लोगों की राय

ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य

हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

56 पाठक हैं

हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


इकसठ



सरवर अली गजेन्द्र और चन्दा को पकड़कर आगरा की तरफ बढ़ जाना चाहता था। खुदादीन गिड़गिड़ा रहा था, सरवर उस पर गुस्सा उड़ेल रहा था। खुदादीन के दल का एक नया नट भागता हुआ पास के गांव में पहुंच गया। गांव के लोगों को जानकारी मिली, शस्त्रधारी नौजवानों ने गजेन्द्र और चन्दा की रक्षा के लिए कुछ करने का प्रण
किया। वे लाठी-भाला सम्भाले आ गए, सरवर बढ़ चला था। वे घेर लिये गए, पास के खंडहर में छिपे योगी शिवनाथ ने भी अपने शस्त्रधारी रक्षकों को भेज दिया। सरवर की टुकड़ी चारों ओर से घिर गई, लाठीभालों से मुकाबला शुरू हो गया।

ग्वालियर की ओर से हेमचन्द्र की विजयवाहिनी जयघोष के साथ लौट रही थी। जयघोष का स्वर गूंज रहा था, आकाश में धूल उड़ रही थी। सरवर के कानों में 'हेमचन्द्र जिन्दाबाद' के शब्द पड़े थे। वह समझ गया कि अब वह नहीं बच सकेगा। वह अपने सिपाहियों को लडता छोड़कर धीरे-से खिसक गया, उसके कुछ सिपाही मारे गए, कुछ घायल हुए, कुछ भाग गए। गजेन्द्र सिंह और चन्दा-दोनों मुक्त हो गए।

योगी शिवनाथ खंडहर से बाहर आये। हेमचन्द्र की विशालवाहिनी आ गई, पोखर के पास भीड़ देखी, पास में ही खंडहर था, उसे कुछ आभास मिला। गांव के लोग और योगी के रक्षक हेमचन्द्र का स्वागत कर रहे थे। हेमचन्द्र हाथी से उतर पड़ा, योगीराज दिखाई पड़े, उसने झुककर प्रणाम किया। योगी ने आशीष दी, और सरवर के उपद्रव के सम्बन्ध में बताया। उसकी कैद से मुक्त गजेन्द्र सिंह और चन्दा की ओर संकेत किया, विजयी सेना रुक गई। हेमचन्द्र उन दोनों को लेकर योगी जी के साथ खंडहर के भीतर पहुंचा। पार्वती पैरों पर झुक आई, आंसुओं से पैर धुल गए। मां दुर्गा कुंवर की आंखों में हर्ष के आंसू बह रहे थे। जमाल और नूरी ने फूलों का गुच्छा प्रदान किया, सारा वातावरण हर्षाकुल हो उठा।

गजेन्द्र चन्दा के साथ एक कोने में खड़ा था। दोनों को यह दृश्य बड़ा सुहावना लग रहा था। पर वे कुछ बोल नहीं पा रहे थे। हेमचन्द्र की दृष्टि उन दोनों पर गई, फिर अपने परिवार को देखा। सरवर के उपद्रव की कल्पना की। वह बोल उठा—'मां! सरवर आप सबको पकड़ने आया था, पर सामने ये दिखाई पड़ गए। ये दोनों पकड़ में आ गए। गांव के लोगों के साहस के कारण इनकी रक्षा हो गई, यही साहस आवश्यक है। तभी ऐसे शैतानों की हरकतों पर रोक लग सकेगी।'

'हां, बेटे ! सरवर की शैतानी से ये बाल-बाल बच गए।'- दुर्गा कुंवर ने भाव-विह्वल होकर कहा।

'क्यों भाई ! अपना नाम-गांव तो बताओ। तुम कौन हो ?'

