ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य हेमचन्द्र विक्रमादित्यशत्रुघ्न प्रसाद
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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!
तेरह
उसे मां से मिल लेना चाहिए था। बहन के अनुरोध को मान लेना ठीक होता, वह क्यों भाग चला? पिता जी के तीखे बोल से वह घबरा गया, इस तरह घबराने से काम तो नहीं चलेगा। बहन क्या सोचती होगी? उसके मन में खटका लगा होगा कि वह मुंशी जी को क्यों खोज रहा था, वह मां और बहन के स्नेह को भूल गया ? वह विनती कर रही थी, वह विधर्मी तो नहीं मान रही थी। वह तो उसके लिए व्याकुल हो रही थी, तो क्या वह उसके स्नेह-प्रेम के बदले धन-दौलत के लिए विकल हो उठा है ? वह तो इसीलिए गया था। मुंशी जी से मिलने का तो मतलब यही था, मुंशी जी की सहायता से लक्ष्मी की प्राप्ति-भेंट नहीं हुई। वह चला आया, मां और बहन को धन के आगे भुला दिया। यह तो उचित नहीं हुआ। यह पाप नूरी के लिए ! वह तो धन-दौलत की भूखी नहीं है। वह प्रेम की सजीव मूर्ति है, उसका कोई दोष नहीं है। उसके लिए यह पाप नहीं। इलाहीबख्श के कारण ऐसा हो गया। यदि वे जोर नहीं देते तो वह मुंशी जी से मिलने दौड़ता नहीं, लेकिन जीने के लिए रुपये चाहिए। आज नहीं तो कल रुपये की जरूरत उसे घेरेगी। अपने पैरों पर खड़ा होना है, दाल-रोटी का जुगाड़ तो करना ही होगा।
इलाहीबख्श साहब की तो एक ही बेटी है। परेशानी क्या है ? वे इतना बेचैन क्यों हैं ? उन्हें जरूर लोभ हो गया है, जरूरत तो उसे है। पर वह बेचैन नहीं है। ससुर के इशारे पर क्या अपने पिता जी से उलझ जाय ? उन्होंने हेमचन्द्र को बुला लिया है। व्यापार में लगा लिया है, उनका काम तो नहीं रुकेगा। अब उसकी पूछ नहीं होगी। तो क्या उसका सब अधिकार समाप्त हो गया ? नहीं, उसका अधिकार समाप्त नहीं होगा। हेमचन्द्र के कारण उसका अधिकार नहीं। धर्म वदलने से उसके अधिकार पर प्रश्न चिह्न लग गया है, मां तो है। वह बेटे पर कृपा कर सकती है। पर वह उससे मिल कर नहीं आया, उसने उपेक्षा की, यह तो अपराध हो गया। इस बार अवश्य ही मिलेगा।
पार्वती कह रही थी कि भाभी को लेते आना। नूरी को कौन स्वीकार करेगा? नूरी के साथ जाने से अनादर होने की शंका है। नहीं, उसे साथ नहीं ले जाना है।
जमाल अहमद (मोहन) एक तनाव लिये लौट रहा था। तनाव और चिन्ता में डूबा इआ नूरी के घर पहुंच गया। लेकिन दरवाजे पर रुक गया। लगा कि दो लोग आहिस्ता-आहिस्ता बात कर रहे हैं, वह छिपकर सुनने लगा।
'चचा जान ! आप सुन लें, समझ लें। सेठ की जायदाद पर कब्जा हो जाय। मुझे आधा मिल जाय तो मैं नूरी पर से अपना दावा छोड़ दूंगा।'
'सरवर ! तुम्हारी धमकी गैरमुनासिब है। नूरी की शादी हो चुकी है, मोहन जमाल बन चुका है। जायदाद के लिए वह खुद कोशिश कर रहा है, लेकिन तुम धमकी मत दो, सेठ की जायदाद पर कोई दावेदार कैसे हो जाएगा?'
