ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य हेमचन्द्र विक्रमादित्यशत्रुघ्न प्रसाद
|
9 पाठकों को प्रिय 56 पाठक हैं |
हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!
बीस
जमाल अपनी उंगली से अंगूठी निकाल रहा था। उसे स्मरण आ गया कि मां की पूजा के लिए माला गूंथ देने पर पिता जी ने पुरस्कार के रूप में यह अंगूठी दी थी। वह रुक गया, लक्ष्मी भवन की वाटिका .''फूलों के पौधे और लता फूलों से माला 'मां की पूजा वह सबसे दूर हो गया 'बहुत दूर कर दिया गया। नहीं, मां का प्यार दूर नहीं हुआ, केवल पिताजी के क्रोध की आग से उसका प्यार जल रहा है, प्यार दूर भाग रहा है। वह इस अंगूठी को बेच देगा, वह विवश है, दूसरा कोई रास्ता नहीं है। वह बेचकर कपड़े को खरीदेगा। बाजार में द्वार-द्वार दौड़ेगा। वह दो रोटी पा लेगा।
वह कुछ क्षण अंगूठी को देखता रहा, और फिर आह भर कर अंगूठी निकाल ली। हथेली में अंगूठी दबाकर गहने की दुकान में जाने लगा। पैर रुकते फिर बढ़ जाते, वह झटके से दुकान में चला गया। जौहरी को अंगूठी दे दी, वह बाहर देखता रहा, कुछ क्षणों के बाद उसकी हथेली पर चांदी के सिक्के आ गए। वह सम्हाल कर दुकान से नीचे उतर आया।
वह अंगूठी के बदले सिक्कों को सम्भाल कर बुनकरों की बस्ती की ओर मुड़ गया। तेजी से बढ़ता गया, वहां पहुंचकर ही रुका। शकील का घर दिखाई पड़ा, करघा चलने की आवाज आ रही थी। वह दरवाजे पर आया, शकील पैरों की आहट को सुनकर पीछे मुड़ा। जमाल को पहचान कर बुलाया, चटाई बिछाकर बैठने के लिए कहा। जमाल चटाई पर बैठ गया। परिवार का कुशल समा वार पूछा, और फिर कबीरपंथी साधु साईदास के बारे में अपनी राय दी-'उस दिन तो कबीरपंथी साधु सही बात बोल रहे थे, कबीरदास भी बुनकर ही थे न !'
'हां, बुनकर ही थे। उन्होंने हिन्दू-मुसलमान दोनों को खूब फटकारा है। एक नया रास्ता निकाला है, कबीरदास ने गांव के गरीबों और छोटे लोगों के जीवन में एक नया विश्वास पैदा कर दिया है। इसीलिए अब बुनकर लोगों को धर्म बदलने की जरूरत नहीं रह गयी है। हम लोग जो हो गए, सो हो गये।
'पर मेरे सामने दो-दो समस्याएं हैं, शकील भाई ! रोटी की समस्या और नये मजहब को हृदय से अपनाना। अजीव उलझनों में पड़ गया हूं। लेकिन इधर आ जाने से उलझनों के सुलझाने का रास्ता दिखायी पड़ने लगा है।'
'यह हमारी खुदकिस्मती है....बातें होंगी। पहले शर्बत पीजिए।' यह कहकर शकील उठने लगा।
'पहले मुझे बता दो कि करघा कैसे चलता है ! करघा रुके नहीं...चलता रहे। धागे जुड़ते रहे, और कबीरदास की वाणी गूंजती रहे।'
