ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य हेमचन्द्र विक्रमादित्यशत्रुघ्न प्रसाद
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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!
पन्द्रह
संध्या हो गयी, आकाश के तारे तो बादलों में छिप गए थे। अन्धकार बढ़ता जा रहा था, पर घरों में दोप जलने लगे थे। यदि कोई ऊपर से देखता तो लगता कि नीचे तारे चमकने लगे हैं।
जमाल अहमद लक्ष्मी भवन के द्वार पर जा पहुंचा। हलास ने प्रणाम किया, पिछले द्वार से वाटिका में दोनों आ गए। मुंशी हरसुखलाल और हेमू ने द्वार पर स्वागत किया, मुंशीजी जमाल को अपनी कोठरी में लाये। दुर्गा-कुंवर और पार्वती-दोनों उपस्थित थीं, आहट पाकर दोनों उठ गयीं। जमाल मां के पैरों पर झुक गया। मां ने उठाकर हृदय से लगा लिया, आंसुओं से कन्धे भीग गए।
सिसकती हुई पार्वती बोल उठी— भैया ! मेरी भाभी कहां है ?'
'उसे तो नहीं ला सका, बहना !'
'क्यों, मैं उनका सत्कार नहीं कर सकती ?'
'पार्वती ! वह इस घर के लायक नहीं है।'
'पर मैंने तो भाभी के सत्कार-शृंगार के लिए सारी तैयारियां कर रखी हैं। हमारे मन को क्यों इतना दुखाते हो, भैया !'
'क्यों, मोहन ! तुमको मां पर कुछ भी दया नहीं आयी ?' यह मां का भीगा स्वर था। 'मां ! मैं विवश हो गया, मैं आप सब का मोहन नहीं रह गया। घर, परिवार, धर्म-सबसे दूर हो गया, फिर साहस नहीं हुआ कि।'
'मां और बेटे का नाता तो सबसे ऊपर होता है, इस बात को भूल गये ? मैं सांझ-सकारे रास्ता देखती रहती हूं, पिताजी का शरीर. गिर रहा है, और बहन घर के कोने-कोने में भाई को ढूंढ़ती रहती है।'
'मेरे अपराध को क्षमा कर दो, मां ! पर मैं जमाल अहमद बनकर कैसे आ सकता हूं।'
मुंशी चाचा ने कहा-'आप लोगों की बातचीत होती रहेगी। पहले इस मिलन के त्यौहार पर मुंह मीठा तो हो।'
'लाओ, पार्वती ! मैं अपने हाथों से बेटे को खिलाऊंगी।'
सोना थाली सजाने लगी, पार्वती ने अपने हाथों से अपने भैया के पैरों को धोया। फिर थाली लाकर सामने रखी, मां ने स्वयं अपने हाथों से खिलाना आरम्भ कर दिया। जमाल का हृदय भर आया, वह इतना स्नेह कहां सम्भाल कर रखेगा ! उसे तो ऐसा विश्वास नहीं था, अपना घर...अपनी मां...अपनी बहन-इतना स्नेह ! वहां केवल नरी...उसका प्रेम भी अगाध है, नूरी को लाना चाहिए था। फिर कभी..!
वह अपने हाथ से खाना चाह रहा था, पर मां तो अपने हाथ से खिलाकर तृप्त हो रही थी। आंखों से आंसू बह रहे थे, उसकी आंखें भी भीग गयीं। उसने पानी पीने के लिए हाथ बढ़ाया। मां ने पानी भी पिला दिया।
उसकी दृष्टि मुंशी चाचा और साथ खड़े हेमू पर गयी। वह पूछ बैठा-'क्या यही हेमचन्द्र हैं ?'
हेमू ने कहा- 'जी, हां ! मैं ही रेवाड़ी से भटकता हुआ आया हूं। आपके यहां शरण मिली है, काम कर रहा हूं।'
'सन्त जी रेवाड़ी के हैं ?'
'जी, हां !'
