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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


अठारह



हेमू ने प्रभात में योगासन के साथ शस्त्रों का अभ्यास भी आरम्भ कर दिया। यमुनातट स्थित फौजी छावनी के गजराज सिंह से सम्पर्क हो गया। प्रातःकाल आ गया, आज पहला दिन है, घंटे भर का अभ्यास हुआ, उसके बाद हेमू विश्राम करने लगा।

गजराज सिंह को लगा था कि सेठ सोहन लाल अपने कर्मचारी को थोड़ा-सा शस्त्र चलाना सिखा देना चाहते हैं। नगर-सेठ की सुरक्षा के लिए शस्त्रधारी आवश्यक है, इसीलिए यह युवक तलवार और भाले चलाना सीख रहा है, पर यह कठिन श्रम कर नहीं सकेगा। पर यह तो परिश्रमी दिखाई पड़ रहा है। थोड़ी-सी जानकारी भी है और इच्छा-शक्ति भी है, यह योद्धा बन सकता है।

हुलास आया, कलेवा लेता आया। साथ ही हेमू को सेठानी जी का संवाद भी दिया। वह कल संध्या में छोटे सेठ की ससुराल जा नहीं सका था, किले से लौटते-लौटते विलम्ब हो गया था।

उसने जलपान कराके गजराज सिंह को विदा किया और फिर सेठानी से मिलने गया। वह विकलता से प्रतीक्षा कर रही थीं, देखते. ही बोल उठीं-'कल सांझ तो तुम भूल गए हेमू, आज मत भूल जाना।

‘जी, नहीं ! मैं आ ही रहा था।'

'तो यह समझ लो-पांच पिटारियों में मिठाइयां हैं, एक में वस्त्र हैं, चन्दन की मंजूषा में गहने हैं, इसे तुम संभाल लो। हुलास के साथ और कामगार रहेंगे, सोना भी जाएगी।'
'अभी जाना है न ?'
'हां, अभी जाओ। पिछले द्वार से जाना है, उन्हें मालूम न हो।'

‘मां ! मैं एक चिट्ठी दे रही हूं-भैया के नाम।' यह पार्वती का स्वर था।

'तो तुरन्त लाओ, अब क्या विलम्ब है ?'
हेमू को स्मरण आ गया कि उस दिन मोहन लाल ने इन्हें पारो कहा था। 'पारो' शब्द सुनकर उसे रोमांच हो आया । स्मृति की पीड़ा ने उसे थरथरा दिया, उसी स्मृति को लेकर वह आगरा पहुंचा है। आगरा ने ही उससे पारो को छीना है, वह कुछ कर न सका, अब यहां आकर सेठजी के यहां काम में लग गया है और अफगान बादशाह के पास भी पहुंच गया है। ख्वास खां से प्रतिशोध के लिए उसने एक रास्ता भी निकाला है, पारो की स्मृति । भस्मी सर्वदा साथ है। मोहन लाल ने तो अपनी प्रेयसी को पा लिया है, भाग्यशाली हैं, पर इसके लिए बहुत कुछ त्यागना पड़ा है । वे अपनी प्रेयसी के कारण संघर्ष कर रहे हैं, रंग-राग नहीं, संघर्ष !

'भैया-भाभी के लिए मेरी यह चिट्ठी है, भैया के लिए बहन पारो की मंगल कामना है।' पार्वती ने मां की ओर देखते हुए कहा।

हेमू 'पारो' शब्द सुनकर सिहर उठा । उसकी दृष्टि सामने खड़ी पार्वती पर गयी। क्षण भर के लिए लगा कि वह 'पारो' की झलक पा रहा है । उन आंखों में 'पारो' ही झांक रही है।
पार्वती लजाकर अपने कक्ष में चली गयी, हेमू चिट्ठी ले चुका था, वह सिकन्दराबाद मुहल्ले में जाने के लिए तैयार हो गया । कामगार आ गये, पिटारियां उठीं। सोना ने वस्त्र की पिटारी को अपने सर पर ले लिया। दुर्गा कुंवर ने हेमू को चन्दन की मंजूषा दे दी। वह सादर मंजूषा को ग्रहण कर वाटिका के द्वार से चल पड़ा।

किशनपुरा की गलियों से होता हेम सिकन्दराबाद मुहल्ले में जाने लगा। घरों से लोग झांक रहे थे, पिटारियों को देखकर आपस में कानाफूसी कर रहे थे, हेमू को पहचानने की चेष्टा कर रहे थे।

हुलास इस मुहल्ले से परिचित था। पहुंचने में कोई कठिनाई नहीं हुई, परन्तु हेमू का हृदय धड़क रहा था । इत्र-फरोश इलाहीबख्श के मकान पर जाना है, घर के भीतर पहुंचना है, छोटे सेठ मोहन लाल. अब जमाल अहमद और उनकी नूरी की सेवा में ये मिठाइयां, कपड़े और गहने हैं। वे तो लक्ष्मी भवन से असन्तोष और अनादर के साथ लौट आए है । वह उनके पास पहुंच रहा है, उन सबका कैसा व्यवहार होगा ? ऊपर आकाश में गरजन-तरजन है, बादल टकरा रहे हैं, वह उनसे टकराने जा रहा है।

