ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य हेमचन्द्र विक्रमादित्यशत्रुघ्न प्रसाद
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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!
उन्नीस
नूरी ने सारे कामगारों को बख्शीश देने के लिए अपनी अम्मा से कहा। उसकी अम्मा ने शौहर-इलाहीबख्श से राय ली। सोना नूरी के पास आ गई थी, घर की दासी के रूप में परिचय दिया। मां जी और बहन जी की प्रशंसा करते हुए बताया -
'वे दोनों बहूजी को देखने के लिए बेचैन हैं।'
नूरी ने मन्द मुस्कान के साथ जवाब दिया, 'यह मेरी खुशकिस्मती है, मैंने तो उन्हें तकलीफ ही पहुंचायी है। वे अपनी तकलीफ को भूलकर मुझे अपना रही हैं। मैं उनकी कदमबोसी के लिए बेकरार हूं, लेकिन बेबसी है।'
'पर रास्ता निकलेगा, बहूजी ! बेटे को मां से अलग नहीं रहना है। मां बेटे से तो अलग रह ही नहीं सकती। सेठजी अपने पुरोहित जी से पूछताछ कर ही कोई काम करते हैं, इसीलिए वे दूर-दूर हैं। धर्मधर्म की दूरी भी है। खानपान और रहन-सहन का भी फरक है।' सोना ने कहा।
'मैं समझती हूं, सोना ! अगर वह दूरी दूर हो जाती ! कोशिश हो रही है, मेरी ओर से कोई दिक्कत नहीं होगी।'
'सबको एक ही गांव-शहर में रहना है, परदेसी बनकर नहीं रहना है। तब रहन-सहन और भाषा का इतना फरक नहीं रहना चाहिए।'
‘सोना ! सही बात बोल रही हो। यही होना चाहिए, लेकिन ये मुल्ला-मौलवी तो हिन्दुस्तान में अरब का नजारा देखना चाहते हैं। इस मुश्किल को सूफी शायर और कबीरदास के चेले आसान करने की कोशिश कर रहे हैं, थोड़ा वक्त तो लगेगा ही।'
'अब आप इनके रहन-सहन को अपनायें और छोटे मालिक आपके रहन-सहन को। अपने आप दिक्कतें दूर होने लगेंगी।'
'अरे सोना ! तू इतनी होशियार है !'
सोना खुश हो उठी। नूरी को लगा कि एक रास्ता मिल गया।
इलाहीबख्श और उसकी बीवी ने आपस में सलाह करके सबको बख्शीश दी। सभी खुश हो गए, सबने प्रणाम किये, इलाहीबख्श ने सबको रुखसत किया।
जमाल को हेमू अच्छा लगने लगा। उसके मन में हेमू के प्रति जो दुर्भाव था, वह दूर हो गया। वह उसके साथ ही घर से निकला, हुलास के साथ सभी आगे बढ़ गए। हेमू जमाल के साथ-साथ चलने लगा। उसने पूछने के लिए थोड़ा साहस किया--'मैं आपको क्या कहं—मोहनलाल या जमाल अहमद ? मेरा मन तो मोहन लाल ही कहना चाहता है।'
'हेमू ! मैं मोहन लाल हूं, मुझे जमाल अहमद बनने को विवश किया गया है। मुझे बन जाना पड़ा है, उधर से बहिष्कार है। इधर से दबाव है, दोनों ने मुझे मोहन से जमाल बना दिया। मेरी स्थिति क्या है-मैं क्या कहूं ?'
'आप ठीक कह रहे हैं, मुझे तो यह सोचकर रोमांच हो रहा है। एक ओर आपने परम्परा से भिन्न विवाह करने का साहस किया। समाज की रूढ़ि को तोड़कर ब्याह रचाया, दूसरी ओर आपको अपने धर्म और परिवार से अलग हो जाना पड़ा है। आपने बहुत कुछ खोया है। खोकर ही कुछ पाया है, मन की स्थिति को शब्दों द्वारा बताया नहीं जा सकता। भीतर का द्वन्द्व बड़ा भयावना है !
