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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


सोलह




दूसरे दिन सुबह बादशाह सलीमशाह किले के शाही महल के दूसरे तल्ले के दीवानखाने में आकर चांदी की कुर्सी पर बैठे। सारे वजीर उठकर खड़े हो गए, सबने तीन बार झुककर कोनिश की और अपनी जगह पर बैठ गए।

दरबार के पहले बादशाह अपने वजीरों और जासूसों से सल्तनत का सारा हाल जानना चाहते थे। उनका यह कायदा भी था, वे इस कायदे के पाबन्द थे।

बादशाह के चेहरे पर थोड़ी थकान थी, लेकिन उन पर खुशी की रौनक भी थी। उन्होंने अपने वजीरों पर एक नजर डाली और बोल उठे– 'खुदा का शुक्र है कि मैं मालवा से कामयाब होकर लौटा हूं। मालवा के जागीरदार शुजात खां ने दो बार गड़बड़ी की, मैंने इसे बर्दाश्त नहीं किया। मैंने किसी जागीरदार या अमीर के गरूर को बर्दाश्त नहीं किया। अफगान सल्तनत बादशाह के लिए है, बादशाह रिआया के लिए है। जागीरदारों और अमीरों की अकड़ और ऐश के लिए नहीं है। इसीलिए मैंने बेरहमी से जागीरदारों और अमीरों को दबाया है। शुजात खां ने माफी मांग ली, मैंने माफ कर दिया। जागीर की वापसी का हुक्मनामा भेज दिया जाये।

वकील (मुख्य सचिव) ने खड़े होकर शाही हुक्म को कबूल किया।

बादशाह ने फिर कहा-'अफसोस है कि ख्वास खां बागी हो गया। उसकी बगावत को भी कुचल दिया गया। वह भागकर लाहौर की तरफ चला गया है, सुना है कि रास्ते में गांवों को नुकसान पहुंचाया है। उधर के किसानों की मालगुजारी में थोड़ी माफी दी जाय।'

वजीर (माल) ने खड़ा होकर शाही हुक्म को कबूल किया।

'मुझे उम्मीद है कि तख्तगाह में मेरी गैरहाजिरी के बावजूद अमनचैन होगा?'
बादशाह ने पूछा।

वकील ने दीवाने-वरीद के वजीर की ओर देखा, वजीर सदर जासूस के साथ मौजूद था। उसने बताया कि ख्वास खां ने पंजाब के सूबेदार हैवत खां निजायी को भड़काया है। दोनों मिल गए हैं, उधर से बगावत की बू आ रही है। और मुगल सरदार हुमायूं अपने भाई कामरान को अन्धा बनाकर हिन्दुस्तान की सरहद के नजदीक आ पहुंचा है।

बादशाह ने यह जानकारी लेकर ऐलान किया—'मुझे तो हैबत खां पर कभी एतबार नहीं रहा है। मौका आ गया है, इन दोनों को सबक सिखाना पड़ेगा। और हुमायूं सरहद के नजदीक आ गया है। मैं भी गफलत में नहीं हूं, हिन्दुस्तान की जमीन पर मुगलों को पांव नहीं रखने दूंगा।

दीवाने अरीज के वजीर (वजीरे जंग) ने उठकर बताया कि हमारी फौज हर वक्त तैयार है। हर फौजी छावनी पूरी सरह चुस्त और चौकस है।

सदर मुहतसिब ने खबर दी कि बाजार की हालत ठीक है। रिआया को कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन किले में सेठ सोहन लाल की ओर से गल्ला नहीं आ सका है। मालवे की ओर से फौज तो लौटकर आ गयी है। इसी वक्त सेठ के पास फरमान भेजा जा रहा है।

'अभी फरमान भेजकर सेठ को बुलाया जाये और इस लापरवाही की वजह पूछी जाये।' बादशाह ने हुक्म दिया।

वकील (मुख्य सचिव) ने खुशी जाहिर करते हुए बताया। 'सूफी शायर मंझन आगरा में हाजिर हुए हैं, वैसे वे मुगलों के तरफदार शेख मुहम्मद गौस के मुरीद हैं। लेकिन जैसे आम तौर पर सूफी शायर सियासत से अलग रहकर मसनवी लिखने में लगे रहते हैं, उसी प्रकार मंझन साहब देशी जबान में इश्कहकीकी का पुरलुत्फ किस्सा लिखकर पहुंचे हुए हैं। हुजूर की खिदमत में पेश करना चाहते हैं, इजाजत होने पर तीसरे पहर वे दरबार में हाजिर हो सकते हैं।'

'आज दरबार न हो, थोड़ा आराम जरूरी है। तीसरे पहर यहीं आ जाएं। मैं सुनना चाहूंगा, और सेठ सोहन लाल को भी बुला लिया जाय। अब तो पंजाब की फिक्र हो गयी है। हैबत खां नियाजी और ख्वास खां के मसले पर मुझे जल्द फैसला कर लेना है।'