शकील ने जमाल को साथ बैठा लिया, करघा चलाने का तरीका बताया। जमाल करघा चलाने लगा। शकील शर्बत लाने घर के भीतर चला गया। जमाल सावधानी से करघा चलाने लगा, साथ ही देख रहा था कि कैसे धागे जुड़ते हैं। करवे का खट-खट् होना और धागे का जुड़ना कितना सहज है ! पर मानव का हाथ चलना जरूरी है। सब मनुष्य के माथे और हाथ का कमाल है, कबीरदास भी इसी तरह करघा चलाते होंगे। एक ओर धागों के जुड़ने से कपड़े बुनते होंगे, दूसरी ओर सबद से साधु-भक्तों के हृदय जोड़ते होंगे। उन्होंने एक तरफ पत्थर की मूर्ति की पूजा पर कठोर वचन कहा है तो दूसरी तरफ सुबह-दोपहर-शाम की अजान पर भी बहुत कुछ कहा है। बादशाह सिकन्दर लोदी से भी नहीं डरे, काशी के पंडितों से भी नहीं घबराये। उनका राम सबका राम है। उनका राम रहीम है, रहीम ही राम है, उनका कृष्ण करीम है, करीम ही कृष्ण है।
शकील शरबत लेकर आ गया था, जमाल का पुराना संस्कार क्षण भर के लिए सुगबुगाया। जुलाहे के घर का शर्बत पीना...! कबीर की वाणी की याद आ गयी, उसने अपने को संभाल लिया। उसने मन्द मुस्कान के साथ शर्बत का प्याला ले लिया। बड़ी तृप्ति के साथ पीने लगा।
शकील करघे को चलाने लगा, चलाते हुए पूछा-'रोटी के लिए मेहनत करना चाहते हो-बहुत अच्छी बात है। कपड़े ले जाओ और हाट-बाजार में बेचो। शुरू में खुदरा बैपार करो।'
'तैयार होकर आया हूं, शकील ! रुपये लेकर आया हूं। जमाल ने खाली प्याले को जमीन पर रखते हुए कहा।
शकील नगद बिक्री की बात सुनकर खुश हुआ। उसने करघे को रोक दिया, अपने बुने हुए कपड़ों का भंडार दिखाया। पड़ोसी का भी दिखाया। सबका मोल बताते हुए बेचने का हिसाब भी समझा दिया। जमाल का उलझता हुआ मन थोड़ा सुलझने लगा, उसने शकील से ही विभिन्न प्रकार के कपड़ों को थोक के भाव में खरीदा। गट्ठर बंध गया, नगद मोल चुका दिया, और गट्ठर को अपने कन्धे पर उठा लिया। दो-चार कदम चला, भार को ढो नहीं सका। बैठ गया, हांफने लगा, शकील मुस्करा उठा, उसने एक कमकर ठीक कर दिया। कमकर गट्ठर को कन्धे पर उठाकर चल पड़ा। जमाल एक नयी उमंग के साथ हाट-बाजार की ओर चलने लगा। सिर पर तपता हुआ सूरज उसके रास्ते को रोक नहीं सका।
उसने हाट-बाजार में घुसते हुए सोचा कि कहां बैठकर एक-एक टकड़ा बेचेगा ! इस समस्या पर तो सोचा ही नहीं था, लोग पहचानेंगे। व्यंग्य कसेंगे, नगर-सेठ का बेटा विधर्मी बना और अब धूल फांक रहा है। लेकिन मुस्लिम तो नहीं हंसेंगे, वे मदद करेंगे। वह उनकी हंसी बर्दाश्त करेगा, मुस्लिम भाइयों की मदद कबूल करेगा। पर दुकानदार तो हिन्दू ही हैं। उन्हीं के साथ चलना होगा, उनके साथ थोकभाव में कपड़े बेच दे तो ठीक रहेगा। एक-एक टुकड़े बेचने के लिए भटकना नहीं पड़ेगा। उनके पास ही जाना चाहिए।
यह सोचकर उसने वस्त्र-विक्रेताओं से मिलना आरम्भ कर दिया। इस नये थोक-विक्रेता को देखकर वस्त्र-विक्रेता समझने-परखने लगे। जमाल थोड़ा परेशान हुआ, एकाध ने पहचान कर व्यंग्य भी किए। तिलमिलाकर रह गया, संध्या तक दौड़ता रहा, थोड़ी निराशा के साथ गट्ठर लिये लौटा।
इलाहीबख्श ने सोचा कि सेठ सोहन लाल के यहां से फिर कुछ सौगात आ गयी ! उसे बड़ी खुशी हुई, वह बोल उठा-'जमाल ! तुम्हारे वालिद बड़े मेहरबान हैं। आगरा शहर के बड़े सेठ हैं, होना ही चाहिए।'
'जी, नहीं ! मैं अपने पांव पर खड़ा होने की कोशिश कर रहा हू।' जमाल ने स्वाभिमान के साथ उत्तर दिया।
'मतलब ?'