'कितनी बड़ी बात हो जाय, यदि आप दोनों अपने-अपने धर्म का पालन करें और आप अपने परिवार से जुड़ जाएं! न उधर से बहिष्कार हो, न इधर से दबाव हो।'
‘पर यह संभव नहीं लगता, कबीरपंथी द्वारा थोड़ा संभव हो सकता है। मैं यत्न करता रहूंगा।'
'मैं हृदय से आपकी भावना के साथ हूं। आपके साथ मां जी हैं, पार्वती जी हैं और मैं तो हर क्षण आपके साथ हूं। सेठ जी के क्रोध में भी अपनापन है, बेटे के खो जाने पर-अलग हो जाने पर किसे खुशी होगी?'
'उनकी पीड़ा को महसूस नहीं कर सका था, हेमू ! पीड़ा के कारण ही उनका क्रोध' कुछ खो जाने पर मन की विकलता तुम ठीक कह रहे हो। पर वे तो क्रोध में देखना भी नहीं चाहते, उन्होंने स्वाभिमान के साथ जीने की बात कह दी है। मैंने गांठ बांध ली है, मैं स्वयं अपने श्रम से दो मुट्ठी अन्न लाऊंगा। साथ ही पूजा-पाठ की आजादी भी पाने का यत्न...।'
'अपनी रोटी और अपना धर्म-दोनों को स्वाभिमान एवं स्वाधीनता के साथ पा लेना मानव की सबसे बड़ी सफलता है, मेरी मंगल कामना स्वीकार करें। जब आप याद करेंगे, मैं आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा।'
'तुम पिताजी को हर तरह से सहायता करते रहना, हेमू ! हमारी भेंट होती रहेगी। ठीक है, जाओ, मैं भी चलता हूं।'
हेमू प्रणाम कर विदा हुआ, जमाल दूसरे रास्ते पर चल पड़ा। आज उसे लगा कि मां और बहन का संबल पाकर उसका खोया-खोया जीवन भरने लगा है। हेमचन्द्र (हेमू) भी विचार और व्यवहार में अच्छा लग रहा है, सन्त का पुत्र है न ! इससे भी सहारा मिलेगा। यह पिताजी और व्यापार दोनों को संभाल लेगा।
हेमू सोचता हुआ लौट रहा था कि छोटे सेठ कैसे द्वन्द्व में पड़ गए हैं ! मंझधार में किनारा दीख पड़ता है, और फिर छुप जाता है। इन्हें स्नेहपूर्ण सहयोग चाहिए। पुरोहित और परिवार दोनों द्वारा बहिष्कार के कारण उग्र प्रतिक्रिया हो सकती है।
अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति मलिक काफूर भी हिन्दू था। गुजरात पर हुए आक्रमण में पकड़ लाया गया था, उसका धर्म बदल गया। उस निम्नवर्णीय दरिद्र तरुण का तेज प्रकट हुआ, अपनी तेजस्विता से सल्तनत का सेनापति बन गया। उसने खिलजी सुल्तान के लिए सारे दक्षिण भारत को रौंद दिया। विध्वंस और लूट का क्रम चलता रहा।
ऐसा क्यों हो जाता है ? धर्म बदलने पर हम अपने देश के विरुद्ध क्यों हो जाएंगे? हम गांव-नगर, मन्दिर-मठ और कलामूर्तियों का विनाश क्यों करेंगे ? यह उग्र प्रतिक्रिया है या कट्टर मजहबी बनने का भयानक प्रदर्शन है ?
