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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


ग्यारह



नी ने अपने जमाल (मोहन) के लिए नाश्ते का इन्तजाम किया। वह दोनों वक्त नाश्ते और खाने को अलग से तैयार कर लेती थी। उसकी कोशिश रहती थी कि गोश्त की बू तक न मिले। उसने अच्छी तरह से समझ लिया था कि सेठ का खानदान बैश्नो रहा है। नाश्ता और खाना वहत पाक होना चाहिए। सचमुच यह ख्याल बहुत अच्छा है, वे कहते हैं कि तन और मन पाक-साफ हों तभी आदमी के अन्दर इंसानियत पैदा हो सकती है।

जमाल (मोहन) कुछ गुनगुनाता हुआ आ पहुंचा। देखा कि दस्तर ख्वान पर कचौड़ी और हलवा की तश्तरियां सजी हैं। नूरी पंखा लेकर खड़ी है। उसने नूरी के हाथ से पंखा लेकर नीचे रख दिया और कहा- 'दोनों के बीच में इसकी क्या जरूरत है ?'

'तो क्या मक्खियों के सरगम की जरूरत है ?' मुस्कराती हुई नूरी ने पूछा।

'दोनों के बीच में प्रेम-संगीत की जरूरत है, जानेमन ! देखो न ! सूफी शायर मंझन याने जुम्मन ने लिखा है-

पेम अमोलिक नग सयंसारा, जेहिं जिअं पेम सो धनि औतारा।
पेम लागि संसार उपावा, पेम गहा बिधि परगट आवा॥
'क्या मतलब हुआ ? जरा समझा दो ना !'

'तुम्हें तो सिर्फ फारसी और खड़ी बोली की खिचड़ी जुबान चाहिए। एक वे मिया मंझन हैं, जो इस देश की भाषा में प्रेम-कथा सुना रहे हैं। मियां मंझन से कुछ तो सीखो।'
'अब तो सीखना ही है, हजरत ! आप हर हफ्ते परेम का किस्सा लाते रहे हैं। खोज-खोजकर लाते रहे हैं। सुना-सुनाकर सिखा दिया है परेम-इश्क का ढंग।'

'साफ-साफ कह दो कि नल-दमयन्ती, लोरिक-चन्दा और रतनसेनपद्मिनी की कहानियां सुना-सुनाकर बहला दिया, फुसला लिया।'

'बात तो यही है, जनाब !'

'तुमने लैला-मजनू और शीरी-फरहाद की कहानियां नहीं सुनायी थीं। ठीक है, अब मैं नहीं सुनाऊंगा।'
'लोरिक और चन्दा का वस्ल हो ही गया, तब क्या ?'
और दोनों एक साथ मुस्करा उठे।
'हां, तो सूफी कवि कहता है कि प्रेम इस संसार का बेशकीमती नग है। जिसके दिल में प्रेमभाव है, उसका पैदा होना धन्य है। विधाता ने प्रेम के लिए-इश्क के लिए संसार को बनाया है, और खुद प्रेम को लेकर ही इस संसार के रूप में वह प्रकट हुआ है। बात कुछ समझ में आयी ?' जमाल (मोहन) ने गम्भीर होकर पूछा।

'थोड़ा-थोड़ा समझ रही हूं, इसीलिए परसाद के रूप में हलवा पेश कर रही हूं। हुजूर कबूल करें।'
जमाल अहमद मुस्कराता हुआ नाश्ता करने लगा। नूरी पंखा झलने लगी, नोंक-झोंक भी चलती रही।
बाहर के कमरे से इलाहीबख्श की आवाज आयी। दोनों मुखातिब हुए। इलाहीबख्श बातचीत के लिए जमाल को बुला रहे थे।
जमाल अहमद नाश्ता के बाद इलाहीबख्श के पास जा पहुंचा। इलाहीबस्श ने बड़े प्रेम से बैठने को कहा। वह बैठ गया, वह समझ नहीं रहा था कि उसे किसलिए बुलाया गया है। उसने देखा कि उसके ससुर सन्दूक में सजी शीशियों को निकाल रहे हैं। इत्र की शीशियां हैं, इन्हें छोटे-छोटे डब्बे में रख रहे हैं, किस्म-किस्म की खुशबू कमरे में 'फैल रही है। उसे बड़ा अच्छा लगा, सहसा उसने पाया कि इलाही बख्श रुई के फाहे में इत्र लगाकर देने लगे। उनके होंठों पर मुस्कान थी, आंखों में मिन्नत थी, उसने रुई के फाहे को लेकर सर झुकाया। इलाहीबख्श खुश हो गए। वे बोल उठे-