'जी, मैं...गजेन्द्र सिंह हूं, पोखर पार के गांव का निवासी हूं। यह मेरी बहू है।' गजेन्द्र ने बताया।
'गजेन्द्र सिंह' शब्द ने हेमचन्द्र को चौंका दिया। धर्मपाल साथ में था। उसके संकेत पर वह बाहर चला गया, गजेन्द्र का हृदय धड़क रहा था। क्या बड़े भैया आ सकते हैं ? कैसा व्यवहार होगा ? धैर्य रखना है, थोड़ा साहस दिखाना है।

हेमचन्द्र ने पूछा-'क्या सरवर ने गांव में उपद्रव किया था ?'
'जी...नहीं ! हम लोग खुदादीन काका से मिलने आए थे। वे नटबाजीगर हैं, उनके साथ रहना हुआ है। उसी समय वह पठान सरदार पोखर पर आ पहुंचा, और खेमे को देखकर उसने पूछताछ की। फिर कैद कर लिया।

'शस्त्रधारी नौजवान समय पर आ गए ?'
'जी, हां !' गजेन्द्र ने उत्तर दिया।
धर्मपाल के साथ गजराज सिंह आ गया, वह गजेन्द्र को देखते ही बोल उठा-'आखिर तुम मिल ही गए इस नटनी के साथ !'
गजेन्द्र का सर झुक गया।
'इसने कुल-परिवार को इस नटनी के लिए छोड़ दिया, और सड़कों पर नाच-गा रहा है।'-गजराज ने रोष में कहा।
‘ऐसी बात नहीं है, भैया !' गजेन्द्र ने मन्द स्वर में उत्तर दिया।
'तो क्या यह स्त्री कुलकन्या है ?
'जी हां, मैं कुलकन्या हूं।'-चन्दा के स्वर फूट पड़े।
सभी चकित हो गए।
'नट के साथ कुलकन्या कैसे और कहां से आ गई ? यह छल मेरे साथ नहीं चलेगा।'

'तो आप सभी सुन लें। मैं रायसेन के दुर्गपति पूरनमल की राजकुमारी चन्द्रावती हूं। अफगान बादशाह शेरशाह ने संधि के बाद भी किले को घेरकर सबको धोखे से मार डाला, और मुझे नट के हाथ नाचने के लिए सौंप दिया। मेरे दो चचेरे भाइयों को नपुंसक बनाकर दिल्ली में भेज दिया। मेरा सारा परिवार खत्म हो चुका है-बादशाह की बेरहमी से। मैं किसे अपना दुखड़ा सुनाती ! कौन सुनता ! खुदादीन काका ने मेरी प्रतिष्ठा बचाई है। मैना काकी ने अपना समझकर पाला है। आज तक मैंने किसी को अपना परिचय नहीं दिया, केवल काका-काकी जानते हैं। आप लोग जो समझें।'-यह कहकर चन्दा ऊंची सांसें लेने लगी।

सभी चन्दा की ओर देख रहे थे। गजेन्द्र सिंह आश्चर्य में था। गजराज सिंह कुछ बोलने-पूछने में असमर्थ रहा। हेमचन्द्र कभी चन्दा को देखता और कभी बादशाह शेरशाह की याद करता। वह भीतर से बेचैन हो उठा। सारे वातावरण में आश्चर्य, पीड़ा और रोष की लहरें दौड़ पड़ों। सबके मन में एक ही भाव उठा कि रायसेन की राजकुमारी चन्द्रावती के साथ इतना अत्याचार ! इतना अपमान ! क्या इस देश की बेटी-बहू की यही नियति है ?

'राजकुमारी चन्द्रावती ! हम सबको क्षमा कर दो। तुमने बहुत दुःख सहा है।'-हेमचन्द्र ने विनम्र स्वर में कहा।
'अफगान सेनापति जी! अब मैं चन्दा हूं। बांसुरी वाले की बहू हूं। इसी रूप में मुझे स्थान मिले, और आपकी तलवार बहू-बेटियों की रक्षा करे। तुर्कों के जुल्म को बढ़ावा न दे।'
'चन्दा...चन्दा ! तुम्हें कुल-परिवार और गांव-सभी पूरी प्रतिष्ठा देंगे।...क्यों गजराज सिंह !'

