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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


सत्रह



जमाल अहमद अपने पिता के पास से लौटा, भीतर की उथल-पुथल के साथ। वह सोच नहीं पा रहा था कि वह अपने पिता पर क्रोध करे या लक्ष्मी भवन में आए। हेमचन्द्र पर या अपने पर। उसे लग रहा था कि हेमचन्द्र ने आकर पिताजी को अपने वश में कर लिया है। पिताजी तो ऐसे नहीं थे ! इतना प्यार करते थे ! वह तो उनका इकलौता पुत्र है, उसे उनका सारा प्यार मिलता रहा है। वही तो उनका सर्वस्व है, हेमचन्द्र तो हाल में ही आया है, पता नहीं, क्या जादू कर डाला, पर वे तो पिछले एक माह से अप्रसन्न हैं। उनका प्यार, घृणा और क्रोध में बदल गया है। उन्होंने उसे घर से निकाल दिया और स्वयं खाट पर गिर गए, इसमें हेमचन्द्र का क्या दोष है ? वह तो मुंशीजी के समान सेवक ही है। वह तो उसे आदर दे रहा था, उसके व्यवहार में कोई खोट तो नहीं है, परन्तु मनुष्य पर क्या विश्वास ? हो सकता है कि उसके मन में आ गया हो कि छोटे सेठ को दूर ही रखा जाये... पर वह तो खुद दूर हो गया है। मोहन से जमाल अहमद बन गया है। वह खुद अपने हृदय के बहकावे में आ गया, प्रेम-कथाएं पढ़-पढ़कर नूरी से प्रेम कर बैठा। पिताजी की दृष्टि में पापी बन गया और अपनी दृष्टि में प्रेम-पथिक बना, इस प्रेम के लिए उसे त्याग करना पड़ेगा, लेकिन वैभव का जीवन दारेद्रता में कैसे काटेगा।

यह तो ठीक है कि प्रेम का जीवन स्वाभिमान के साथ जीना है, पर रोटी-दाल का क्या होगा? उसे कोई रास्ता निकालना पड़ेगा। हजरत इलाहीबख्श की बातों से भड़कना नहीं है, सरवर अली की धमकी से घबराना नहीं है, हेमचन्द्र पर भी ध्यान रखना है, उसमें भी लाभ हो सकता है।

नूरी ने उसकी बेचैनी को समझने की कोशिश की। जमाल ने लक्ष्मी भवन की बातचीत को छिपा लेना चाहा पर छिपा नहीं सका। नरी से अपनी बेचैनी को छिपाकर कहां रहेगा, वह अकेला पड़ गया है, वह तो साथ देगी ही इसलिए लक्ष्मी भवन की बातचीत को तो नहीं, पर अपनी बेचैनी को प्रकट कर दिया। नूरी दो क्षण सोचती रही और फिर जमाल की हथेली को थामकर कहा- 'मेरे महबूब ! आपकी जिन्दगी की राह में आ गई हूं, आपके नक्शे कदम पर हमेशा साथ हूं। न मुझे आपके वालिद को दौलत चाहिए और न मुझे अपने वालिद की, सरवर अली की धमकी का भी कोई खौफ नहीं है।'

'नूरी ! बहुत अकेलापन लगने लगा है, तुम्हारा ही भरोसा है। मैं तो भगवान राधावल्लभजी से भी अलग हो गया हूं।'

'मैं खुदा से आपके लिए दुआ कर रही हूं, आप भगवान से दुआ करें। क्या खुदा और भगवान दो हैं ?'

'नहीं, नूरी ! दो नहीं हैं, एक हैं, लेकिन दो मानकर ही मुझे अपने राधावल्लभजी से अलग कर दिया गया है।'

'आप अपने को अपने देवता से अलग न मानें, उन पर भरोसा रखें। हम दोनों को एक मानकर चलेंगे।'

'पर जीने के लिए, शरीर को चलाने के लिए ?'

