ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य हेमचन्द्र विक्रमादित्यशत्रुघ्न प्रसाद
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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!
बाईस
सरवर को पता चल गया कि जमाल अहमद अभी बाजार से लौटा नहीं है, इलाहीबख्श भी नहीं है। वह शाम के धुंधलके में मकान के भीतर आ गया। इलाहीबख्श की बीवी ने उसे देखा, वह परेशान होने लगी, लेकिन सरवर ने इसकी फिक्र नहीं की, वह बोल उठा-'देखो, चाची ! नूरी को न दौलत मिली और न ईमान बचा''घबराओ नहीं, कुछ समझाने आया हूं।'
नूरी दीये जलाती हुई आ पहुंची, दीये की रोशनी में सरवर को देखा। उसके दिल की धुकधुकी बढ़ने लगी, लेकिन उसने अपने को संभाला। उसने तीखे स्वर में कहा, 'दूसरे के मकान में कैसे घस आये ? इस वक्त घर में कोई मर्द नहीं है, आप जल्द जाइये नहीं तो शोर मचाऊंगी।'
'मैं गैर कब से हो गया, नूरी ! गैर अपना कैसे हो गया ?' 'यह फैसला हो चुका।'
'लेकिन मैं दीनो-ईमान पर आंच नहीं आने दूंगा, नूरी ! वह काफिर है, तुम उसके जाल में फंस गयी हो।'
जमाल लौट आया था। आवाज सुनकर दरवाजे के पास ही ठहर गया, उन दोनों की बातचीत सुनने लगा।
'सरवर भाई ! अब तो उसी काफिर पर यह दम निकलेगा, अपने ईमान की फिक्र करो। मेरा ईमान बेदाग है।'
'तुमने अपने ईमान की तौहीन की है, नूरी ! मैं इसे बर्दाश्त नहीं करूंगा।'
'हम भी तो तेरी जोर-जबर्दस्ती बर्दाश्त नहीं करेंगे। हमारी जिंदगी
में कोई जहर नहीं घोल सकता, हमें कोई जुदा नहीं कर सकता, याद रखो।'
'भले ही अपने मजहब से जुदा हो जाओ। हम इसे देखते रहेंगे ?'
'इन्होंने अपने धरम की कुरबानी दी है, सरवर ! उनकी इस कुरबानी के बदले में मैं कुछ नहीं दे सकी हूं। सिर्फ इस जिन्दगी को कुरबान कर देना है।'
'इस रमजान में ही इस नये मुसलमान की जांच हो जाएगी। मेरी नजर घूरती रहेगी-चौबीस घंटे। इसे याद रखो।'
जमाल अपने गुस्से को रोक नहीं सका। वह उफन पड़ा, वह वेग से भीतर आया, सरवर जान नहीं सका। जमाल ने सरवर की गरदन में हाथ लगाया और उसे घर से बाहर कर दिया। सरवर को कछ बोलने या कुछ करने का मौका ही नहीं मिला। लगा कि पलक झपकते ही सब हो गया। गली से उसकी आवाज सुनायी पड़ी—'जमाल ! याद रखना, इसका बदला लेकर रहूंगा, पठान से मुकाबला मजाक नहीं है।'
गुस्से से कांपता जमाल फिर उठा। नूरी ने रोक लिया और कहा—'उस बदमाश को आपने सजा दे दी। अब क्या परेशानी है ? थक कर आए हैं, आराम तो करें।'
ये रोड़े-पत्थर केवल मेरे लिए हैं ! मैं ठोकर खाकर गिर जाऊंगा, नूरी !'
'मैं जो साथ हूं, मेरे सरताज ! सारे रोड़े अपने आप ढुलकते नजर आयेंगे। हाथ-मुह धोयें, नाश्ता करें, उसे भूल जाएं।'
'इस दुनिया की हरकतों को भूला नहीं जा सकता, नूरी। यह बहुत बेरहम है। सब कुछ लुटा देने वाले प्रेम की क्या यही कीमत है ?'