ठीक है, पिताजी की सहायता कीजिए। बादशाह सलीमशाह की फौजी छावनी को गल्ले की पूर्ति समय पर हो, यह ध्यान में रखना होगा।'
'पहले खा लो, फिर बातचीत करना।' मां ने उलाहना दिया।
पार्वती पंखा रखकर मिठाई परोसने लगी। हेमू ने पंखा झलना शुरू कर दिया, जमाल अहमद (मोहन) कभी पार्वती को मिठाई परोसने से मना कर रहा था और कभी हेमू को पंखा झलने से। पार्वती ने हेमू को पास से देखा। क्षण भर के लिए पलकें झुक गयीं, जमाल को लग रहा था कि वह अपने पूर्व परिवार के स्नेहपूर्ण मायाजाल में बंध गया है। पहले से ही बंधा था, बीच में उसने तोड़ दिया था। पर वह पूरी तरह तोड़ नहीं सका, मां और बहन के प्यार के बंधन को तोड़ना कठिन है।
उसने देखा कि पार्वती दही परोस रही है। वह गद्गद कण्ठ से बोल उठा—'देख बहना ! तुझे बचपन में पारो कहता रहा हूं, इतना खिलाओगी तो फिर पारो कहना शुरू कर दूंगा"
'पारो' शब्द सुनकर हेम् एक अनजान कम्पन से सिहर उठा। पंखा झलना रुक गया। उसकी दृष्टि पार्वती पर जा पहुंची, फिर वह सम्भल कर पंखा झलने लगा।
अथाह स्नेह और विविध व्यंजनों के साथ जमाल का भोजन पूरा हुआ। मां का हृदय तृप्त हो गया, पार्वती तो भैया को खिलाने-पिलाने में बेसुध थी।
जमाल भोजन के बाद मां और मुंशी चाचा के साथ एकान्त में बात चीत करने लगा कि अब वह क्या करे ? उसने विवाह तो कर लिया। पर जीवन कैसे चले ? पिताजी तो क्रुद्ध हैं।
मां भरोसा दिला रही थी। मुंशी जी को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या उत्तर दिया जाये ! वे सेठानी की बातों पर सिर हिला रहे थे। जमाल को थोड़ा भरोसा मिल रहा था, उधर सोहन लाल को भनक मिल गयी कि मोहन आया है। वे छड़ी के सहारे चलते हुए वाटिका में आ गए। देखा कि सारा परिवार यहीं है। जमाल ने देखा, घबरा उठा। पर मां के संकेत पर पिताजी के पास जाकर झुका। सेठ सोहन लाल ने जाने-अनजाने पीठ पर हाथ धर दिया। पूछा'क्या मोहन अपने घर लौट कर आ गया ?'
'आपसे मिलने आया हूं, पिताजी !'
'इलाहीबख्श के दामाद के रूप में या सोहन लाल के पुत्र के रूप में?
'दोनों ही रूपों में...।'
'नियम के अनुसार एक ही रूप में रहना पड़ेगा। मोहन कहूं या जमाल ?'