'मुझे धोखा दिया गया है, मैं बर्दाश्त नहीं करूंगा। मैं तो धमकी देता रहूंगा। सेठ की जायदाद में हिस्सा लेकर रहूंगा या नूरी को तलाक दिला दूंगा।'
'तुम्हारी धमकी से कोई खौफ खाने वाला नहीं है, सरवर मियां ! तुम अपनी हरकत बन्द करो। यह मजहब के खिलाफ है, अब तुम जा सकते हो।'
'मैं देख लूंगा।' '
बदतमीज ! निकल यहां से !'
सरवर गुर्राता हुआ बाहर आया। जमाल को देखा, आंखें दिखाता चला गया। जमाल ने भी हिम्मत के साथ आंखें मिलायीं, अपने गुस्से को जाहिर कर दिया। और फिर भीतर गया, पर वह इलाहीबख्श से नहीं मिला। उसके मन का तनाव बढ़ गया, सर भारी हो रहा था। इलाहीबख्श से मिलने पर तनाव और बढ़ सकता था। वह नूरी के पास गया।
नूरी इन्तजार कर रही थी। उसने जमाल को अपने पास पाया, वह मुस्कराती हुई उठकर खड़ी हो गयी। लेकिन उसने देखा कि जमाल साहब के चेहरे पर स्याह साया मंडरा रहा है, उसके तनाव और द्वन्द्व को समझ नहीं सकी। वह बोल उठी—'जानेमन ! तब से फिर दौसे-ख्याली में इक बुत को तराश रही हूं। और अपने दिल की धड़कन को उसमें भर रही हूं। लगता है कि बुत में जिन्दगी धड़कने लगी है।'
'नूरी ! इस बुत में जिन्दगी तो धड़कने लगी है। पर चेहरे पर चौदहवीं का चांद चमकते-चमकते सहम गया है।'
'मेरे चांद को चमकना है; सहमना नहीं है।'
"किसी शैतान की करतूत से चांद में ग्रहण लग जाने की शंका हो गयी है, नूरी ! लाचार होने लगा हूं।'
'हमारे इश्क के दरम्यान शैतान कहां से आ गया ? हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। अब्बाजान की दुआएं साथ हैं। हमें कोई जुदा नहीं कर सकता।'
'नूरी ! सरदर की धमकी है। जायदाद की ललक है। मैं क्या करूं ? तुम क्या चाहती हो?'
मेरे हमदम ! मैं क्या कहूं ? आप मेरे दिल की धड़कनों को पढ़ लें, मुझे न जायदाद चाहिए और न आपका बदला हुआ मजहब- मुझे तो मेरा मोहन चाहिए जिसे मैंने प्यार किया है।'
'सच, नूरी ! तुम सच कहती हो?'
जमाल के चेहरे का तनाव मिटने लगा। अन्दर का उल्लास धीरेधीरे प्रकट होने लगा।
'हुजूर ! अर्जासमा में इश्क है सारा–चारों ओर भरा है इश्क। हम हैं जनाबे-इश्क के बन्दे, नजदीक अपने खुदा है इश्क।'
यह कहकर नूरी ने अपने चेहरे को जमाल के सीने में छिपा लिया, जमाल सरवर की धमकी को भूल गया। तनाव से मुक्त होकर उसने चैन की सांस ही नहीं ली, वह तो अपनी मधुर अनुभूति में बेसुध हो उठा।
खाने के वक्त जमाल अलग-थलग बैठा था। अपना शाकाहारी भोजन कर रहा था। नूरी पर्दे में रहकर ही खिला रही थी। इलाहीबख्श थोड़ी दूर बैठकर खाना खा रहा था। वह चाहकर भी कुछ पूछ नहीं सका। नूरी की अम्मा ने भी इशारे से रोक दिया। वह चुप रह गया, पर उसे चैन नहीं था। वह जमाल से बातचीत के लिए उतावला हो रहा था।
सुबह इलाहीबख्श चुप नहीं रह सका, उसने बड़े स्नेह से समझाने की कोशिश की-'जमाल अहमद ! पूरी जिन्दगी का सवाल है। जिंदगी को जीने के लिए हिम्मत की जरूरत है। अपने हक को छोड़ना नहीं चाहिए, अपने वालिद से बातचीत करनी चाहिए।'
'वे बीमार हैं, इस हालत में क्या बातचीत हो !'
