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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


तेईस


हेमू मुंशी हरसुख लाल के साथ गल्ले का मूल्य लिये आ गया। सेठ सोहन लाल की आंखें द्वार की ओर लगी थीं। स्वास्थ्य कुछ अच्छा हो गया था, अब रोगशय्या पर शरीर पड़ा हुआ नहीं था। घरआंगन-वाटिका में चक्कर लग जाता था, पर अभी तो मन सोच रहा था कि हेमू पहली बार रुपये लेने गया है। बड़ी राशि है, परन्तु मुंशी जी साथ हैं, चिन्ता की बात नहीं है। पता नहीं, वह दफ्तर से भुगतान के लिए कितने व्यावहारिक ढंग से प्रयत्न कर सकेगा ! बहुत विलंब हो रहा है, इतना विलंब नहीं होना चाहिए। संझाबाती हो रही है।

आहट पाते ही सेठ सोहन लाल चौकन्ने हो गए। लक्ष्मी भवन में दीप जलने लगे, हेमू ने मुंशी जी के साथ प्रवेश किया। सेठ की दृष्टि दोनों के चेहरे पर गयी, लगा कि वह उदास नहीं है। उनका मन आश्वस्त हुआ।

हेमू ने पर्ची के साथ रुपये की थैली आगे कर दी। मुंशी जी पर्ची को समझाने लगे। कहीं कोई कटौती नहीं थी, कोई अतिरिक्त व्यय नहीं था। एक-एक दाम का लेखा ठीक था। सेठ सोहन लाल का रोम-रोम हर्षित हो उठा, आंखों में हेमू के लिए स्नेह उमड़ आया। हेमू गंभीर था, एक बार मुस्कराया। और उसने सेठ जी से अनुमति लेकर लक्ष्मीवाटिका की ओर पैर बढ़ा दिये। मुंशी जी को सेठ ने रोक लिया। बड़े स्निग्ध स्वर में विलम्ब का कारण पूछा, मुंशी हरसुख ने गंभीर स्वर में बताया- 'बादशाह ने हेमू को बुलाया था। पता नहीं, इसकी किस बात पर बादशाह और वजीर लट्ट हो गए हैं !'

'उस दिन इसने मेरे सामने राजनीति की बात की थी-बड़े विश्वास और साहस के साथ, मुंशी जी ! मैं तो अचरज में पड़ गया था।'

'तो वही बात होगी, वह बात उन्हें सही लगी होगी।'

'ठीक है, इस सम्बन्ध से अपना व्यापार आगे ही बढ़ेगा। कोई बाधा नहीं आ सकेगी, इसमें किसी प्रकार का लोभ नहीं दिखायी पड़ता। सन्त पूरनदास का पुत्र अद्भुत है।'

'अद्भूत तो लगता है, सेठ जी ! ऐसा न हो कि यह दरबारी कामकाज में ही खिंच जाय !'
यदि इसका खिंचाव रहा तो ऐसा हो सकता है। पर ये पठानअफगान अमीर और सरदार किसी हिन्दू को इतना मान नहीं दे सकेंगे, इसलिए चिन्ता की बात नहीं है।'

उधर हेमू हाथ-पैर धोकर अपने बिछावन पर लेट गया। भूख लगी थी। गजराज सिंह के सुझाव पर वह पानी में चना फुला कर सुबह-शाम खाने लगा है। कटोरे में फूले हुए चनों को गुड़ के साथ खाने लगा। चिन्तन का प्रवाह भी आरम्भ हो गया, देवली-रेवाड़ी से उजड़ कर मथुरा-वृन्दावन से होते आगरा आ गया। अपनी धरती मां की पीड़ा और पारो की चिता के दाह से अशान्त होकर आ गया। पिता जी की आशीष मिली, उसकी इच्छा शक्ति और विश्वास ने शाही दीवानखाने तक पहुंचा दिया। उसकी राय को बादशाह सलीमशाह सूरी ने मान लिया, मुगलों के आक्रमण की आशंका ने उसके परामर्श को प्रभावी बना दिया है। फौज में भर्ती होने वाली है, हिन्दुओं को भी पहली बार स्थान मिलेगा। उसने एक विश्वास उत्पन्न कर दिया है, एक नयी बात का शुभारम्भ होगा। तो उसे भी कुछ करना चाहिए।