यह कहकर बादशाह चांदी की कुर्सी से उठने लगे, सभी उठकर खड़े हो गए। बैठक खत्म हो गयी, झांझ और नफीरी बजने लगी। वे हरम की ओर चले गये।

वकील और वजीर की देखरेख में शाही हुक्मनामे तैयार होने लगे। सबसे पहले सेठ सोहन लाल के पास फरमान भेजकर उन्हें तलब किया गया।

सोहनलाल की खुशनसीबी थी कि हेमू का खरीदा हुआ गेहूं उसी सुबह आ पहुंचा था। फरमान पाकर वे नहीं घबराए। सोचा कि संकट टल गया, अब वे सहर्ष बादशाह हुजूर के पास पहुंचेंगे। साथ-साथ गेहूं भी किले के द्वार पर पहुंच जाएगा। उनका गुस्सा अपने आप ठण्डा हो जाएगा ! क्या साथ में हेमू को ले जाना ठीक रहेगा? ठीक ही रहेगा ! इसी के द्वारा गल्ले का काम होना है। साथ जाने पर जानपहचान भी हो जाएगी। मोहन के बारे में पूछा जाएगा, जवाब देना होगा। पर क्या जवाब दिया जाएगा?

सोहन लाल के चेहरे पर चिन्ता की रेखाएं उभर आयीं। जवाब तो होगा, मजहब बदल लिया—या मनमानी शादी कर ली–या आवारा हो गया ! इत्रफरोश से मजहब बदलने की खबर मिल ही जाएगी। छिपाना कठिन है, क्रोध भी नहीं किया जा सकता। उन्हीं का शासन है, शासक का ही मजहब है। काफिर का क्रोध व्यर्थ होगा!

हेमू प्रसन्न था कि उसे गेहूं की खरीद में सफलता मिली है। समय पर गेहूं किले में पहुंच जाएगा। अब वह आगरा में टिक सकेगा। अफगान बादशाह और उनके वजीरों को नजदीक से देखने और समझने का अवसर मिलेगा। अवसर तो आज ही है, क्या सेठ जी साथ ले जायेंगे ? पर आज सांझ तो छोटे सेठ की ससुराल में जाना है। मोहन लाल का प्रेमभाव तो अनुचित नहीं है। पर धर्म और मजहब सहज जीवन के रास्ते में रोड़े बन गए हैं, अपना धर्म ऐसे विवाह की अनुमति नहीं देगा। पुराने युग में तो ऐसा विवाह होता रहा है। इधर ये बन्धन कड़े होते जा रहे हैं। उनका मजहब धर्म, परिवार, परम्परा से अलग कर अपने में मिला लेता है और तब शादी भी करा देता है। यह अलगाव अनुचित है। क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि दोनों धर्म ऐसे प्रेम-विवाह की अनुमति दे दें। धर्म बदलने और परिवार से कटने की बात न आवे। दोनों पति-पत्नो को अपने-अपने विश्वास के अनुसार पूजा-पाठ की आजादी रहे। ऐसी आजादी मिलनी चाहिए। जैसे एक परिवार में शैव और वैष्णव रह सकते हैं, गुरु रामानन्द के शिष्य सगुण और निगुण राम की भक्ति में साथ-साथ चल सकते हैं। तो यह क्यों नहीं हो सकेगा, कबीरपंथी ऐसा मार्ग निकाल सकते हैं।'

सोहनलाल ने उसे बुलाया। वह उनके पास पहुंचा, बादशाह के पास साथ चलने का निर्देश दिया। वह भीतर से उल्लसित हो उठा, परन्तु गम्भीर बना रहा।

तीसरे पहर सेठ सोहनलाल हेम के साथ किले के दरवाजे पर जा पहुंचे। पीछे से गेहूं के बोरे भी गाड़ियों पर लदकर आ रहे थे। यमुना नदी को पार करना था, उन दोनों को किले के अन्दर जाने की इजाजत मिली। वे दोनों शाही महल के द्वार से होते हुए ऊपर के दीवानखाने में पहुंच गए। बैठने की जगह मिली, सूफी शायर मंझन भी मौजूद थे।

नफीरी के मधुर संगीत के मध्य बादशाह सलीमशाह सूरी का आगमन हुआ। सबके सिर झुके, सबने कोनिश की। बादशाह तख्तनशीन हुए।

वकील ने उठकर बताया कि सेठ सोहनलाल हाजिर हैं। सूफी शायर मंझन हमारे बीच आ गये हैं।

बादशाह ने कहा-'सबसे पहले सूफी शायर मसनवी के कुछ हिस्से को सुनावें, मैं सुनना चाहूंगा। सूफी शायर देशी जुबान को अपना कर मसनवी लिख रहे हैं। यह बहुत अच्छी बात है।'