'जब वे अच्छे हो जाएं, तभी बातचीत करो। उनसे मुलाकात करते रहो।'
'जी, यही ठीक रहेगा।'
'उन्हें इशारा कर देना कि अगर वे बेटे का हक नहीं देगे तो उनके बाद सारी जायदाद हुकूमत की हो जाएगी।'
'ऐसा क्यों ?'
'यह सरकारी कानून है।'
जमाल गम्भीर हो गया, इलाहीबख्श ने सोचा कि तीर निशाने पर लगा है। उसने फिर कहा-'उसे काजी साहब से मदद मिल सकती है, अगर वह हिम्मत के साथ अपने हक के लिए खड़ा रहे।'
'मैं कहूंगा, लेकिन सोचता हूं कि धन-दौलत के लिए इतना बखेड़ा क्यों ? उनसे लड़ना उचित नहीं है।'
'यह लड़ना नहीं है, लड़ाई तो सल्तनत के लिए होती है। यह तो बेटे का बाप से अपना हक मांगना है।'
'यदि बेटे को बाप से प्यार है तो सब मिल जाएगा।'
'यह तो ठीक कहते हो, जमाल ! किसी भी मुश्किल में मैं मददगार हूं, अपने को अकेला मत समझना।'
'जी, हां !' यह कहकर जमाल घर से बाहर निकल आया।
रात में उसका मन हल्का हो गया था। नूरी के स्नेह से उसका सारा तनाव दूर हो गया था। सुबह फिर उसका मन भारी हो गया। हक, कानून और मदद-इन तीन शब्दों ने उसे घेर लिया। इस अफगानी राज्य का कानून भी अजीब है, वह क्या करे ? हक ''उसका हक कानून की मदद "धन-सम्पत्ति को पा लेना फिर सुख का जीवन- यह कैसा घेरा है ! वह क्यों नहीं अपने हाथों से धन अजित करे। फिर थोड़े में ही सुख से जिये, होना तो यही चाहिए। प्रेम का जीवन और अपने श्रम की रोटी-यह सोचता हुआ वह गलियों से होता हुआ दूर निकल गया।
बुनकरों की बस्ती थी, बुनकरों में कुछ इस्लाम को कबूल कर चुके थे। कुछ हिन्दू थे, दोनों का साथ-साथ रहना होता था। कपड़ा बुनाई का काम भी एक साथ करते थे, बहुत फर्क नहीं आया था, परन्तु मजहब अलग हो जाने के कारण मन में थोड़ा फर्क आ गया था। सामाजिक-धार्मिक व्यवहार में भी फर्क आने लगा था। हिन्दू बुनकर मुस्लिम बने बुनकरों को अपने से छोटा समझने लगे थे। मुस्लिम बने बुनकर हिन्दू बुनकरों को काफिर मानने लगे थे। मुल्ला के कारण मुस्लिम बुनकरों का दबाव बढ़ रहा था।
ये नये मुसलमान हिन्दी मुसलमान कहाते थे। अरबी, तुर्की, ईरानी और अफगानी मुसलमान अपने को बड़ा समझते थे। अपने को शासक मानते थे, इन हिन्दी मुसलमानों को अपने से छोटा ही समझते थे। हिन्दी मुसलमानों को इसका थोड़ा अहसास था, पर उन्हें लगता था कि वे हिन्दुओं की जातिगत भेदभावना के बन्धन से मुक्त हो गए हैं। वे अब शूद्र नहीं हैं, उन्हें कोई शूद्र कहकर डांट नहीं सकता है। अब उन्हें जन्म से छोटा मानकर झुककर जीने को लाचार नहीं किया जाएगा। अब तो हिन्दुओं का राज छिन गया है, मन्दिर टूट गए हैं, अब हिन्दुओं को छोटा बनकर जीना है। जजिया देकर जीना है, सैकड़ों साल हो गये, ये सिर उठाते हैं, कुचल दिए जाते हैं।
सीकरी की ओर से एक सूफी फकीर आया था। रात में ही आया था, मुस्लिम बुनकरों के पास ठहरा था, हिन्दी मुसलमान खुश थे। सूबह सबने देखा कि वह सूफी फकीर नाथपंथी योगी के समान योगासन कर रहा है। आसन के बाद माला लेकर आंख मूंदकर जप किया, उसके पास लोग इकट्ठे होने लगे। हिन्दी मुसलमानों के साथ हिन्दू भी आ गए, उसी समय जमाल अहमद भी पहुंच गया।