'जी, हां ! अनजान में गलती हो गई। पूरी प्रतिष्ठा मिलेगी, मैं वचन देता हूं।'-गजराज सिंह ने उत्तर दिया।

'और मैं संकल्प कर चुका हूं कि मेरी तलवार बहू-बेटियों की रक्षा करेगी।' हेमचन्द्र ने ऊंचे स्वर में कहा।

दुर्गा कुंवर, पार्वती और नूरी ने चन्दा को साथ ले लिया। चन्दा सबके स्नेह को पाकर विह्वल हो गई। गजेन्द्र अपने भाग्य पर इठला रहा था।

हेमचन्द्र खंडहर के बाहर चला गया। मन अशांत था, पेड़-पौधों के बीच खड़ा हो गया। सामने टूटा हुआ मन्दिर था, ऊपर सूना-सूना आकाश था। वह सोचने लगा-तुक-अफगानों के अत्याचार को बढ़ावा न दें। यह चन्दा का व्यंग्य है या अनुरोध ? मैंने अत्याचार को रोकने के लिए संकल्प किया है। गांव उजड़ा, व्यापार उजड़ा, पारो की मृत्यु हुई। संकल्प कर तलवार लिये शहर-दर-शहर भटक रहा हूं। आगरे में सोचा कि यदि अफगान, हिन्दी मुसलमान और हिन्दू मिलकर खड़े हो जाये तो विदेशी मुगल नहीं आ सकेंगे। इनके अत्याचार को पंजाब ने भोगा है। रायसेन, दिल्ली और अयोध्या-सबने सहा है। चन्दा की पीड़ा हृदय को टुकड़े-टुकड़े कर रही है, इसने कितना सहा है ! शेरशाह ने भी इतना जुल्म किया ? अपनी धरती मां कितना, कब तक सहती रहेगी? वह विक्रमादित्य कहला रहा है। अच्छा लग रहा है। क्या वह प्रजा को न्याय दिला सकेगा? हमारा ऐयाश बादशाह खाट पर पड़ा है, वह उस ऐयाश के लिए खून बहा रहा है। नहीं, वह अपने देश के लिए बहा रहा है। क्या सभी इसे मानेंगे? उसे और कुछ सोचना होगा, उसे और कुछ करना होगा। प्रजा पर अत्याचार न हो। बहूबेटियों की प्रतिष्ठा पर प्रहार न हो। जजिया कर से प्रजा मुक्त हो। कोई दूसरे दर्जे की रिआया न बने। इसके लिए तलवार उठे ! पारो की राख और चन्दा की पीड़ा-उसे रास्ता दिखाएं !

उसके मन को थोड़ी शान्ति मिली। वह धीरे-धीरे सबके सामने आया, सभी उसकी गंभीर मुद्रा को देख रहे थे, कोई कुछ बोल न सका। _सालारे आजम शादी खां साहब आए। महिलाएं ओट में चली गयीं। शादी खां ने आकर खबर दी कि दिल्ली में हुमायूं का इन्तकाल हो चुका है। सुना है कि शेरमंडल की सीढ़ियों से फिसल कर गिर जाने की वजह से मौत हुई है। मुगल परेशान हैं, उन्होंने गुरुदासपुर के कलानौर में अकबर की तख्तनशीनी की रस्म पूरी कर दी है। यह मौका है, हम न चूकें।

'लेकिन बादशाह तो चुनार के किले में पड़े हैं।'- हेमचन्द्र ने प्रश्न कर दिया।

'अगर उनके लिए रुका जाए तो हिन्दुस्तान मुगलों के कब्जे में चला जाएगा, हेमचन्द्र ! तुमने इतनी बड़ी फौज तैयार की है। फतह पर फतह पायी है, तुम पर मुल्क को भरोसा हो गया है, हेमचन्द्र !'

-शादी खां ने हृदय से अनुरोध किया।

'आपकी दुआओं को पाकर मैं आगे बढ़ता रहा हूं। अब भयानक समय आ गया है, निर्णय आपको करना है।'
'तुम्हें आगे बढ़ना है, मैं साथ हूं। अफगानों-पठानों की फौज तेरे साथ है।'
'मैं आपका हुक्म मानता रहा हूं, फिर मानूंगा। इस युद्ध के लिए और भी मदद चाहिए।'
'जरूर ली जाये।'

'धर्मपाल जयपुर, जोधपुर, बूंदी आदि राज्यों के राजाओं से अनुरोध करे कि विदेशी मुगलों से अपनी धरती मां को बचाने के लिए वे हेमचन्द्र की मदद करें।

बिल्कुल सही राय है, हेमचन्द्र ! धर्मपाल को उधर जाना ही चाहिए, और तुम मेरे साथ फौज से आखिरी जंग के लिए अर्ज करो।'

हेमचन्द्र ने दोनों हाथ जोड़कर इस सलाह को कबूल कर लिया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book