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ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य

हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


चौदह



मुंशी हरसुख और हेमू गल्ले की खरीद का काम पूरा कर लौट आए। दोनों वर्षा में भीग गए थे। हेमू को थोड़ी सर्दी हो गयी, पर उसने चिन्ता नहीं की। वह तो खुश था कि खरीद का काम पूरा हो गया, सेठ सोहनलाल को बादशाह से मुंह छिपाना नहीं पड़ेगा। अब लक्ष्मीभवन के व्यापार को धक्का भी नहीं लगेगा। तीन दिनों के अन्दर खरीदा हुआ गेहूं बैलगाड़ियों से आ जाना है। किसानों को मूल्य का आधा भाग दे दिया गया है, शेष आधा आगरे में दे दिया जाएगा, और फिर यहां से सारा गेहूं किले में पहुंचाना होगा। सम्भव है कि उसे भी शाही किले में जाना पड़े। 

मुंशी हरसुख लाल ने हेमू को विश्राम करने के लिए कहा। वह सर्दी में छींक रहा था, दोपहर हो चका था, बादल फट गए थे, धप निकल आयी थी। हेमू ने शरीर में सरसों का तेल लगाकर स्नान किया। ताजे फूलों से राधावल्लभ की मूर्ति की पूजा की। चिता भस्म की डब्बी को भी फूलों से सजाया। दो क्षण ध्यान लगाए रहा, दासी सोना गर्म-गर्म दूध में हल्दी मिला करके ले आयी। मुंशी जी के संकेत पर हेमू ने पी लिया। कुछ देर बाद भोजन की थाली आयी, उसने एकाध रोटी खा ली और फिर लेट गया। सो जाने का प्रयत्न करने लगा, पर उसके आगे सीकरी के आसपास के गांवों का दृश्य झलक रहा था। दो क्षण के बाद सीकरी की पहाड़ी दिखायी पड़ने लगी, पहाड़ी पर सफी शेख सलीम चिश्ती की खानकाह बनी हुई है। शेख साहब ने मुगल सरदार बाबर के लिए दुआएं की थीं, राणा सांगा पराजित हो गए थे, बाबर की विजय हो गई थी। इसी खुशी में बाबर ने सीकरी में खानकाह बनायी थी, अब सीकरी की पहाड़ी सूफियों का केन्द्र बन गयी है।

अजमेर चिश्तियों के सूफी सम्प्रदाय का सबसे बड़ा केन्द्र है। अजमेर के आसपास रहकर ही ख्वाजा मुईनउद्दीन चिश्ती ने मुहम्मद गोरी की विजय में मदद की थी। उन्हीं की दुआ से मुहम्मद गोरी ने दिल्ली में तुर्क हुकूमत की नींव डाली और तब से–१२वीं सदी से तुर्क राज्य चल रहा है, केवल शाहों का खानदान बदल रहा है। शायद इसीलिए अजमेर वाले ख्वाजा तुर्कों में इतने बड़े मान लिये गये हैं। अब सीकरी की खानकाह मुगलों की मददगार बनी हुई है। लगता है कि अफगान बादशाह का इस पर ध्यान नहीं गया है। आगरा के पड़ोस में भेदिया मौजूद हैं, इस देश को कौन बचाएगा ?

यह सोचते-सोचते हेम को नींद आ गयी।
मुंशी हरसुख लाल ने भोजन कर थोड़ा विश्राम किया। विश्राम के बाद वह सेठजी के कक्ष के द्वार पर आ गया। वे भोजन कर विश्राम कर रहे थे, पर सोए नहीं थे। पत्नी दुर्गा कुंवर अपनी पुत्री पार्वती के साथ उपस्थित थीं। दासी सोना ने सूचना दी, मुंशी जी को बुलाया गया। मुंशी जी ने पास में ही बैठकर गेहूं के क्रय का विवरण दे दिया। हेमू की बुद्धिमत्ता की चर्चा करते हुए अपनी प्रसन्नता प्रकट की।