'उसके लिए अपने पर ही भरोसा...और किसी पर नहीं।'

नूरी की इस बात को सुनकर जमाल ने अपने भीतर एक स्फूर्ति का अनुभव किया।

दूसरे दिन वह बड़ा खुश था, नूरी भी खुश थी, इलाहीबख्श पूछताछ के लिए बेचैन था। उसे मौका नहीं मिल रहा था, नूरी जमाल का भोजन अलग बनाती थी। अलग भोजन कराती भी थी, इलाहीबख्श चिढ़ता रहता था, लेकिन नूरी के जज्बात को चोट पहुंचाना नहीं चाहता था। भोजन के वक्त ही उसने जमाल को आवाज दी। जमाल 'जी, हां' करके भोजन करता रहा, और भोजन के बाद घर से बाहर निकल गया।

वह सोचता हुआ कदम बढ़ा रहा था कि सल्तनत में नौकरी की जाय या व्यापार किया जाए ? अपने सगे-सम्बन्धी तो इस विधर्मी की सहायता नहीं करेंगे। ये पठान-अफगान सहायता कर सकते हैं। अब तो हम-मजहब हैं, उधर वे हिन्दी मुसलमान हैं, उनसे भी मदद मिल सकती है, वे तो इसी देश के हैं। नये मुसलमान हैं जैसे वह है।

वह धीरे-धीरे हिन्दी मुसलमानों की बस्ती में पहुंच गया, बुनकरों की बस्ती थी। उनमें कुछ मुसलमान बन गये थे, कुछ हिन्दू रूप में रह रहे थे, एक बस्ती में एक साथ रहना होता ही था, परन्तु मन में थोड़ा दुराव पैदा हो गया था। पूजा-प्रार्थना के साथ पर्व-त्यौहार, रहन-सहन और भाषा में भी थोड़ा-थोड़ा फर्क आ रहा था। इसी फर्क के कारण दुराव पैदा हो रहा था।

करघे की आवाज से बस्ती गूंज रही थी। कहीं सूत रंगा जा रहा था, कहीं सूते के लच्छे सूख रहे थे। जमाल उस बस्ती में पहुंचकर चलते हुए करघे और बुनते हुए कपड़े को देखने लगा। उस पर एक बुनकर की नजर पड़ गयी, बुनकर को लगा कि इस राही को कुछ चाहिए। उसने इशारे से बुलाया, वह दरवाजे के भीतर चला गया। चलते हुए करघे को निकट से देखने लगा, उसे बड़ा अचम्भा लगा। धागे जुड़ रहे थे, कपड़ा बुना जा रहा था। वह पास बिछी चटाई पर बैठ गया। कुछ देर बाद उसने बुने हुए कपड़ों और उनकी बिक्री के बारे में बातचीत आरम्भ की। धीरे-धीरे वह खुलता गया। बुनकर ने भी सहानुभूति दिखाई और कहा–'भाई ! तुम तो नगर सेठ के बेटे हो। क्यों फिक्र करते हो ? खुद मेहनत करना चाहते हो तो करघे के साथ बैठकर हाथ चलाओ या बुने हुए कपड़ों को बेचो, इंसान को एकदूसरे का ही भरोसा होता है।'

'मुझे खरीद-बिक्री की जानकारी तो है। आपके भरोसे यह काम कर सकता हूं।'

'हम पर भरोसा रखो, हम मदद करेंगे।'
'बड़ी मेहरबानी होगी ! एक बात पूछूं ?'
पूछो, भाई !'

'मैं तो मन की लाचारी से मुसलमान हो गया, आप कैसे बदल गए ?'

भाई, क्या कहूं ! पंडित-पुरोहित जी के व्यवहार से दुःखी होने के कारण अपना धरम बदलना पड़ा। हम बुनकर ईमानदारी से मेहनत करते हैं, पसीना बहाते हैं, सबका तन ढकते हैं, भगवान को मानते हैं, पंडितजी के आगे झुकते हैं, लेकिन वे तो अपने को भगवान ही मानते हैं और हमें बहत छोटा-शहर ! मन अपने को हीन समझने लगा था, जब-तब मन बेचैन हो जाता था। इसी हालत में तुरक-फकीरों ने पास बैठकर बताया कि कोई भी छोटा नहीं है, खुदा की नजर में सब बराबर हैं। इस बात का असर पड़ा, इज्जत से जीने के लिए हमने धरम बदल लिया। कुछ भाइयों ने धरम नहीं भी बदला है, बहुत से लोग तो डर और दबाव से मुसलमान बन गए हैं।'

'बात तो ठीक है कि एक ओर तुर्क शासन ने हिन्दुओं को दबाया है तो दूसरी ओर हिन्दुओं की जात-पात के भेदभाव ने इन्हें कमजोर किया है।'

'ये समझेंगे तो बचेंगे, नहीं तो हम क्या करेंगे !'