फकीर का वाज (उपदेश) शुरू हुआ। फकीर बोल रहा था-'हम सबको बनानेवाला एक है, इस खल्क का खुदा एक है। यह सारी दुनिया-सारी कुदरत उसका ही हुस्नो-जमाल है। उसका जमाल ही इस खल्क का जमाल है। हम इसे समझ नहीं पाते, शैतान हमें समझने से रोकता है। इसलिए हम दुनियाबी हुस्न और दौलत की ओर दौड़ते हैं। उन्हीं में मुब्तिला हो जाते हैं, हम मालिक से दूर होते जाते हैं, अगर सही पीर मिल जाए तो शैतान से नजात मिल सकती है। हम सच्चे मरीद बनकर उसके जमाल का दीदार कर सकते हैं। इश्क हकीकी का नया सूरज चमक सकता है। हम बेखुदी में खुदा के नजदीक पहुंच सकते हैं।
मलिक मुहम्मद जायसी साहब ने देशी जुबान में इसी सच्चाई को रखा है। उसके जमाल को–उसके हुस्न को हम देखें-पद्मावती की खूबसूरती में-
का सिंगार ओहि बरनौं राजा। ओहिक सिंगार ओहि पै छाजा ॥
प्रथमहि सीस कस्तुरी केसा। बलि बासुकि कौ और नरेसा ॥
भंवर केस वह मालति रानी। बिसहर लुरहिं लेहिं अरघानी ॥
बेनी छोरि झारु जौ बारा। सरग पतार होइ अंधियारा ॥
ऐसे ही ईश्वर से—अल्लाह से इश्क जरूरी है। यही इश्क हकीकी राजा रतनसेन का पद्मावती रानी के लिए है। इसी इश्क से हमारी जिन्दगी संवर सकती है, इंसान की जिन्दगी में सबसे बड़ी चीज यही इश्क है। एक-दूसरे को प्यार करें और उस मालिक से प्यार का रिश्ता जोड़ें। जायसी साहब कहते हैं-
भलेहि प्रेम है कठिन सुहेला। दुइ जग तरा प्रेम जेइ खेला ॥
फकीर का वाज (उपदेश) खत्म हुआ। सभी के सर झुक गए। फकीर ने सबको दुआएं दीं, हिन्दी मुसलमान अपने हिन्दू पड़ोसियों की ओर देख रहे थे। हिन्दू भी सिर हिलाकर समर्थन कर रहे थे। धीरेधीरे लौटने लगे, कुछ खड़े होकर फकीर को देखने लगे। कुछ हिन्दी मुसलमान फकीर के पास बैठकर हाथ दिखाने लगे। फकीर नजूमी भी था, वह हाथ देखने लगा, कुछ बताने लगा, लोगों पर असर पड़ रहा था।
जमाल अहमद (मोहन) उठा, चुपचाप चल पड़ा। सोच रहा थायहां भी हुस्न और इश्क की कहानी है। वृन्दावन में राधा और कृष्ण की प्रेम-कथा सबको रमा रही है। ये सूफी फकीर भी प्रेम की ही बात कर रहे हैं, देश की भाषा में इस देश की कहानी सुना रहे हैं, और प्रेम से अपने मजहब का प्रचार कर रहे हैं। यदि ऐसा हो तो किसी को शिकायत नहीं हो सकती है, लेकिन यहां तो हिन्दुओं को जजिया देना पड़ता है। उनके मन्दिर तोड़े जाते हैं, उन्हें दबाकर रखा जाता है, पर वह तो मुसलमान बन गया है। वह क्यों हिन्दू की चिंता कर रहा है ? दोनों को दो क्यों माना जाय ? जबर्दस्ती क्यों धर्म बदला जाए? उसे ही क्यों जमाल अहमद बनना पड़ा? इश्क के लिए यह रुकावट क्यों? और धर्म बदलने पर घर का अधिकार क्यों छीना जाए ? वह यही सब कुछ सोचता हुआ चलता रहा।
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