ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य हेमचन्द्र विक्रमादित्यशत्रुघ्न प्रसाद
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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!
बारह
हेमू और विजय यमुना-स्नान से लौटकर लक्ष्मी भवन आ गये। हेमू ने सबसे पहले सेठ सोहन लाल के चरण स्पर्श किए और फिर यमुनाजी का जल प्रदान किया। विजय भी उनके चरणों में झुका।
सोहन लाल गद्गद हो गए। यमुना-जल को माथे पर लेकर नामस्मरण किया। इन दोनों को आशीष दी। दोनों को बड़ा सन्तोष मिला।
हेमू और विजय सोहन लाल से अनुमति लेकर वाटिका की ओर आये। अपने कक्ष में आ गए। हेमू ने कम्बल बिछाकर थोड़ा योगासन किया। मुंशी हरसुख और विजय देखते रहे। हेमू ने चाहा कि खड्ग का भी थोड़ा अभ्यास हो जाय। परन्तु यहां तो नाथपंथी योगी शिवनाथ नहीं थे। कौन अभ्यास करावे। शस्त्रगुरु के सामने ही अभ्यास सम्भव है। किसी को ढूंढ़ना पड़ेगा। तब तक सीखे हुए हाथ को दुहरा लिया जाय। यह सोचकर हेमू ने खड्ग के प्रारम्भिक अभ्यास को दुहरा लिया।
मुंशी हरसुख अचरज के साथ हेमू को देख रहा था। विजय को बधाई दे रहा था कि उसे ऐसा सखा मिल गया है। विजय भी हर्षित था।
हेमू ने विजय की सहायता से अपनी कोठरी को संवारना आरम्भ किया। मुंशी हरसुख भी अपनी पूजा को पूरा कर आ गये। एक चौकी, एक मेज और एक कर्सी का प्रबन्ध कर दिया। कुछ क्षण के बाद देखा कि हेम ने मेज पर राधावल्लभ जी की मूर्ति रखी। काठ के एक छोटे डिब्बे को सामने सजाया। डिब्बे के पास कपड़े की गठरी में बंधी पुस्तकों को रख दिया। माली से पूछकर फूल तोड़ लाया। फूलों से मेज को सजाया। वह मेज मानो मन्दिर बन गयी। अगरबत्ती की सुगन्ध फैलने लगी।
हेमू ने पलकों को बन्द कर सेवाकुंज में स्थापित राधावल्लभ जी और उनकी भक्ति में लीन पिताजी का ध्यान किया। बन्द आंखों के सामने वह दृश्य झलक गया। परन्तु मन टिक नहीं सका। क्षण भर में दृश्य बदल गया। सेवाकुंज वसन्त के मेला में परिवर्तित हो गया ! मेला में पारो दिखायी पड़ी। लगा कि वसन्त पारो में साकार हो उठा है। फिर दूसरे क्षण में दृश्य पलट गया। पारो की जलती हुई चिता चमक उठी। और वह नम आंखों से मेज पर रखे डिब्बे में चिता की राख को देखने लगा। वह झुक गया, उच्छ्वास अगरबत्ती के धुएं में घुल-मिल गये।
विजय कोठरी से बाहर आया। मुंशी जी को उस डिब्बे का रहस्य बताया। मुंशी जी ने कहा-'तो हेमू राधावल्लभ जी के साथ अपनी पीड़ा की भी पूजा करता है।'
'हां, मुंशी जी ! इस पीड़ा में ही हेमू अपने गांव से वृन्दावन आ गया। और वृन्दावन से आगरा तक।'
‘पर इस पीड़ा की ओषधि आगरा में ?'
'नहीं, मुंशी जी ! इस पीड़ा का कारण आगरा और दिल्ली में है। शाहों-सुलतानों की लड़ाइयों से गांवों का उजड़ना, खेती-व्यापार का लुट जाना, बहू-बेटियों का विनाश और मन्दिर-मठों का विध्वंससब तो होता रहता है।'
‘पर वह क्या कर सकेगा? राणा सांगा ने तो विदेशी मुगलों को रोकना चाहा था।'
ये मुगल फिर आ रहे हैं। हेमचन्द्र चाहता है कि अफगान बादशाह प्रजा की सहायता से विदेशी मुगलों से जूझने को तैयार हों। ऐसा हो कि गांव न उजड़े, पारो की मृत्यु न हो और प्रजा पर जजिया कर न लगे।'
'अफगान राज्य में प्रजा को थोड़ा चैन तो है। राज्य के लिए लड़ाइयां तो होती ही रहेंगी। लड़ाई में फौजी सिपाही और सिपहसालार रावण हो जाते हैं। कोई रोक नहीं पाता है। खून की प्यास बड़ी भयानक है। पर इसी में खेती और व्यापार को होना है। रो-गाकर जीना है। और तुर्क-अफगानों के राज्य में जजिया भी चुकाना है, काफिरों को चुकाना है। हम क्या कर सकते हैं ?'