'शायद यही दुनिया है, खुदगर्जी की वजह से दिलो-दिमाग में स्याही छा जाती है। मजहब भी जब-तब खुदगर्जी का पर्दा बन जाता है।'
'कोई काफिर समझकर घृणा करता है, कोई विधर्मी समझकर ताने मारता है। सरवर में खुदगर्जी और मजहबी जनून दोनों हैं। सब सह रहा हूं। नूरी ! लगता है कि मैं न घर का रहा न घाट का !!'
नूरी पैरों पर झक आयी। सिसक कर कहा-'मुझसे कोई गलती गई हो तो माफ कर दें। मैं इन पांवों की खाक हूं, आप मुझे अपनी राधा मान लें।
जमाल ने उसे अपनी बांहों में उठाया। एक क्षण उसकी आंखों में देखता रहा और फिर कहा-'तुझसे कोई शिकायत नहीं है, नूरी ! शिकायत तो इस दुनिया से है, इसीलिए कबीरदास ने जलाहा होकर भी बड़े साहस से इन पाखंडियों की डांट-डपट की है।'
लेकिन उन्हें कौन मान रहा है ? मुसलमान तो उस जुलाहा फकीर से खफा हैं। शेख, सैयद और पठानों का कहना है कि एक तो वह जुलाहा है, उस पर कुफ्र की बातें, ईमान-एतबार की नहीं- यहां मज हब की नुक्ताचीनी कोई बर्दाश्त नहीं करता।'
'हिन्दू भी नाराज हैं, पंडित तो बहुत नाराज हैं, तो भी बहुत-से हिन्दू उन्हें मानने लगे हैं। उनकी बातों में इंसानियत की आवाज है, वे पाखंड पर चोट कर सबके दिल को मिलाना चाहते रहे हैं।'
नूरी सर हिला रही थी। अचानक उसे कुछ याद आया, वह झटके से उठी। कटोरे में पानी लेकर आयी, जमाल के पैरों को धोने लगी। जमाल स्वस्थ हुआ, नाश्ता आ गया, वह नाश्ता करने लगा। दो क्षण के बाद कुछ सोचकर कहा–'सुनो, नूरी ! कबीरदास की वाणी-
प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा-परजा जेहि रुचै, सीस देइ लेइ जाय।।
प्रेम को खेत में उपजाया नहीं जा सकता और न धन-दौलत से बाजार में खरीदा जा सकता है। यह तो हृदय की बात है, इसके लिए सिर देना होगा, कुरबानी देनी होगी, अपने अहंकार और स्वार्थ की बलि करनी होगी।'
सिर्फ राजा रतनसेन ही कुरबानी देंगे ? पद्मिनी और राधा भी कुरबानी देंगा।' न री ने अपने उमड़ते हृदय के उद्गारों को उभारा।
जमाल सारे दुःख-दर्द को भूल गया। बिस्तर पर लेटकर आराम करने लगा। यमुना में नाव पर मुंशी चाचा और हेमू से मिलना बन्द आंखों के सामने झलक उठा। मंशी चाचा कितने दुःखी थे, वे कुछ कह नहीं पा रहे थे, हेमू ने ही उनके हृदय की बात कह दी, हेमू भला इंसान है, दिमाग से बहुत ही तेज है, बादशाह तक जा पहुंचा है।
घर पर कहीं बात खुल जाएगी तो मां क्या समझेंगी ? पारो क्या कहेगी ? वे दोनों छटपटायेंगी। बरखा-फिर धूप और ठण्ड में दौडना -पसीना बहाना मां सहन नहीं कर सकेंगी, पिताजी क्रोध में उबल पड़ेंगे। और लोग तो ताने मार ही रहे हैं, पर यह गलत तो नहीं है, रोटी तो पसीने की होनी चाहिए। नूरी, सचमुच राधा है, अपने मोहन के लिए निछावर है, पर उसे मोहन के रूप में कौन अपनाएगा? पंडित गणेशी लाल उसका नाम सुनकर ही भड़क जाते होंगे। सुना है कि लक्ष्मी भवन में उनका आना-जाना कम हो गया है, वे विधर्मी के परिवार से दूर रहना चाहते हैं, अपने से किसी को दूर करने का यह ढंग मूर्खता है।