मोहनलाल में विवेक जगा हुआ है, मां और बहन-दोनों का स्नेह मिल रहा है। अब इनमें उग्र प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए, एक खतरा है। उधर से बहिष्कार है तो इधर के मुल्ला-मौलवी इन पर दबाव डालकर मलिक काफूर बना सकते हैं। इस स्थिति को टालना चाहिए, कबीरपंथी के पास पहुंचना शुभ है। कबीरदास की वाणी से कट्टरता नहीं आएगी। विध्वंसपूर्ण कट्टरता मजहब की भयानक सीमा है, इससे बचाना होगा।
लगता है कि नूरी भाभी बहुत भली हैं। उनमें मजहबी कट्टरता नहीं है, हो सकता है कि प्रेम-विवाह के कारण वे स्नेहपूर्ण और उदार हो गयी हों। सुन्दर तो हैं ही। पारो कम सुन्दर नहीं थी, पर उसे दुर्भाग्यवश खो बैठा। नहीं, अफगान सरदारों-अमीरों के उपद्रव के कारण खो बैठा। केकल भस्मी शेष है। सेठ जी की बेटी भी पारो कहलाती है। उसने उस दिन उनकी आंखों में पारो की झलक पायी थी।
हेमू लक्ष्मी भवन पहुंच गया। हुलास उसकी प्रतीक्षा कर रहा था, हेम उसे लेकर दुर्गा कुंवर के पास आया। वहां सोना अपना अनुभव सुना रही थी, कह रही थी-'मां जी ! बहू तो पारो बिटिया के समान सुन्दर है। सुभाव भी इन्हीं के समान मीठा है, पठान-तुरक है-बस, यही एक बात खटकने वाली है। और सब मन के लायक...।'
दुर्गा कुंवर ने हेमू की ओर प्रश्नभरी आंखों से देखा। सहसा हेमू बोल उठा—'सोना का कहना सच है, मां जी !'
पार्वती लजाकर अपने कक्ष में चली गयी।
हेमू ने अनुभव कर लिया कि जो नहीं बोलना चाहिए वह बोल गया। इसलिए क्षणभर के लिए सहम गया। संकोच के कारण वह इधर-उधर देखने लगा, दो क्षण के बाद उसने अनुमान किया कि उसका कहना किसी को बुरा नहीं लगा है। उसकी दृष्टि ने देखा कि अपनी कोठरी में छिपी पार्वती कुंवर झांक रही हैं। उसने अपने भीतर अनजान कम्पन का एहसास किया।
दुर्गा कुंवर पूछ रही थी–हेमू ! कपड़ों और गहनों को बहू ने पसन्द किया न।'
'जब तक छोटे सेठ जी ने स्वीकार नहीं किया, तब तक बहू जी कुछ नहीं बोल सकी। विनम्रभाव से सबका सत्कार कर रही थीं। मोहन लाल जी को बार-बार मां की ममता का स्मरण दिलाया। चिट्ठी के शब्दों ने उनको पिघला दिया, उनका रोष धीरे-धीरे शान्त हुआ। और तब बहू जी ने मंजूषा को कबूल किया..' हेमू ने प्रसन्नभाव से बताया।
पार्वती कोठरी से बाहर आ गयी, मां के पीछे खड़ी हो गयी। यह जानकर उसे हर्ष हुआ कि उसकी चिट्ठी ने भैया को मना लिया। भैया ने सब स्वीकार कर लिया, पर सहसा उसे ख्याल आया, वह बोल उठी-'मां ! ऐसे कपड़े और गहने तो पठानों-अफगानों के घरों में नहीं चलते हैं।' _हां, यह तो तुम ठीक कहती हो, पर मैं तो अपने घर के चलन के अनुसार ही।' यह कहकर दुर्गा कुंवर हेमू की ओर देखने लगी।
ऐसी कोई बात नहीं है, उन लोगों ने खुशी-खुशी सब कबूल किया है।' हेमू ने उत्तर दिया।
'तब तो ठीक है, पता नहीं, कब मैं उन कपड़ों और गहनों में बहू को देख सकूँगी ?' दुर्गा कुवर ने ऊंची सांस लेकर कहा।
'वह समय आएगा, मां जी ! मैं प्रयत्न कर रहा हूँ, आप मुझ पर भरोसा रखें।' हेमू ने आश्वासन दिया।
'तुम पर भरोसा हो गया है, बेटे ! इस अभागन मां को भरोसा दिलाते रहना। इस सूने घर में राधावल्लभ जी का जन्म भी धूमधाम से नहीं मनाया गया। दशहरा आ रहा है। कैसे रामायण कथा होगी? पंडित गणेशी लाल मुंह फुलाये हुए हैं । राखी पर भी नहीं आ सके ।'
हेमू ने उनकी पीड़ा का अनुभव किया। सोचा कि सभी कहीं-न कहीं दुःखी हैं।
'सुना है, बेटे ! तुम भी अपना दुःख छिपाये चलते हो।'
'पुरुष को दिन-रात किसी-न-किसी बात के लिए जूझना पड़ता है, मां जी ! आंसू बहाने से जीवन का चक्का रुक जाता है।'
'सुनती हूं कि तुम नित्य प्रातःकाल भस्मी के आगे झुककर आंसू बहा लेते हो, क्या ब्याह हो गया था ?'
