'
'शेख और मुल्लाओं की सख्त हिदायत रहती है। हुकूमत की ओर से कड़ी नजर रहती है।'
'हिन्दुओं के व्रत-त्यौहार में ऐसी कड़ाई नहीं होती, नूरी ! वहां ती पूजा-पाठ, व्रत और त्यौहार में आजादी रहती है। अपने शरीर की शक्ति और मन की इच्छा के अनुसार सभी व्रत करते हैं। कोई दबाव नहीं होता।'
यहां तो सख्ती है, तो भी आप न घबरायें। रास्ता निकल आएगा, मैं ख्याल रख रही हूं।'
'तुम्हारे लिए जो-जो करना पड़े, करना है, नूरी ! लेकिन इतनी पाबन्दी अजीब लगती है।'
'हिन्दुओं में भी जांत-पांत की पाबन्दी ज्यादा है। परेशानी है। सचमुच इतनी पाबन्दी नहीं रहनी चाहिए। आपको प्यार दिया है तो थोड़ी आजादी भी दिलाऊंगी।'
'तुम्हारे मुंह में घी-शक्कर...!'
'पहले आप तो घी-शक्कर खाइए....चलिए।'
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