'हम अपने भगवान और मन्दिर-मठ को भूलते जा रहे हैं। कैसा लगता है ?

'मन को कचोटता है, पर पंडितजी हमें वापस बुलाने के लिए कहां सोच पाते हैं ? वे अपनाने को कहां तैयार हो पाते हैं ? धीरे-धीरे हमारे बाल-बच्चे देवी-देवता को एकदम भूल जायेगे। मुसलमानी हुकूमत है, कुछ तो सहारा भी मिल जाता है, जजिया नहीं देना पड़ता है।'

'हां, यह भी एक बात है।' जमाल ने कहा।

'आज कबीर पंथी साधु साईंदास का सत्संग है। इनकी बात सही लगती है, ठहरकर सुन लो फिर लौट जाना।'

जमाल ने बुनकर शकील का अनुरोध मान लिया, वह ठहर गया। शाम हो गई, बस्ती के बीच में बरगद की छाया में लोग इकट्ठे होने लगे। हिन्दू और मुसलमान दोनों इकट्ठे हुए, दोनों ने मिलकर सत्संग का प्रबन्ध किया। साईंदास आए, चौकी पर कम्बल बिछा हुआ था। साधु साईदास उसी पर बैठे, उनका प्रवचन शुरू हुआ-

'मेरे सत्संगी भाइयो ! सद्गुरु कबीरदास ने सहज समाधि से सत्य रूप को पा लिया था। इसलिए वे निडर होकर कहते रहे हैं कि हिन्दू और तुरुक, दोनों सही रास्ते पर चल नहीं रहे हैं। दोनों भटक गए हैं।

हिंदू तुरक कहां ते आए किनि एह राह चलाई।
दिल महि सोचि विचार कवादे भिसत दोजख किन पाई।।

ये दोनों अलग-अलग मालिक से पैदा नहीं हुए हैं। दोनों के अलगअलग रास्ते कैसे बन गए ? सबको सोचना चाहिए, कोई मुसलमान होने से बहिश्त (स्वर्ग) पा जाता है ? क्या केवल हिन्दू दोजख (नरक) पाता है ? जो एक साईं को भूलकर दूसरे पर जुल्म करेगा, वही तो नरक पाएगा। जो सबको भगवान रूप मानकर प्यार करेगा, वही तो स्वर्ग पायेगा। अजीब बात है कि मुसलमान जुल्म और जबरदस्ती से सबको मुसलमान बनाकर बहिश्त पहुंचाने का ठेका ले रहे हैं। पंडितजी मेहनत से कमाई करने वालों को छोटा-शूद्दर मानकर नरक पहुंचा रहे हैं। यह धर्म नहीं, अधर्म है। पुण्य नहीं, पाप है। दोनों ही गुनहगार हैं।

सद्गुरु ने सच्चे साधु की पहचान करायी है। सच्चे इंसान की पहचान बतायी है।

कबिरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर।
जो पर पीर न जानई, सो काफिर बेपीर॥

किस्म-किस्म के भेष बनाने में साधुपन नहीं है। राम और रहीम को अलग-अलग मानने में साधुपन नहीं है, साधुपन सिर्फ उपदेश देना नहीं है, साधुपन तो परपीड़ा को महसूस करने और परोपकार करने में है। जो दूसरे के दुःख और तकलीफ को नहीं समझता है, वही बेरहम काफिर है। हिन्दू होना काफिर होना नहीं है, मानव के प्रति बेरहम होना काफिर होना है।

इसलिए सभी को प्यार करने और हमदर्द बनने से वह राम; वह रहीम खुश होगा। ऊंच-नीच और जुल्म-जजिया के जमाने में सबमें एक हो राम...एक ही रहीम के दर्शन करें, सबको प्यार करें, यही धर्म है, यही सद्गुरु की वाणी है।

जमाल को अन्धकार में एक किरण दिखाई पड़ी। सचमुच चारों तरफ घृणा की हवा है, यह घृणा...यह डर, यह दहशत अन्धकार ही है। मुसलमान हिन्दू को काफिर समझते हैं, अपने शासन के बल पर दबाते हैं। हिन्दू मुसलमान को म्लेच्छ मानते हैं। कबीरदास ने रामरहीम को एक माना है। क्या इस सत्य को सभी मानेंगे ?

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