सोहनलाल ने पूछा-'हेमू कहां रह गया ?'
'वर्षा में भीग जाने के कारण उसे सर्दी हो गयी है। मैंने विश्राम करने के लिए कह दिया है।'
'ठीक ही किया, संतजी का पूत होनहार लगता है।'
'जी, हां ! होनहार है, तेजस्वी भी है, और वह बड़े संयम-नियम के साथ रहता है।'
'ऐसा ?'
'परन्तु वह अन्दर से बहुत दुःखी है।'
'क्यों ? वह किस बात से दुःखी है ? मैंने तो कह दिया है कि उसे कर्मचारी नहीं समझा जाएगा।'
'यह बात नहीं है। एक युवक हृदय की पीड़ा है, जिस कन्या से विवाह होने वाला था, वह कन्या बादशाह के सरदार ख्वास खां के विद्रोह और उपद्रव में मारी गयी। उसे वह भूल नहीं सका है, चिता की भस्म लेकर आया है, लगता है कि भम्म उसकी इष्ट देवी है। यह देखकर मन को बड़ी पीड़ा होती है। वह अपनी मुस्कानों में अपनी पीड़ा को छिपाये चलता है।'
'हृदय का इतना कोमल और संवेदनशील है ?'
'हां, सेठजी ! वह तो और कुछ भी है।'
'वह क्या?'
'वह शाहों-सुल्तानों की लड़ाइयों और जुल्मों की याद कर रोष में आ जाता है। मुगलों को तो देख नहीं सकता।'

'यह सब सोचेगा तो व्यापार का काम कैसे करेगा ?'
'मैंने तो उसे काम-धन्धे में कुशल पाया है।'
'तब तो ठीक है, जाइये, आप भी विश्राम करिये।'
मंशी हरसुख लाल कक्ष से निकलकर चलने लगे। दृष्टि पार्वती कंवर पर पड़ी। उसे लगा कि वह बड़े ध्यान से उनकी बातों को सुन रही है। दृष्टि मिलते ही उसकी आंखें झुक गयीं।

सोहन लाल को नींद आ गयी, पार्वती पंखा झलने लगी, सोना दासी आ गई, उसे मना कर दिया। वह पंखा झलती रही और सोचती रही- वृन्दावन के संत नवलदास, जो ओरछा से लौट रहे थे, यहीं ठहरे थे। उनके साथ हरिराम व्यास थे। उन्होंने श्रीकृष्ण और राधाजी की कथा सुनायी थी। राधाजी की प्रेम-विकलता की कहानी मन को छू गयी थी, पर ये हेमचन्द्र तो प्रेम की पीड़ा के पुजारी लगते हैं। भैया प्रेम में उन्मत्त होकर तुर्क बन गए और ये चिता की भस्म को इष्ट देवी मान बैठे हैं ! सभी पुरुष तो ऐसे नहीं होते। पिताजी तो दिन-रात रोष में ही रहते हैं। मां डरती रहती हैं, पड़ोस के चाचा के यहां भी यही बात है, पर सन्तजी का पुत्र तो अद्भुत है। हृदय कितना कोमल होगा-नारी-हृदय के समान। चिता भस्मी के आगे झुके हुए नयन दीप के समान जलते होंगे।

यह प्रेमी मन की रीझ है। मन की मनमानी है, सचमुच यही प्रेम है। यह प्रेम किसी बाड़ी में नहीं अंकुरता, किसी हाट में नहीं बिकता। यह तो मन की स्थिति है, मन का निश्छल अर्पण है, भैया ने अपने को अर्पित कर दिया और हेमचन्द्र ने भी अपने को।

पार्वती के हाथ का पंखा नीचे झुक गया, वह पंखा झल ना भूल गयी। मां दुर्गा कंवर को लगा कि उसे नींद आ रही है। उसने पंखा को अपने हाथ में ले लिया, उसे अपनी कोठरी में जाने को कह दिया। पार्वती सकपका गयी, उसे लगा कि उससे गलती हो गयी। वह प्रेम के बारे में क्या-क्या सोच रही थी ! मां को भान हो गया। वह लजा गयी, वह उठकर अपनी कोठरी में जाने लगी।

पार्वती अपनी कोठरी में आ गई। पता नहीं, क्या उसके मन में आया कि उसने एक अगरबत्ती जला दी। सुगन्धि फैलने लगी, उसने अपनी सांसों में सुगन्ध का अहसास किया। दो क्षणों के बाद उसने छोटी इलायची के दानों को मुख में डाल लिया। तृप्ति की अनुभूति में मग्न होने लगी।

दोपहर ढल रहा था। आंगन के खम्भे के पास लटके पिंजरे में सुग्गा बोल उठा। उसने मन में ही कहा- 'क्या वह रतनसेन का संदेश लाया है ? पर वह तो पद्मिनी नहीं है....पद्मिनी-सी सुन्दर नहीं है।'