'बेटे जमाल ! मैंने सरवर की धमकियों की फिक्र नहीं कर तुम्हें अपनी बेटी बख्श दी है। यह तुम ख्याल रखना। किसी का खौफ नहीं है। खुदा हाफिज है, अब तुमको अल्लाह और दीन पर ईमान लाना है। इसके लिए पांचों वक्त नमाज बहुत जरूरी है। आहिस्ताआहिस्ता सब सीख जाओगे, ठीक है न !'
‘जी, हां ! धीरे-धीरे सीख रहा हूं, अब्बा हुजूर !'
'सरवर अभी भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। लेकिन तुम्हें बेखौफ रहना है। बस, तुम्हें जमाल अहमद बनकर उस पर हावी हो जाना है।'
'मुझे तो अजीब लगता है। वह आपका भतीजा है। नूरी का चचेरा भाई है। फिर इस तरह की हरकतें क्यों?'
'अपना-अपना मिजाज है। चूंकि शादी नहीं हो सकी, इसलिए वह गुस्से में है।'
'यह तो अच्छी बात नहीं है।'
'मैं उसे समझा लूंगा, जमाल ! तुम्हें भी कुछ समझना है।'

'क्या समझना है ?
'मौलवी साहब से फारसी पढ़ना शुरू कर दो।'
'हम तो हिन्दुस्तान के हैं। इस देश की भाषा में हम...।'
'लेकिन मजहब की किताबें तो अरबी-फारसी में हैं।'
'सूफी फकीर तो इस देश की भाषा में मजहब की बातों को रख रहे हैं। सूफी शायद कुतुबन, जायसी और मंझन–सभी तो अवधी में लिख रहे हैं। मंझन साहब तो आगरा में आए हुए हैं। जरूर सुना होगा !'
'हां, सुना तो है। लेकिन हमारे बुजुर्गवार तो बाहर से आए थे। हमारी जुबान फारसी है। मजहबी किताब-कुरान शरीफ अरबी में है। हम पूरी तरह यहां की जुबान समझ नहीं पाते।'
'सूफी फकीर भी बाहर से आये थे-आ रहे हैं। उन्हें तो परेशानी नहीं हो रही है।'
'क्यों बेटे ! सूफी हो रहे हो क्या ?'
'इंसान और खुदा के बीच इश्क-प्रेम के रिश्ते की बात अच्छी लगती है।'
'बेटे ! इश्क-मुहब्बत के ख्यालों और ख्वाबों से पेट नहीं भरता। कुछ और भी करना पड़ता है।'
'जी, हां ! रोजी-रोटी के लिए सबको कुछ-न-कुछ करना पड़ता है।'
'लेकिन तुम्हें अपना ख्याल नहीं है। सोहन लाल ने घर से निकाल दिया और तुम चुप रह गए।'
"वह उनका अधिकार था।'
'उस जायदाद पर तुम्हारा हक है। मैं चाहता हूं कि उन्हें खबर भेज दी जाय।'
'नहीं-नहीं, ऐसा नहीं करें। वे बहुत दुःखी हैं।'
'अगर वे तुम्हारा हक नहीं देंगे तो मैं तो बादशाह से कहूंगा।'
'आप ऐसा नहीं करें। मेरी विनती है।'
'लेकिन जिन्दगी ऐसे तो नहीं कटेगी, जमाल साहब ! हम दोनों का दरबार में आना-जाना है। बात उठेगी ही।'
जमाल कुछ जवाब नहीं दे सका। उसे लग रहा था कि यह पिता जी पर अत्याचार है। इलाहीबख्श उनकी सम्पत्ति के लिए उतावले क्यों हो गए हैं ? क्या लोभ जग गया है ? या मेरी फिक्र कर रहे हैं ? यह ठीक है कि बहुत दिनों तक बेटी-दामाद को रख नहीं सकते। वह स्वयं यहां पड़ा नहीं रहेगा। कुछ तो करना पड़ेगा। बात सही है कि केवल सपनों से मनुष्य जी नहीं सकता। यह मस्ती आखिर कब तक चलेगी?