'मैंने कपड़ों का व्यापार शुरू कर दिया है, मुझे किसी के भरोसे नहीं जीना। आपको भी अधिक तकलीफ नहीं दूंगा।'
‘ऐसी क्या बात है, बेटे ! यह सब तुम्हारा ही है। तुम इसे छोड़ कर कहां जाओगे ? अब तो रमजान का महीना आ रहा है। रोजा रहना निहायत जरूरी है, साथ रहने पर ही मुश्किलें आसान हो जायेंगी।'
'जी, हां ! अभी तो रहना ही है।' यह कहकर जमाल ने कमकर को मजदूरी दी, कल फिर बुलाया। और घर के अन्दर चला गया।
सरवर अली घूमता-फिरता आ पहुंचा। इलाहीबख्श दीवट पर दीया जला रहा था। सरवर को देख खीझ उठा, पर कुछ बोला नहीं।
एक तरफ होकर गमछी बिछायी, पश्चिम की ओर मुंह कर नमाज पढ़ने लगा। सरवर ऊबने लगा, नमाज पूरा होने पर उसने इलाहीबख्श से कहा-'चचाजान ! बड़ी-बड़ी सौगातें आ रही हैं, इसीलिए मछली फंसायी है। मुझे मिठाई नहीं मिली।'
'अपने घर जाकर पूछो, मुहल्ले में सब जगह शीरीनी बंट चुकी है। तुम तो शराब पीने अपने अड्डे पर गए होगे।'
'और शाम की सौगात में क्या है ?'
'जमाल ने रोजगार की शुरुआत की है।'
'तो मुझे सेठ की दौलत का हिस्सा नहीं मिलने वाला है, और आपको भी नहीं-तब क्यों खुश हैं ?'
'सरवर ! अपने मजहब-अपने दीन की खिदमत सबसे बड़ी बात है। हिन्दू उसे तंग कर रहे हैं। तुम भी तंग करोगे ?'
'चचाजान ! याद रखें, वह न दौलत लाएगा और न मजहब पर टिक सकेगा। वह नूरी को लेकर कहीं उड़ जाएगा, लेकिन मैं उसे भागने नहीं दूंगा। मुझे भी दीन का ख्याल है।'
'शराब पीकर बकबक मत करो।'
सरवर गुर्राता हुआ चला गया, इलाहीबरश तस्वीह के मनकों पर उंगली फेरने लगा। लेकिन उसका जी इधर-उधर भटक रहा था।
नूरी दिन भर थके-मांदे जमाल की सेवा कर रही, रोजगार की शुरुआत को अच्छा माना, और कामयाबी...बरकत के लिए दुआ करने लगी। जमाल की थकान मिटने लगी।
दूसरे दिन नाश्ते के बाद जमाल ने देखा कि कमकर सरजू आ गया है। बहुत खुश हुआ, सरजू ने गठ्ठर को उठा लिया। जमाल हाट की ओर चल पड़ा, हर दुकान पर कपड़ों को दिखाकर समझाने लगा। एकाध जगह कामयाबी मिली। थोड़ी बिक्री हुई, लेकिन बहुत से जानपहचान हो गयी।
वह किले की तरफ जाने की सोचने लगा। तय कर लिया। नदी किनारे पहुंच गया, लेकिन रास्ते में उसे कुछ लोगों के बोल सुनने पड़े। औरत के लिए विधर्मी बन गया, कैसा कलियुग आ गया है ! अब मारा-मारा फिर रहा है। अरे, तुरक बन जाने पर इसे क्या दिक्कत होगी ! इनकी हुकू मत है !'
नाव खुलने वाली थी, नाव में बैठ गया। देखा कि नाव में मंशी चाचा और हेमू दोनों हैं। जमाल का हृदय धड़क उठा, उधर बोल सून चुका है। अब मुंशी चाचा का सुनना है, कहीं चैन नहीं है। ये दोनों क्या सोचेंगे ? हेमू हंसेगा या मुंह फेर लेगा ! दोनों से बचना चाहिए। पर ये तो सामने आ गए हैं, अब वह नाव से उतरकर जा भी नहीं सकता, लेकिन वह कब तक छिपा रहेगा ! अपना काम-धन्धा करना है। स्वाभिमान के साथ करना है, इसमें घबराना क्या ?