'मुझे जमाल तो बनाया जा चुका है, पिताजी पर आपका तो मोहन ही हूं।'
'जमाल बन गए तो मोहन नहीं रहे, अब मोहन कहाने का मोह क्यों ? हुकूमत भी जमाल अहमद और इलाहीबख्श की है, मैं तो काफिर प्रजा हूं।'
'ऐसा न कहें, बेटे को प्यार चाहिए और सहारा चाहिए। मुझे घर के काम धन्धे में लगा लें।'
'जमाल अहमद ! जिस साहस से इत्रफरोश की बेटी से व्याह किया है और घर-परिवार का त्याग किया है, उसी साहस के साथ जिओ। मैंने अपने काम-धन्धे में हेमू को लगा लिया है, अब किसी की जरूरत नहीं है।'
यह कहकर सोहन लाल छड़ी घुमाते हुए लौट गए, सबकी दृष्टि उन पर लग गयी। जमाल समझ नहीं पा रहा था कि किस पर क्रोध करे-अपने पर, अपने पिता पर या इस नवागन्तुक हेमू पर।
हेमू को भी लग रहा था कि वह इन दोनों के बीच कैसे आ गया। चाहा कि वह कुछ कहे, पर कुछ कह नहीं सका। वहां वह घुटन-सी अनुभव करने लगा।
मां ने बेटे को घर के भीतर चलने का अनुरोध किया। जमाल ने हाथ जोड़कर अस्वीकार कर दिया। मां ने कुछ देना चाहा, उसने देखा भी नहीं, वह मां के चरणों पर झुका। पार्वती की पीठ को थपथपा दिया। मुंशी चाचा को नमस्कार किया, हेमू की ओर देखा, आंखों में असन्तोष झलक उठा। पर हेम ने विनम्रता के साथ प्रणाम किया। जमाल झटके से वाटिका के द्वार से निकल गया।
मां द्वार पर पहुंच गयी, अंधेरे में देखती रही। सिसकती रही, पार्वती ने मां को सम्भाला। साथ लेकर भीतर चली गयी। लक्ष्मीभवन के कक्ष में साड़ियों का ढेर था। आभूषणों की चमक थी, अब इनका क्या मूल्य था ? लगा कि ये सब व्यर्थ हैं। मां चीख पड़ी-'यह सब मेरी आंखों के आगे से दूर करो।'
'नहीं, मां ! ऐसा मत कहो, निराश मत हो, भाभी को उपहार जाएगा। कोई रोक नहीं सकेगा।' पार्वती ने बड़े विश्वास से समझाया।
'वह लौटा देगा।'
'एक बार...दो बार....तीन बार...बार-बार जाएगा।'
'कौन लेकर जायगा, बेटी ! काम सहज नहीं है।'
'मुंशी चाचा हैं, सन्त जी के पुत्र हेमचन्द्र हैं।'
दुर्गा कुंवर ने सोच-विचार कर हेमू को बुलाया। हेमू कुछ सोचते हुए-कुछ समझते हुए आ गया। पार्वती सिर झुका कर बैठी रही, मां दुर्गा कुंवर ने करुण स्वर में कहा—'हेमचन्द्र ! मां के हृदय को समझ रहे हो ? मेरी सहायता करो।'
'मां जी ! आप आज्ञा करें।'
'पहले तुम अपनी सम्मति दो, बेटे की बहू तुरुक है। बेटा भी विधर्मी बन गया है, घर का बन्धन तोड़कर चला गया है। पर मां का हृदय तो नहीं मानता, बहन भी बेचैन है। बहू को कपड़े-गहने-मिठाई भेजना सही है न !'
'जी हां, बिल्कुल उचित है।'
'पर मोहन तो डांट-फटकार सुनकर खाली हाथ लौट गया। क्या वह स्वीकार करेगा ?'
‘मैं मनाने की चेष्टा करूंगा, मां जी ! मुझ पर विश्वास रखें।'
'कल संध्या में...क्यों, पार्वती! कल संध्या में उपहार सजा लोगी?"
'जी, हां ! कल संध्या में ही...।' पार्वती ने धीरे से उत्तर दिया।
'तो ठीक है, हेमचन्द्र ! कल संध्या में अपनी बुद्धि से उपहार पहुंचा दो। मेरे बेटे को प्रसन्न कर दो।'
'आपकी आज्ञा का पालन होगा।' हेमू ने कहा।
उधर बादशाह सलीम शाह सूरी मालवा से लौटकर किले में प्रवेश कर रहे थे। काले पर्वत से हाथी पर कसे सुनहले हौदे में बैठे. थे। सिर पर जड़ाऊ छत्र था, आगे-आगे अलम-बरदार अलम लिये चल रहे थे। सोंगे बज रहे थे, किले के प्रवेश द्वार पर दमामा दहल और नफीरी के संगीत से बादशाह का स्वागत हो रहा था।
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