'यह तो है ही...सैकड़ों वर्षों से हम पिस रहे हैं। इन पर कालदेवता खुश हैं।'
'विजयवाहन ! यह सन्त जी का पुत्र व्यापार-धन्धा करेगा या राणा सांगा के रास्ते पर चलेगा? कुछ समझ में नहीं आता।'
हेमचन्द्र कोठरी से बाहर आ गया। उसने मुंशी जी की बात सून ली। क्षण भर के लिए ठिठक गया। वे दोनों उसकी ओर देखने लगे।
हेमू मन्द स्वर में बोल उठा-'मशी जी ! मैं राणा जी कैसे बन सकंगा ! पर उनको याद करना कैसे भूल जाऊं ! मै व्यापार-धन्धे के लिए आगरा आया हूं। आपके साथ तुला उठाऊंगा। यह अवश्य चाहता हूं कि सभी लोग योग और शस्त्र-दोनों का अभ्यास करें। गुरु रामानन्द, कबीरदास, गुरुनानकजी, गोस्वामी हितहरिवंश और वल्लभाचार्य से हम जीने का नया विश्वास पा लें। विवश होकर नहीं जियें। स्वाभिमान और साहस के साथ जियें। अफगान शासन को थोडा और उदार बनकर प्रजा के पास आना है। प्रजा की भावना का आदर करना है।'
'सही बात बोल रहे हो, बेटे ! बड़ी ऊंची बात है। मैं तो इस लक्ष्मी भवन का मुंशी हूं। कितनी बातें सोचूं !'
'मैं भी लक्ष्मी भवन का कर्मचारी बन गया हूं, मुंशी जी ! पर सोचना तो है।'
'जरूर सोचो। गल्ले की खरीद के लिए बाहर जाना है। पहले इसके लिए तैयार होना है !'
'मैं तैयार हूं।'
'मैं तो मथुरा लौट जाऊंगा।' विजय ने कह दिया।
'फिर कब मिलना होगा, विजय ? अभी रुको न !'
'मैं कहीं भी हूं, हेमू भाई ! सदा साथ हूं।'
सभी सेठ सोहनलाल के पास पहुंचे। सबका एक साथ ही अल्पाहार हुआ। विजयवाहन ने लौटने की आज्ञा मांगी। सोहनलाल ने सन्त पूरनदास जी को अपना संदेश दिया-विजय ! हेमचन्द्र को पुत्र के समान मानूंगा। इसे कोई कष्ट नहीं होगा। सन्त जी निश्चिन्त रहें। यह व्यापार में आगे बढ़ेगा ! और क्या कहूं !'
'हां, चाचाजी ! आपके संदेश को सन्त जी के समक्ष निवेदित कर दूंगा। आप अपने दुःख को भुलाने का यत्न करें।' विजय ने विनम्र स्वर में अनुरोध किया।
'चाहता हूं, बेटे ! कि उस पतित को भुला दूं। पर उसकी मां को देखकर भूल नहीं पाता ! वह इस नगर में है...पर कितनी दूर है !
कुछ कर नहीं सकता। न स्नेह और न क्रोध। इस शासन में जमाल अहमद साहब पर कैसे क्रोध किया जाएगा !'