उसे सहसा ध्यान आया कि वह अंधेरे में पड़ा है, कौन दीप जलाये ! कभी-कभी अंधेरा भी अच्छा लगता है। अंधेरे में ज्योति मिल जाती है, तो धर्मपाल और खेमराज को चिटठी लिख देनी चाहिए, वृन्दावन में विजयवाहन को भी यह संवाद मिले। ये अपने-अपने परगनों में अपने भाई-बन्धुओं को सेना में भर्ती के लिए उत्साहित कर सकते हैं, यह आवश्यक है।

वह उठ बैठा, उसने दीपक को जलाया। राधावल्लभ जी की प्रतिमा के आगे शीश झुकाया, भस्मी के डिब्बे की ओर देखता रहा। फिर कागज-कलम को सम्भाला, धर्मपाल को चिट्ठी लिखना शुरू किया। पहले चाचा जी को प्रणाम लिखा, योगी शिवनाथ की वन्दना की। कुशल समाचार के साथ अपना सुझाब देते हुए अनुरोध किया।

 
सोचा कि खेमराज को भी चिट्ठी लिखनी चाहिए। उसे भी लिखा और बाद में विजयवाहन को लिखना आरम्भ कर दिया।

मुंशी जी के आने की आहट सुनायी पड़ी। सरकंडे की कलम सक गयी, मंशी जी ने खिड़की से झांका। फिर कहा- 'हेम ! विश्राम करो ! दिन भर तो दौड़ते रहे हो।'

'जी, हां, मुंशी जी ! विश्राम ही कर रहा था, पिताजी का स्मरण आ गया। चिट्ठी लिख रहा हूं।'
'यहां का सब कुशल समाचार लिख देना। सन्त जी को मेरा प्रणाम वोल देना।' 
'जी, यही लिख रहा हूं।'
मुंशी जी अपनी कोठरी में चले गए। हेमू अधूरी चिट्ठी को पूरा करने लगा, अपने पिताश्री पूरनदास को प्रणाम लिख चुका था। अन्त में सोहन लाल तथा मुंशी हरसुख लाल की ओर से भी लिख दिया।
और विजयवाहन से फौजी भर्ती में सहयोग देने का निवेदन किया।
इन तीनों लिफाफेबन्द चिट्ठियों को डाक से भेजना होगा। इस राज्य के हरकारे इन चिट्ठियों को अपने-अपने स्थान पर पहुंचा देंगे। पर दो क्षेत्रों में ही ये संवाद जा सकेंगे। अन्य क्षेत्रों में किससे कहा जाय ? उसे ध्यान में आ गया, प्रतिदिन प्रातःकाल गजराज सिंह से भेंट होती है। बुन्देलखंड की दिशा में भी प्रयत्न हो सकता है; प्रयत्न आवश्यक है। यह सोचकर वह प्रसन्न हो उठा। भोजन का समय हो गया था, भोजन कर प्रभात की प्रतीक्षा में सो गया।

रात बीत रही थी, आश्विन मास की रात में हरसिंगार फूल रहे थे। रात बीतते-बीतते वे उजले-उजले फूल धरती पर टपकने लगे। लक्ष्मी वाटिका की दोनों कोठरियों के आसपास की भूमि फूलों से भर गयी।

पंछियों के उपा-गीत से नींद टूटी। हेम् की कोठरी का द्वार खुला, सामने की भूमि पर हरसिंगार के फलों को बिछे देखकर उसके पांव थम गये। फूलों पर पैर नहीं रखना चाहिए। इतने सुन्दर, इतने कोमल और इतने निरीह-इन पर कठोर पांव नहीं ! पर पारो तो कचल दी गयी ! चित्तौर में महारानी पद्मिनी जल कर राख हो गयी ! इन तुर्को-यवनों के राज्य में नारी का इतना अनादर -- और वह सहायक बन रहा है ! नहीं, वह सहायक नहीं-पारो के उद्धार के लिए वह सब कु छ कर रहा है। उसे अपने ऊपर सन्तोष हुआ। वह फूलों से बच कर पैर रखता हुआ बाहर निकला।