वह इलाहीबख्श के मकान पर पहुंच गया, इलाहीबख्श अपनी दुकान में सुगन्धित तेलों और इत्रों को सजा रहा था। हेमू ने विनम्रता के साथ पूछा- 'जनाब इलाहीबख्श साहब का मकान ढूंढ़ रहा हूं, क्या आप बतायेंगे ?'

'हां, यही है, बोलिए, क्या खिदमत करूं ?' इलाहीबख्श ने हेमू की ओर मुखातिब होकर जवाब दिया। उसने पिटारियों को देखा, वह सोचने लगा कि यह इत्र खरीदने आया है या उसके घर ?

'मैं सेठ सोहन लाल जी के यहां से आ रहा हूं, सेठानी जी ने अपनी बहू के लिए उपहार भेजा है।'

'अल्लाह की मेहरबानी है कि उन्हें अपनी बहू की याद आ गयी।' इलाहीबख्श पिटारियों को देख बेइन्तहा खुशी में डूब चला।

अचानक बारिश होने लगी, उसी समय सरवर अली अपनी गली में जाने लगा। उसने कामगारों के सर पर पिटारियों को चाचा इलाहीबख्श के घर में सरकाते देखा। चंद लमहे रुककर देखता रहा, फिर कुछ सोचता हुआ आगे बढ़ गया।

इलाहीबख्श ने हेम की इजाजत से कामगारों, हुलास और सोना को घर के अन्दर पहुंचा दिया। अपनी बीवी को खबर कर दी, हेमू को बड़े अदब के साथ दुकान में बैठाया।

जमाल अहमद जलपान कर बाहर निकलने की तैयारी कर रहा था। उसने हुलास और सोना को देखा। पिटारियों को देखकर कुछ समझने लगा। नूरी पीछे खड़ी थी, सबको देखकर कमरे में चली गयी, चिलमन से झांकने लगी। जमाल यह सब देखकर क्रुद्ध हो उठा, वह तीखे स्वर में चीख पड़ा-

'हलास ! यह सब क्या है ?

'छोटे मालिक ! मां जी ने बहरानी के लिए यह सब भेजा है। बाहर हेमचन्द्र जी हैं, वे भी कुछ लाये हैं।' हुलास ने खड़े होकर निवेदन किया।

सोना चिलमन से झांकती बहू को देखने के लिए बेताब हो रही थी। एक झलक तो मिली थी, पर उसकी आंखें नहीं भरी थीं। छोटे मालिक के तीखे शब्दों को सुनकर घबरा गयी।

'हेमचन्द्र को बुलाओ, मैं पूछ लूं तभी बाहर जाऊंगा।' जमाल ने हलास को आज्ञा दी।

हुलास ने बाहर आकर हेमचन्द्र को बताया। बाहर दुकान में बैठे इलाहीबख्श के चेहरे की रौनक हर लमहा बढ़ रही थी। इसी खुशी में उसने हेमू को भीतर जाने के लिए इशरार किया। हेम उठा, अस्थिर चित्त लिये अन्दर गया, जमाल के तने हुए चेहरे को देखा, लेकिन उसने मन्द मुस्कान के साथ नमस्कार किया। पल भर में अनुभव कर लिया कि वातावरण अनुकूल नहीं है। छोटे सेठ की आंखों में रोष है, हुलास परेशान है, सिर्फ इलाहीबख्श खुश है।

'हेमू ! यह सब लेकर क्यों आए ? मुझे तो उस घर से कुछ नहीं चाहिए।' जमाल ने तीखे स्वर में कहा।

'मां जी की आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है, मां की ममता को कैसे ठुकराया जा सकता है !'

मुझे लक्ष्मी भवन ने तो ठुकरा दिया है।'

'यह लक्ष्मी भवन का उपहार नहीं है, यह मां की ममता का छोटासा उपहार है। बहन के हृदय की उमंग उमड़कर अपनी भाभी के पास आयी है।'

'परन्तु पिताजी ने तो स्वाभिमान के साथ जीने का उपदेश दिया है। वे तो मुझे देखना भी नहीं चाहते, मैं भी उनकी कोई वस्तु देखना नहीं चाहता।'

'मां के वात्सल्य और बहन की ममता सेठजी के क्रोध से बहत ऊपर है। आप उनकी वस्तु को स्वीकार न करें, पर मां और बहन के प्यार को कैसे अस्वीकार कर देंगे ? न सेठजी रोक सकते हैं और न आप ठुकरा सकते हैं। यह पार्वती जी ने चिट्ठी भी दी है, इसे आप पढ़ तो लें।' यह कहकर हेमू ने चिट्ठी जमाल अहमद के हाथ में दे दी।

