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ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य

हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


छियासठ



दिल्ली पहुंचते ही राजा हेमचन्द्र को जानकारी मिल गई कि बैरम खां ने तारदीबेग की हत्या कर सारे मुगल सरदारों को डरा दिया है। सबको काबुल के बदले दिल्ली की तरफ बढ़ चलने के लिए ऐलान कर दिया है, अकबर ने सहमति दे दी है।

राजा हेमचन्द्र ने वजीरों की बैठक बुलाई। अकालग्रस्त गांवों में अन्न-वस्त्र के शीघ्र वितरण की व्यवस्था का निर्देश दिया। साथ ही भूमिकर (मालगुजारी) और जजिया की वसूली को बन्द करने का निर्णय भी बता दिया।

राजा हेमचन्द्र के अन्दर भी गौरव का भाव जगा। पर विनम्रता के साथ शादी खां की तारीफ को कबूल किया। गजराज सिंह, विजयवाहन, खेमराज और बहादुर खां से भेंट की।

गजराज सिंह ने सर ऊंचा कर कहा---'महाराज ! हम इसी दिन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सारे हिन्दू सैनिक अपनी धरती मां की रक्षा के लिए प्रतिज्ञा कर चुके हैं। आपने सारे भारत की स्वाधीनता का सभी के भाव मनों में जगाया है। वह हमारी आत्मा का भाव बन चुका है।'

खेमराज ने मुस्कराते हुए कहा- 'मैंने तो गांव में ही साथ-साथ जीने और मरने की कसम खा ली थी। वह समय आ गया है, महाराज !'

विजयवाहन बोल उठा---'सैकड़ों बरसों का सपना साकार हो रहा है, देश को रक्त चाहिए। अन्तिम बूंद तक रक्त दूंगा।....मैंने पिताजी को भी कह दिया है।'

बहादुर खां का गम्भीर स्वर सुनाई पड़ा-'अत्याचार ने हमें गांव के कोने में फेंक दिया था। आपने प्यार से अपनाया, हमें आप जो कहें-भ्रष्ट राजपूत या हिन्दी मुसलमान ! हम अपनी धरती मां के लिए मर मिटेंगे, मुगलों को भागने की राह नहीं मिलेगी।'

हेमचन्द्र की भुजाएं फड़कने लगीं। मन्द मुस्कान के साथ तलवार उठाकर सबका अभिनन्दन किया।

जय ध्वनि देर तक गूंजती रही।

उस रात राजा हेमचन्द्र को नींद नहीं आ रही थी। वह करवट बदल रहे थे। लग रहा था कि बायीं तरफ अकाल के कारण प्रजा का हाहाकार है, दाहिनी तरफ बैरम खां की ललकार है। काल की गति सांप के समान टेढ़ी है। जब-तब डंसने के लिए घेर लेती है, इसके फण को कुचलना होगा !

'आप जगे हुए हैं ?' पार्वती ने पूछा।
'हां, पारो ! तुम भी तो जगी हुई हो।'

'कल सेना का शंख बजेगा। डंके और दमामे गड़गड़ायेंगे, मेरा हृदय धड़कने लगा है। आज प्रभात में मां ने जब पूजा का शंख बजाया तो लगा कि सेना का शंख स्वर आपको बुला रहा है। तब से मेरे हृदय में...।'

'हां, पारो !....पारो की भस्मी को देखकर संकल्प किया था, वही संकल्प भारत मां के लिए विराट रूप धारण कर चुका है। मुझे पानीपत के मैदान में पहुंचना है।'

'मैं क्या करूंगी?'

'विजय की मंगल कामना....पारो !'
'मन अधीर हो रहा है, इसे कैसे सम्भालू ?'
'फिर मां को....नूरी को...चन्दा को कौन सम्भालेगी?'
'मैं सम्भालूंगी ? मेरी धड़कनों को कौन धीर बंधायेगा?'
'मेरा स्नेह और मेरा विश्वास...पारो !'
'मेरी आंखें लगती हैं। पलकें बन्द हो जाती हैं, और तीर और तलवार की चमक कौंध जाती है। आंखें खुल जाती हैं, एक त्रास फैल जाता है।

तीरों और तलवारों की चमक में ही मेरा जीवन बढ़ता गया है, पारो ! इनसे भय कैसा ! इस चमक को आंखों में भर लो, और नये विश्वास के साथ भविष्य को देखो।'

पार्वती चिहुंक कर हृदय से लग गई।

दूर से गजेन्द्र की बांसुरी का वेदनाभरा स्वर गूंजता हुआ आ रहा था।

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