पिताजी को भी सोचना चाहिए। परन्तु उसने ही तो सारे सम्बन्धों को तोड़ डाला है। उसने ही अपने अधिकारों को खो दिया है। सब खोकर ही नूरी को पाया है। अब आगे क्या होगा? ये तो झंझट पैदा कर रहे हैं। एक नयी लड़ाई ! नहीं, यह नहीं-उचित नहीं !
'जाओ, बेटे ! ठण्डे दिल-दिमाग से सोच लेना। कुछ तो करना है।' इलाहीबख्श ने आखिरी इशारा कर दिया।
वह भारी मन से उठा। नूरी के पास चला आया। वह इत्र के फाहे को भूल आया था। अब उसे फाहे की याद आयी। चाहा कि इत्र का फाहा नूरी को दे दे। पर फाहे के लिए लौटकर इलाहीबख्श के पास जाने की इच्छा नहीं हुई। प्यार की सुगंध के बीच वे बातें कांटे के समान चुभ रही थीं। पर प्रकृति का सत्य है कि कांटों के बीच फूल खिलता है और फूल के बीच सुगंध इठलाती है। जीने के लिए धन चाहिए। वह तो धनी बाप का बेटा है। मगर अब नहीं। अब वह जमाल अहमद है। उसके पास केवल प्यार का धन शेष है।
नूरी खाना पका रही है। वह किससे बातचीत करे ? राय-सलाह करे ? वह आंगन में चक्कर लगाकर अपने कमरे में चला आया। बिस्तर पर लेट गया। कुछ सोचने लगा-वह प्रेम कहानियों में डूबा रहा है। उसने स्वयं भी प्रेम की एक कहानी रच दी। आगरा में यह कहानी फैल रही है। उसे कोई रोक नहीं सका। किसी का क्रोध कुछ बिगाड़ नहीं सका। वह विजयी रहा। उसने धर्म-पंथ और सम्प्रदाय से प्रेम को ऊंचा माना। पहले भी वह कठोर नियमों से नहीं बंधा था। आज भी वह नहीं बंधेगा। वह लकीर का फकीर नहीं बनेगा। एक नये रास्ते पर चलेगा।

कबीरपंथी साधु, सूफी कवि और वृन्दावन-गोकुल के कृष्ण-भक्त भी पूजापाठ की रूढ़ियों के बदले प्रेम और भक्ति को महत्त्व दे रहे हैं। मानव-मानव के बीच रूढ़िमुक्त प्रेम का सम्बन्ध हो और अपने इष्ट देवता के प्रति भी निश्छल प्रेमभाव ही हो। यही तो आज की लहर है। यही तो नया रास्ता है। वह इसी रास्ते पर चलेगा। उसने चलना आरम्भ कर दिया है। पर चलने के लिए उसे मोहन के बदले जमाल बनना पड़ा है।

वह चल पड़ा है। चलने के लिए पैरों के नीचे धरती तो रहेगी। इसी धरती पर चलना है। वह अकेला भी नहीं है। अब वह दो हैं। वह वैभव में पला है। कंगाली में वह कैसे चल सकेगा? साधु-फकीर तो नहीं बन सकता। घर-गृहस्थी के लिए धन चाहिए। व्यापार करने के लिए धन चाहिए। कहां से...? पिता जी के धन पर उसका अधिकार है। पर वह अधिकार छोड़ चुका है। वह उधर जा भी नहीं सकता। जाना चाहिए। सुना है कि वे अस्वस्थ हैं। बहन रोती होगी। मां दिन-रात बिलखती होगी। उसे जाना चाहिए।

मुंशी हरसुख लाल से मिलना हो सकता है। संध्या में भेंट हो सकती है। मुंशी चाचा कुछ रास्ता निकाल सकते हैं। पिता जी का समाचार मिल जाएगा। और यदि उसे कुछ मिल जाए तो वह व्यापार कर सकता है। रोटी का प्रबन्ध किया जा सकता है। किसी पर निर्भर रहना ठीक नहीं है। पर धन के लिए पिताजी से अधिकार की बात नहीं करेगा। यह अनुचित है। ससुर साहब की बात नहीं मानेगा।

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