दासी सोना दिखाई पड़ी, उसे सुग्गे को पके अमरूद देने को कहा। सोना अमरूद लाने गई, पार्वती कोठरी से बाहर आयी। सोना से अमरूद लेकर सुग्गे को दिया, सुग्गा अमरूद खाने लगा। पार्वती मुग्ध होकर देख रही थी, सहसा आंगन की दूसरी तरफ हुलास खड़ा दिखाई पड़ा। उसे आने का संकेत दिया, हुलास आ गया और धीरे से बोल उठा- 'दीदी जी ! आज भैया आ सकते हैं न !'

'ओह, मैं तो भूल रही थी। तुम संध्या में तैयार रहना, मैं भी।'

हुलास चला गया, सोना घर-आंगन और रसोई साफ करने का आदेश पाकर काम में लग गयी। पार्वती सोचने लगी-भैया को इधर बैठाया जाए या वाटिका में ! भैया के साथ भाभी आयेंगी, पिताजी का क्रोध जग जाएगा, दोनों का अनादर हो सकता है। यह अनूचित होगा, पर पिछवाड़े बैठाने पर भाभी क्या समझेगी ? वह सब जानती है, बुरा नहीं मानेगी। मां पिताजी को मना लेगी तो घर में लाया जाएगा। भाभी को साड़ी और गहने तो देने हैं, उसने तो मां से बातचीत नहीं की है। अब तो कह देना चाहिए, मुंशी चाचा को भी बता देना है। भैया तो उनसे मिलना चाहते ही हैं।

पार्वती वाटिका की ओर जाने लगी, जूही और बेला की लताओं के बाद चम्पा का पेड़ था। उसके बाद चमेली और गुलाब की क्यारियां थीं। उन क्यारियों के बाद हरसिंगार की छाया में कोठरियां बनी हुई थीं। वह उधर जा पहुंची। कोठरियों के द्वार बन्द थे, पर खिड़कियां खुली हुई थीं। पार्वती की दृष्टि गयी, वह हेमू की कोठरी थी, उसके पैर रुक गए। खिड़की से भीतर का दृश्य दिखाई पड़ गया। राधावल्लभजी की मूर्ति, भस्मी की डब्बी और बेठन में बंधी पुस्तकें फलों से सजी हुई...नहीं फूलों से पूजित...उसके हृदय की धड़कन बढ़ गयी, उसके पैर तेजी से आगे बढ़ गये। मुंशी चाचा अपनी कोठरी में सोए हुए थे, खर्राटे भर रहे थे। हुलास आ गया, उसने मुंशीजी के द्वार को खोल दिया। भीतर जाकर धीरे से जगाया, मुंशीजी की दृष्टि पार्वती पर गयी, इसलिए क्रोध जाग नहीं सका। बाहर आकर पूछा-

'क्या बात है बिटिया ?'

'मुंशी चाचा ! हो सकता है कि आज संध्या में भैया आ जायें। आपसे मिलना चाहते हैं, आप इधर ही रहेंगे।'

'हां, बिटिया ! जरूर रहूंगा, और तुम अच्छे-अच्छे पकवान भी बना लेना।'

'वह सब हो जाएगा, पर भैया को कष्ट न हो, उनका अनादर न हो।'

'सेठजी को मनाना टेढ़ी खीर है, बेटी !'

'उनको हम सभी मिलकर धीरे-धीरे मनायेंगे।'

यह कहकर पार्वती चली गई, रुचिकर पकवानों की तैयारी करने लगी। यह सब देखकर मां को अचरज हुआ, उसने मां के कानों में बता दिया। मां को विश्वास नहीं हुआ, पर पार्वती की मुस्कान ने विश्वास दिला दिया। उसके हर्ष की सीमा न रही, लगा कि खोयाखोया मातृत्व अपने को पा गया। रो-रोआं वात्सल्य से झूमने लगा, अपनी पेटिकाओं को खोल-खोलकर बहू के लिए कपड़े और गहने चुनने लगी। पार्वती को भी बुला लिया, मां-बेटी-दोनों साड़ियों और स्वर्णाभूषणों के चयन में बेसुध होने लगीं। बीच में मां बोल उठी“तुमने पहले क्यों नहीं कहा ? नये गहने बन जाते।'

पार्वती चुप ही रही।

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