गजराज सिंह आ गया। देखा कि आज हेमू खड्ग लेकर तैयार नहीं है। वह खाली हाथ है, पर प्रसन्न है। क्या बात है ? वह उसके पास पहुंचा। हेमू उसे अपनी कोठरी के भीतर ले गया, साथ में बैठाया, मन्द स्वर में हुमायूं के आक्रमण की आशंका की चर्चा करते हुए बादशाह की इच्छा को बताया। इस फौजी भर्ती में बुन्देलखंड के सैनिक परिवारों के तरुणों को सम्मिलित होना चाहिए। इसके लिए उसे संवाद भेजना होगा या छट्री लेकर जाना होगा।

गजराज सिंह गंभीर मुद्रा में हेमू की ओर देखता रहा, यह गल्ले का व्यापार कर रहा है या राजनीति का खेल खेल रहा है ? तभी इसमें शस्त्र शिक्षा की प्रबल इच्छा है। फिर एक क्षण सोचकर कहा-'हेमचन्द्र ! तुम्हारा सुझाव ठीक है, पर दो बातें हैं।'

'वह क्या?'

'पहली बात है-- क्या सच मुच अफगान बादशाह फौजी भर्ती में हिन्दू सैनिकों को लेना चाहेंगे? और कितनी संख्या में ? दूसरी बात है कि बुन्देलखंड के राजपूतों को समझना कि वे अफगान बादशाह की सेवा में आयेंगे या नहीं?'

थोड़ी संख्या में ही लेना चाहें तो-आरम्भ तो हो। वे भर्ती करेंगे- मुझे विश्वास है, बुन्देलखंड के वीर योद्धाओं को समझाना है। तभी तो आपसे अनुरोध कर रहा हूँ।

'हां, हम कुछ लोग विवश होकर इधर आ गये हैं। यमुना जी की छावनी में पहरेदारी मिल गयी है, पर मन तो नहीं मानता है।'

'समय बदल रहा है। मन को मनाकर साथ आना है। इसके लिए समझाना है।

उन लोगों के कपड़ों का मोल चुका देता है। उन्हें विश्वास हो गया है उन्हें हमदर्दी तो है ही। इसलिए उसे उद्यम से जी नहीं चराना के लेकिन इधर सरवर तंग कर रहा है, उधर हिन्दू भाई घिना रहे हैं। वह क्या करे ? मुहल्ले में मजहबी जलसा हो रहा है। वह जाएगा। सरवर की शैतानी पर शिकंजा कसना जरूरी है। उसे भी समझाया जाएगा। जमाल अहमद तो वह अब बन ही चुका है।

आज उसे किले की तरफ जाना है। शाही दफ्तर भी जाएगा। वहां कहने-सुनने से काम हो सकता है, वे पहचानते हैं। वह मोहनलाल के रूप में जाता रहा है। अब वह जमाल अहमद के रूप में जाएगा। वे उससे नजर नहीं फेर लेंगे। हिन्दू व्यापारी उसे देखकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं, टालते हैं। जब-तब उसकी आंखें झुक जाती हैं। 'औरत के लिए धरम बदल लिया' सुन-सुनकर मन को धक्का लगता है। वह अपने पर क्रोध करे या उन पर ! उनका ऐसा करना गलत नहीं है। उनके कुल-परिवार का एक युवक घर से हाथ से निकल जाएगा तो उन्हें कष्ट तो होगा ही। उन्हें क्रोध तो होगा ही। उनकी प्रतिक्रिया सही है, परन्तु वह भी गलत नहीं है। वह क्या करता है ? उन्होंने अपने से दूर कर दिया। इन्होंने अपने नजदीक ला रखा। शकील बुनकर जैसे लोग भी अपनी हीनता से छुटकारा पाने के लिए इस मजहब का सहारा ले चुके हैं।

जमाल ने गट्ठर को सरजू के सिर पर लादा। नमूनों की गठरी को अपने कन्धे पर रखा और वह हाट के रास्ते पर निकल गया।

इलाहीबख्श दिन भर मुहल्ले वालों से मिलता रहा और शाम का इन्तजार करता रहा।

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