वह मोहन से जमाल बन चुका है, लेकिन सरवर अली की खुदगर्जी तंग कर रही है, लेकिन मुहल्ले के मुसलमान तो तंग नहीं करते। ये अपनी ओर दिन-रात खिच रहे हैं। वह उधर खींच रहा है, वे लोग दिन-रात अपने से दूर कर रहे हैं, वह दूर हो रहा है। जमाल को नींद आ गयी, नूरी ने आकर देखा तो उसने राहत की सांस ली।
इलाहीबख्श शहर से घूमते-फिरते लौट आया। बीवी ने सरवर की छेड़खानी की बात बता दी, वह गुस्से में आ गया, वह गुस्से में अपने घर में चक्कर काटता रहा। सोचता रहा कि क्या किया जाए। रमजान का महीना आ गया, अगर जमाल ईमानदारी से रोजा रखें तो मुहल्ले के पठान और मुल्ला सभी सरवर को डांट सकेंगे, वह रास्ते पर आ जाएगा। वह चाहता था कि नूरी की शादी सरवर से हा जाए, सरवर बेकरार था, लेकिन नरी नहीं चाहती थी। पता नहीं कैसे सेठ के छोकरे से इश्क कर बैठी ? दोनों ने कसम खा ली, वह नूरी को समझाकर थक गया, उसकी बात माननी पडी, मोहन भी जमाल बनने को तैयार हो गया, लेकिन सरवर भूल नहीं पाता है। जवानी है। बचपन के दोस्त हैं, काफिरों से नफरत भी है। सबसे बड़ी बात उसका जवानी की खुदगर्जी है, वह दिन-रात पीछे पड़ा हआ है। अब जो है।
गया सो हो गया, वह बदल नहीं सकता, नूरो नहीं मान सकती। दोनों बड़े खुश हैं, यही खुशी तो सबसे बड़ी बात है, उसे तो यही ख्याल रखना है कि जमाल दीन का जमाल बन जाए। सिर्फ नूरी का जमाल बन जाने से काम नहीं चलेगा। उस पर दबाव पड़ता रहे, पठानों और मुल्ला-मौलवियों की सोहबत और मुहब्बत भी मिले। वह अपने भीतर के मोहन को-अपनी तहजीब को भूल जाए और इस्लाम का तावेदार बन जाए।
सेठ की दौलत तो मिलने की उम्मीद नहीं रही। अब वह शहर की खाक छान रहा है, ठीक। इससे यह अपने वालिद से नाराज होकर दूर होता जाएगा। इस मकान की तहजीब से जुड़ता जाएगा, कुछ दिनों के बाद सेठ की दौलत कानून के मुताबिक हुकूमत की हो जाएगी। वह दौलत अपने आप मस्जिदों और खानकाहों में आ जाएगी, सिर्फ उसे नहीं मिलेगी- सरवर को नहीं मिल सकेगी। कोई हर्ज नहीं है।
रास्ते में एक रोड़ा है। कबीर मुसलमान होकर भी काफिरों के नजदीक पहुंच गया है। उस जुलाहे ने बार-बार इस्लाम पर चोट की है, बादशाह सिकन्दर ने कैसे बर्दाश्त किया ? लोग कहते हैं कि वह जुलाहा फकीर था, साधु था, फरिश्ता था, उसने मुसलमानों और हिन्दुओं दोनों की तंगदिली और बुराइयों का पर्दाफाश किया है। उसने एक नया रास्ता निकाल लिया है, उसके चेलों का असर पड़ रहा है, नये मुसलमानों-हिन्दी मुसलमानों पर असर पड़ रहा है। उस असर से भी जमाल को बचाना होगा।
अफगान बादशाह कबीर के चेलों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करते। बड़े मेहरबान बनते हैं, सोचते हैं कि हिन्दू राजाओं को दबा दिया। अब हिन्दू रिआया क्या कर सकेगी? जजिया वसूल कर ही खुश है। उधर वृन्दावन और गोकुल में राधा-किशन की भगति जोर पकड़ रही है। जहां-तहां कबीर की डफली बज रही है, लेकिन सूफी फकीर भी चुप नहीं हैं। वे भी घूम-घूम कर बड़ी मुहब्बत से यहीं की जुबान में अपने ईमान की बात दिलों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। जमाल सूफी फकीर के साथ रहे तो अच्छा रहेगा।
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