मंझन ने मधुमालती के कुछ हिस्सों को सुनाना शुरू किया। पहले आरम्भ के अंशों को ही रखा-

प्रेम प्रीति सुखनिधि के दाता। दुइ जग एकोंकारि विधाता।
बुधि प्रगास नाही तुम ताई। तुअ अस्तुति जे करौं गोसाई।
तीनि भुअन चहुं जग ते राजा। आदि अंत जग तोहि पै छाजा।
आगे पैगम्बर साहब के बारे में बयान किया गया--

मूल मुहम्मद सभ जग साखा। विधि नौ लाख मटुक सिर राखा।
ओहि पटतर दोसर कोइ नाहीं। वह सरीर यह सभ परिछाहीं।

अब शाहेवक्त का वर्णन है-

साहि सलेम जगत भा भारी। जेई भूजी बर मेहिनि सारी।
जौ रे कोंपि पैंरी पां चापै। इंदर कर इंद्रासन कांपै।
नौ खंड सात दीप सम ठाऊं। भएउ भरम अति कित गा नाऊं।
और आगे इस सृष्टि के मूलभाव के बारे में कहा गया है-

प्रथमहिं आदि पेम परविस्टी। तो पाछे भई सकल सिरिस्टी।
उतपति सिस्टि प्रेम सों आई। सिस्टि रूप भर पेम सवाई।
जगत जनमि जीवन फल ताही। पेम पीर उपजी जिअ जाहीं।

इसके बाद तो राजकुमार मनोहर और राजकुमारी मधुमालती के प्रेम-विरह का वर्णन है !

बादशाह ने शायरी की तारीफ करते हुए कहा-'प्रेम का किस्सा बाद में सुना जाएगा। आज इतना ही रहे, शायर अणरा में ही रहें। अब हम वजीरों से राय-मशविरा करेंगे।

शायर मंझन खुशी-खुशी रुखसत हो गए। बादशाह के इशारे पर सोहनलाल ने खड़े होकर सलामी दी, और फिर बताया- 'बीमार हो जाने के कारण गफलत हो रही थी। बेटा भी शादी के बाद अलग हो गया है। लेकिन हुजूर की मेहरबानी से सारा गल्ला आ पहुंचा है। कुछ ही देर में किले के दरवाजे पर आ जाएगा, बीमारी की हालत में यह हेमचन्द्र रेवाड़ी से आ गया। इसकी मेहनत और समझदारी से मैं कसूरवार बनने से बच सका हूं।'

'बहुत ठीक, सेठ सोहन लाल ! मैं किसी तरह की लापरवाही को माफ नहीं करता। ईमानदारी से हुकूमत की खिदमत होनी चाहिए, मै आपके इस नौजवान को दाद देता हूं।' बादशाह ने जवाब दिया।

सोहन लाल के संकेत पर हेमू ने खड़ा होकर सिर झुकाया और कुछ कहने की इजाजत मांगी। सोहनलाल अचरज में पड़ गए, बादशाह को भी ताज्जुब हुआ, एक पल सोचकर इजाजत दे दी। हेमू ने साहस के साथ कहना शुरू किया—'जहांपनाह, बागी अमीर ख्वास खां ने रेवाड़ी के इलाके में काफी बरबादी कर दी है ! मेरी आंखों के सामने की बात है, मैं बरबाद होकर ही इधर आया हूं। ख्वास खां लाहौर पहुंच गया है, उधर मुगल भी अपने देश की सीमा के पास आ चुके हैं, ऐसा न हो कि पंजाब का सूबेदार हैवत खां ख्वास खां के बहकावे में आकर हुमायं की मदद कर दे।'

बादशाह सलीमशाह खुश हो गए। उन्होंने महसूस किया कि यह नौजवान होशियार और समझदार है। वे पूछ बैठे-'तो तुम्हारी सलाह क्या है ?

'मेरी छोटी बुद्धि में तो यही बात आती है कि ख्वास खां तथा हैबत खां में मेल न होने दिया जाए। दोनों को होशियारी से जुदा कर दिया जाए, ख्वास खां अकेला पड़ जाए, सरहद की चौकसी ठीक से होती रहे।' हेम ने निवेदन किया।

सारे वजीर बादशाह की ओर देख रहे थे। बादशाह हेमू के शब्दों पर विचार कर रहे थे। सोहन लाल अपना सिर खुजला रहे थे।

बादशाह बोल उठे-'नौजवान ! मुझे बहुत खुशी है कि तुमने सोच-समझकर सलाह देने की हिम्मत की है। तुम्हारी सलाह काबिले गौर है, तुम दरबार में आ सकते हो।'

हेमू का आत्मविश्वास जग गया, बादशाह के इशारे पर यह बैठक खत्म हो गयी। सलीम उठकर खड़े हो गए, सोहन लाल हेमू को बारबार देख रहे थे।

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