'ब्याह होने वाला था, मां जी ! मैंने उसे वसन्त के मेले में देखा था। देवी के समान सुन्दर थी, नाम भी उसका पारो ही था। पर ख्वास खां के उपद्रव से चिता की राख ही हाथ आ सकी । तुर्कों के राज्य में स्त्रियों को छिपकर रहना पड़ता है नहीं तो डूब मरो । क्या किया जाय?'
पार्वती 'पारो' शब्द को सुनकर धड़क उठी। शीश झुकाकर सुनती रही।
पर भस्मी के आगे आंसू बहाने से सारा जीवन कट नहीं सकेगा, बेटे ! तुम्हारा हृदय बहुत कोमल है, पर तुम तो तलवार-भाला भी सीखते हो । कठोर भी हो।' दुर्गा कुंवर ने कहा ।
'जीने के लिए कोमल और कठोर दोनों ही होना पड़ता है, मां जी !'
'यह तो सही कहते हो, हेमू ! अच्छा, अब जाओ। विश्राम कर लो।'
भोजन करके हेमू ने विश्राम किया। मुंशी चाचा के साथ सेठ सोहनलाल से मिलने चला । सोहनलाल सोच रहे थे-सन्त जी का बेटा तो अद्भुत है ! इसने बादशाह से बातचीत कर ली। साहस के साथ राजकाज की बात की, बादशाह इस पर खुश हो गए। बड़ा होनहार लगता है । काश, मोहन रहता तो दोनों मिलकर लक्ष्मी भवन की प्रतिष्ठा में चार चांद लगा देते। परन्तु बेटे ने तुरकन के चक्कर में मेरी नाक काट दी। मैं उसका चेहरा नहीं देखूगा, उसे एक पैसा भी नहीं दूंगा।'
मुंशी हरसुख के साथ हेमू आ पहुंचा। सोहन लाल ने हेमू को देखा, दो पल देखते रहे । और तब बैठने को कहा। मुंशी जी को यह व्यवहार अजीब लगा ।
सोहन लाल ने बड़े स्नेह से कहा-'हेमू ! गल्ला तो समय पर पहुंच गया। अब किले में जाकर गल्ले का मूल्य लाना है, बुद्धिमानी से काम करना होगा । दफ्तर को खुश करना होगा।'
‘जी, हां ! मुंशी जी के साथ चला जाऊंगा।'
'हां, मुंशी जी के साथ ही जाना है, तभी दफ्तर वालों से निपट सकोगे। और फिर गल्ले की खरीद के लिए निकलना है।'
'आप जो आदेश देंगे, उसे पूरा करूंगा। इसीलिए तो आगरा में आपकी सेवा में आया हूं।'
'हेमू बेटे ! मैं तो सन्त जी की सेवा कर रहा हूं। वे भाग्यशाली हैं। मैं तो भाग्य का रोना रो रहा हूं।'
'सेठ जी ! भगवान का नाम लेकर पार्वती बिटिया के लिए प्रसन्न रहें। हम सब आप की सेवा में है।' मुंशी जी ने समझाया।
सोहनलाल सर झुकाकर आह भरते रहे। सोचते रहे कि पंडित गणेशी लाल भरोसा नहीं दे पाते हैं। कहते हैं कि विधर्मी बेटे से दूर रहना है, कठोर व्रत-नियम का पालन करना है। जाति-बन्धु-सगे-सम्बन्धी सभी विधर्मी बने बेटे को लेकर छि:-छिः कर रहे हैं। फिर बेटी का ब्याह कैसे होगा?'
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