'आप बहुत सोचते हैं। अशान्त रहते हैं। आप मन की शान्ति के लिए वृन्दावन आ जाएं-कुछ दिनों के लिए।' विजय ने परामर्श दिया।
'आना चाहता हूं, बेटे ! पर सब कैसे छोड़ दूं ? हेमचन्द्र को व्यापार का काम सीखना है। थोड़ा समझा दूं। बेटी पार्वती है। हाथ पीला करना है। बड़ी समस्या है।'
कक्ष में सन्नाटा छा गया। द्वार पर सोहनलाल की पत्नी दुर्गा कुंवर और बेटी पार्वती कुंवर दोनों आ गयीं थीं। वे रुक गयीं, आंखें झुक गयीं।'
कुछ क्षणों के बाद विजय ने सन्नाटे को दूर किया। उसने विदा होने के लिए आज्ञा मांग ली। मुंशी जी को भी हेमू के साथ गल्ले के क्रय के लिए अनुमति मिल गयी।
तीनों एक साथ लक्ष्मी भवन से निकले। कुछ दूर तक साथ-साथ चले। विजय अपने घोड़े पर चल पड़ा। हेमू देखता रह गया। ऊमस बढ़ रही थी। पर वह विजय की निरन्तर धुंधली होती आकृति को देख रहा था।
इधर लक्ष्मी भवन में मां दुर्गा कुंवर पार्वती के साथ बेटे मोहन के बचपन की कहानियों का स्मरण कर रही थी। मोहन प्रतिदिन पूजा के समय वाटिका में चला जाता था। खिले फूलों को तोड़ लाता था। माली से पूछ-पूछकर हर फूल का नाम ध्यान में रखता। हर फूल का नाम बताकर थाली में सजा देता। वह प्रसन्न हो मोहन को हृदय से लगा लेती। और पूजा में अपने मोहन के लिए राधा-मोहन से प्रार्थना करती।
एक बार मोहन फूल लेकर नहीं आया। माली भी नहीं आया। पूजा में विलम्ब हो रहा था। माली से पूछताछ हुई, वह दौड़कर आया। वह घबराया हुआ था। उसने बताया कि मोहन लालजी फूल लेकर चले आए थे। यह तो चिन्ता की बात हो गयी। सारे सेवक दौड़ पडे। घर और वाटिका में खोजने लगे। वह तो भगवान का स्मरण कर रही थी। कुछ देर के बाद वह माला लेकर आ पहुंचा। पता नहीं, कहां छिपकर बैठा था ! वह पूजापाठ भूल गयी। वह केवल देखती रही। कभी मोहन को और कभी उसकी गूंथी हुई माला को।
मोहन बोल उठा---'मां, माला अच्छी बनी है न ! यदि अच्छी बनी है तो मुझे पुरस्कार मिलना चाहिए ! माली चाचा की माला से अच्छी है न?'
सभी मुस्करा उठे। तुम्हारे पिता जी का रोष ठण्डा पड़ गया। वे भी मुस्कराने लगे, और फिर सबने देखा कि वे सोने की अंगूठी पुरस्कार में दे रहे हैं। आनन्द छा गया। और आज उसने मंगल भवन को अमंगल बना दिया है। वह ऐसा कैसे हो गया? वह आता। उसे आशीष देती, भूल जाती कि वह विधर्मी हो गया है। और उसकी बहू तुरुक है- मांस खाने वाली, पर वह कैसे आए ? इनका क्रोध जेठ के सूरज के समान धधक रहा है।
पार्वती की आंखों में आंसू आ गए, वह स्मरण कर रही थी कि भैया मोहन उसे कितना मानते थे। कहानियां सुनाया करते थे, वे कैसे होंगे ? क्या उन्हें याद नहीं आती होगी? वह कितनी श्रद्धा मे खिलातीपिलाती थी ! वे दोनों साथ-साथ वाटिका में घूमते थे। अपनी-अपनी तितलियों के रंग-रूप का मिलान करते थे। आम पकने लगे हैं, पर भैया नहीं हैं, बहुत दूर हैं। वह कैसी होगी जिसके लिए उन्होंने सब कुछ बिसार दिया है ! राजा रतनसेन पद्मिनी के लिए योगी बनकर निकल गए थे। पर वे योगी नहीं बने, वे तो तुरक बन गए। क्या वहां उन्हें घर का सुख मिल रहा होगा? इतने सुख-वैभव में पले हैं ! वे कैसे रहते होंगे? यहां का शुद्ध-पवित्र खाना-पीना-वहां क्या खाते होंगे ? वे सब भूल गए, क्या स्त्री के प्रेम में पुरुष इतना बदल जाता है ?