हेमू से नजर मिल गयी। हेमू ने सिर झुकाकर नमस्कार किया। उसने सिर हिला दिया, मुंशी चाचा की दृष्टि से बचने के लिए यमुना के बहते जल को देखने लगा, डांड़ के जोर से बढ़ती हुई नाव को देखता रहा, यह डांड़ का जोर नहीं है। यह तो मल्लाह के हाथ की ताकत है, इस संसार में मानव के बाहुबल से ही सब कुछ...।
नाव पार पहुंच रही है, तट आ गया। सभी उतर रहे हैं, मुंशीजी ने जमाल को देखा। हृदय से आह निकल आयी, जमाल आगे बढ़ जाना चाहता था। परन्तु वे दोनों साथ हो गए, सरजू के कन्धे पर गट्ठर था। हेमू ने देखा और पूछ लिया। जमाल ने बता दिया, हेमू बोल उठा - 'आपको यह करने की क्या...?'
'मैंने सोचा ही नहीं है, हेमू ! करना भी शुरू कर दिया है। अपने पसीने की कमाई बड़ी मीठी होती है।'
‘पर लक्ष्मी भवन...?'
'इसके बारे में पिताजी बतायेंगे।'
'वे सुनेंगे तो बहुत दुःखी होंगे, घर में दुःख की लहर उठकर हाहाकार करेगी।' मुंशी चाचा ने पीड़ाभरे स्वर में कहा।
'मुंशी चाचा ! आप कुछ नहीं बतायें, मैं अब जमाल अहमद बजाज के रूप में ठीक हूं, ये मेरे पैर, मेरे हाथ और मेरा माथा...मेरे लिए सहारा ! और..."और..."यह मुस्लिम जमाल का साथ... 'नफरत करने वाले मेरा क्या कर लेंगे?'
'हम सभी आपके साथ हैं। क्यों मुंशी चाचा ?' हेमू ने स्नेहपूर्ण स्वर में कहा।
'हां, बेटे ! हम अपने मोहन लाल को मनमोहन के रूप में प्यार करते हैं।' मुंशी चाचा ने उत्तर दिया।
'हमें सेवा करने का अवसर दीजिए। हम आपके कपड़ों को किले में भी पहुंचा देगे, आपको दिन-दोपहर मारा-मारा नहीं फिरना है।' हेमू ने अनुरोध किया।
'हेमू ! अपनी जान-पहचान तो है ही, जमाल अहमद को और दिक्कत नहीं होगी। मुझे हाथ-पैर मारने दो, अपने पांवों पर खड़ा होना है।' जमाल ने जवाब दिया, और वह सरजू के साथ दूसरी तरफ बढ़ गया।
हेमू मुंशी चाचा के साथ किले के फाटक की तरफ जाने लगा। परन्तु उसके पैर चल नहीं पा रहे थे, वह बार-बार जमाल को अपने छोटे सेठ के रूप में देख रहा था। मुंशी चाचा के पैर चल तो रहे थे, पर सर झुका हुआ था। हेमू सोच रहा था अपनी बांहों से रोटी पाना....यह तो उचित है। रोटी मानव की पहली आवश्यकता है इसलिए उसे खुलकर साथ देना चाहिए। बिना पूछे सहयोग देना चाहिए। यदि उन्होंने किसी के साथ सच्चा अनुराग किया है, तो उनसे घृणा क्यों ? प्रेम के बदले प्रेम ही होना चाहिए। घृणा होने पर प्रतिक्रिया होगी। एक तरफ से ठुकराये जाने पर दूसरी तरफ आदमी खिचता है, यदि यही चलता रहा और उधर मुल्लाओं ने अपनी सीख देनी शुरू कर दी तो मलिक काफूर और सिकन्दर लोदी का सिलसिला बढ़ता जाएगा। उसे रोमांच हो आया, उसके मन में आया कि वह अपने छोटे सेठ के साथ हो जाए। उसने मुड़कर देखा, किले के बाजार की भीड में कुछ दिखायी नहीं पड़ा।
मुंशी चाचा का मन कहता था--यह सब भाग्य का फेर है। पर कैसे भूला जाय ! आंखों से देखना और आंसू बहाना–यही अपने वश की बात है। तरुनाई की पहाड़ी नदी कैसे और किधर निकल पड़ेगीकोई बता नहीं सकता, चट्टान को चूर कर हरहाती हुई निकल जाती है। कोई रोक नहीं पाता है।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book