जमाल ने चिट्ठी ले ली। चिलमन से झांकती नूरी बेचैन हो रही थी। उसकी अम्मा उसे इशारा कर रही थी कि वह कुछ बोले। इतना गुस्सा ठीक नहीं है, सौगात को कबूल कर लेना चाहिए। नूरी सोच रही थी कि कुछ बोलने पर उन्हें बुरा लग सकता है, थोड़ा और इन्तजार किया जाये। हेमू की गुफ्तगू गलत नहीं है, बहन के खत का भी असर पड़ सकता है, वे कुछ सोचेंगे और तब ही वह कुछ...।

जमाल चिट्ठी को पढ़ने लगा -'भैया ! मां आपको और भाभी को आशीष दे रही हैं, भाभी को देखने के लिए हम दोनों विकल हैं, पिताजी निष्ठुर हैं, आप तो निष्ठुर नहीं हैं, आपका हृदय तो कोमल और मधुर है, तभी तो आपने नूरी भाभी को अपनाया है।

मां के हृदय की कोमलता की थाह आप-हम नहीं लगा सकते। हम दोनों की भावनाएं गंगा और यमुना की लहरें हैं। एक बार तो आप हमारी स्नेहपूर्ण भावनाओं की गंगा-यमुनी लहरों में डुबकी लगा लें। हमारे भीतर जो विकलता है, आप अवश्य ही समझ रहे होंगे, इस चिट्ठी से तो समझ जायेंगे।

जन्माष्टमी आयी, चुपचाप चली गयी। आप नहीं थे, धूमधाम नहीं हो सकी। भागवत कथा भी नहीं हुई। हम लोगों को कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। हम अपने दुःख को कैसे समझायें ?

ममता के उपहार को स्वीकार करें, यह लक्ष्मी भवन का नहीं, मां के हृदय का उपहार है। मुझे पूरा विश्वास है कि भाभी मां की भावना को आदर देंगी, मिठाइयों और कपड़ों के साथ गहनों को स्वीकार करेंगी। हमारे हृदय की पीड़ा को थोड़ा आराम पहुंचेगा, टूटता हुआ हृदय जुड़ने लगेगा, एक जगह जुड़ा है तो दूसरी जगह भी जुड़ जाए, ब्याह का गीत दो को जोड़ता है, तोड़ता तो नहीं।

मां यशोदा अपने कृष्ण कन्हैया को राधा के साथ देखकर फूली नहीं समाती, आपने तो यह कथा सुनी है।

आप दोनों मेरा प्रणाम स्वीकार करेंगे, रूठना छोड़कर आशीष देंगे, आशीष देंगे न ?'
आपकी बहन
पारो

चिट्ठी पढ़कर जमाल की आंखें बन्द हो गयीं। मां और बहन के प्यार की याद में बेसुध होने लगा। मां यशोदा श्रीकृष्ण और बावरी राधा...जन्माष्टमी के अवसर पर भागवत कथा नहीं हो सकी, मेरे कारण सभी दुःखी हैं। बहन कहती है कि ब्याह का गीत जोड़ता है, अलग नहीं करता। वह अलग हो गया, कृष्ण और राधा से भी अलग हो रहा है। नहीं, ऐसा नहीं मां और बहन की ममता से दूर नहीं होना है, भूल नहीं जाना है।

हेमू ने अनुभव किया कि चिट्ठी ने प्रभाव डाला है। मां के प्यार की स्मृति जगी है, बहन की ममता ने हृदय को सहला दिया है। इसी समय कुछ निवेदन करना चाहिए। यह सोचकर उसने मधुर स्वर में कहा-'चन्दन की मंजूषा भी है, चिट्ठी के साथ इसे भी स्वीकार करें।'

जमाल की सुधि लौट आयी। उसने मंजूषा को देखा, क्षण भर देखता रहा, पहचानने की कोशिश करता रहा फिर चिलमन की ओर देखा। नूरी की आंखों में अनुरोध था।

हेमू ने मन्द मुस्कान के साथ कहा- 'मुझे तो भाभी जी के हाथों में ही देने को कहा गया है, यदि आपकी आज्ञा हो तो...।'

हेमू भाई ! मां और बहन के ममतामय आदेश को तो मानना ही पड़ेगा। नूरी, पर्दे से बाहर आओ, तुम्हीं को कबूल करना है।'

नूरी पर्दे से बाहर आयी। सोना का हृदय उछल रहा था, नूरी हौले-हौले सर झुकाये जमाल के पास आयी। हेमू ने मंजूषा सौंप दी. नूरी ने जमाल के इशारे पर मंजूषा को अपने हाथों में थाम लिया।

वातावरण मधुर हो उठा।

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