इस प्रकार मां-बेटी मोहन का स्मरण कर लेतीं, रो-धो लेतीं। मन हल्का हो जाता, दिन बीतता जाता।
लक्ष्मी भवन के तीसरे तल्ले से बहुत दूर पश्चिम में सूरज डूब रहा थी। उसकी लाली पर धीरे-धीरे काला रंग चढ़ रहा था। पंछी अपने घोंसलों की ओर चले जा रहे थे। लक्ष्मी भवन का सेवक हुलास दीपों को साफ-सुथरा करने लगा। पार्वती सोच रही थी कि वह एक दीप भैया के कक्ष में जला दे। पर पहले पूजा-घर में तो दीप जल जाय ! वह पूजा-घर में दीप जलाने की तैयारी करने लगी। हलास भवन के बाहरी द्वार के पास दीप जलाने आ गया। उधर पार्वती पूजाघर में दीप जलाकर मोहन के कक्ष में दीप जलाने लगी। वातायन से बाहर की झलक मिल रही थी, हुलास ने दीप जला दिया था। उसी समय कोई आता दिखई पड़ा, पार्वती का हृदय धड़कने लगा, वह द्वार पर आ गयी। ओट में खड़ी हो गयी। आने वाला हुलास से बातचीत करने लगा। उसने स्वर को पहचान लिया, वह हर्ष के आवेग में बाहर आ गयी। बोल उठी-'भैया ! इतने दिनों के बाद सुधि आयी है ?'
'पार्वती !' जमाल (मोहन) इससे अधिक बोल नहीं सका। पलभर स्नेह से बहन की ओर देखता रहा। और फिर उसकी आंखें झुक आयीं।
'भैया ! हमने कौन-सा अपराध किया है कि आपने आंखें फेर ली हैं?'
'मैंने अपराध किया है, पार्वती ! इसलिए सबने मुझसे आंखें फेर ली हैं।
'मां ने आपको कभी अपराधी माना है ? छोटी बहन ने कभी कुछ कहा है ? हमारी तो आंखें पथरा गयी हैं -बाट जोहते-जोहते।'
'पर मैं तो अब विधर्मी हूं, म्लेच्छ हो गया हूं। सभी तो मुझसे घृणा करते हैं।'
'नहीं, भैया ! ऐसा नहीं है, हम तो अपनी वाटिका में तितलियों के पीछे दौड़ते थे। कभी अलग नहीं होते थे, इस बार तुम एक तितली के पीछे दौड़ते-दौड़ते दूर चले गए। बहना रास्ता देखती रह गयी।'
'नहीं, पार्वती ! भाई और बहन को तो अलग-अलग रास्ते पर जाना ही पड़ता है। मैंने एक नया रास्ता अपना लिया है।'
'मां की गोद को छोड़कर !'
'नहीं-नहीं, ऐसा न कहो।'
'तो चलो भीतर 'मां से मिल लो।'
'मुंशी जी से मिलना है, उनसे मिलकर फिर...।'
'मुंशी चाचा तो नहीं हैं।'
'कहां गए ?'
'वे तो गल्ले की खरीद के लिए गांवों की ओर गए हैं।'
'अकेले गए हैं ?'
'नहीं, भैया ! वृन्दावन के सन्त पूरनदास जी के पुत्र हेमचन्द्र को भी पिताजी ने काम में लगा दिया है। दोनों आज ही गए हैं। परसों तक आ जायेंगे।'
भीतर से सेठ सोहन लाल के शब्द तैरते हुए आ गये- 'दीप जलाने में देर क्यों हो रही है ? पार्वती ! कहां हो ? हुलास कहां चला गया ?'
जमाल अहमद (मोहन लाल) घबरा गया। अब उसे रुकने का साहस नहीं हुआ। वह कहता निकल गया कि वह परसों तक आएगा, मां से भी मिलेगा।
'भैया ! रुको....खा-पीकर जाओ।'
जमाल एक बार मुड़ा, फिर आगे बढ़ गया।
'भैया ! भाभी को साथ लेते आना।' पार्वती के शब्द जमाल (मोहन) तक पहुंच गए। पर वह अंधकार में बढ़ता चला गया। पार्वती अंधकार में आंखें गड़ाये खती रही। पिता के शब्द सुनायी पड़े, वह अन्दर लौट गयी, परन्तु परों में कम्पन था। हृदय में उथल-पुथल हो रही थी। उसने क्षणभर विचारा, फिर हुलास को कह दिया कि वह भैया के आने की चर्चा न करे। हुलास ने सर हिला दिया, वह डांट सुनता हुआ दीपक जलाने लगा।
पार्वती सोच रही थी कि दो दिन अपने को सम्भालना है। यदि भैया आ गए तो मां कितनी प्रसन्न होगी ! पर वे तो मुंशी चाचा को खोज रहे थे, मुंशी जी के लिए इतनी विकलता क्यों ? मां के लिए क्यों नहीं ? बहन से बातचीत करने के लिए चाह क्यों नहीं ? बात क्या है ? जो भी हो, वे आयेंगे, यही बहुत है। पर पिता जी का क्रोध !
क्या वे ठहर सकंगे ? पार्वती ऐसी ही अनेक बातें सोचती रह गई।
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