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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


साठ



गजराजसिंह के परामर्श पर हेमचन्द्र ने अयोध्या के क्षेत्र में सैनिक भर्ती का निर्णय ले लिया। आसपास के गांव के किसानों और परम्परा से सैनिक परिवारों में उत्साह दिखायी पड़ा, वे सेना में भर्ती के लिए आये, गजराजसिंह तथा खेमराज ने सबका स्वागत किया, सैनिक शक्ति बढ़ी, एक नयी चेतना से सभी जाग खड़े हुए।

हेमचन्द्र अयोध्या से आगे बढ़ा। अब उसे अनुभूति हो रही थी कि वह अपनी धरती मां की रक्षा के लिए रक्त देने जा रहा है। धरती मां करोड़ों हाथों वाली मां हैं पर वे पीड़ित हैं, आतंकित हैं। इस धरती मां के बेटे जीने के लिए जजिया देते हैं। जहां-तहां इसकी बेटियां सिसकती रहती हैं। इसके मन्दिर के खंभे अपने भाग्य पर आंसू बहाते रहते हैं, बर्बर मुगल फिर आ गये हैं। इब्राहिम और अहमद खां ने आपस में लड़कर मुगलों के लिए द्वार खोल दिया। ऐयाश बादशाह नादिरा के लिए बेताब है। अब उसे स्वयं विक्रमादित्य के तेज को प्रकट करना है।

कालिंजर के पास जनाब शादीखां से मुलाकात हो गयी, पूरी फौज मालवा की ओर बढ़ चली।

आगरा में सरवर अली इब्राहिम की मदद करता हुआ नाकामयाब हुआ। आगरे के तख्त पर सिकन्दर शाह आ गया। इसलिए वह उसी का मददगार बन गया, जब हुमायूं ने आगरे पर कब्जा किया तो वह थोड़ा परेशान हुआ, वह पठान होकर मुगलों का तरफदार कैसे बने, लेकिन मुल्ला मजहब के नाम पर मुगलों का साथ देने की सलाह दी। वह तैयार हो गया, लेकिन मुगल अफगानों-पठानों से दूर बचते थे। सरवर ने अपने ढंग से उनके दिल को जीतने की कोशिश की। मुगल सरदारों से मेल-जोल कर लिया।

सीकरी की खानकाह मुगलों की तरफदारी कर रही थी। हुमायू दिल्ली में था, उसे कामयाबी मिल रही थी। वह सीकरी आने वाला था, उसे दुआएं चाहिए। वालिद बाबर को दुआएं मिली थीं, उसे भी मिलेंगी।

सरवर नूरी और पार्वती को भूल नहीं सका था, जमाल को भूलने को तैयार नहीं था। हेमचन्द्र को वजीर और सिपहसालार के ओहदे पर देखना नहीं चाहता था। वह सिपाहियों की टुकड़ी के साथ नूरी और पार्वती को खोजने निकल पड़ा।

धर्मपाल ने आगरा और ग्वालियर के बीच जंगल के पास के खंडहर में सबको सुरक्षित कर दिया था, कुछ सैनिक भी साथ में थे। योगीराज शिवनाथ की देख-रेख में सारी व्यवस्था हो रही थी। योगी सबको भययुक्त करने का प्रयत्न करते रहते थे, परन्तु पार्वती भय से मुक्त नहीं हो रही थी, वह भरे कंठ से कह रही थी--'मां ! लग रहा है कि वे हमें भूल गये हैं।'

'नहीं, बेटी ! वे भूल नहीं सकते। बादशाह आदिलशाह के साथ बहुत दूर चले गये हैं, उधर से लौटने में समय लगेगा।'

'हो सकता है कि उन्हें संवाद ही न मिला हो कि हम आगरा को छोड़कर जंगल में छिा रहे हैं। आगरा में उथल-पुथल है, राज पर राज बदल रहा है।'

'संवाद मिलने में थोड़ा विलम्ब तो होगा ही, पर वे राजपुरुष हैं। दिल्ली-आगरे के सब समाचार मिल रहे होंगे ! धर्मपाल भी उधर ही गये हैं।'

'इस उथल-पुथल में धर्मपाल जी का उतनी दूर जाना और उनसे मिलना बड़ा कठिन लग रहा है।'

'ऐसा न सोचो, बेटी ! भगवान भला करेंगे। जब वे राजकाज में लग गये हैं तो इस उथ ल-पुथल के बीच ही जीना है। अब तो भय, अधीरता, शुभ-अशुभ से ही हमारा भाग्य बनेगा।'

'क्यों, मां ! पारो फिर घबरा उठी है ? इसे कैसे समझाया जाये ? हम सभी तो हैं, योगी बाबा हैं, इतनी अधीरता !' जमाल ने कहा।
'हां, बेटे ! पारो शस्त्रधारी से ब्याह रचा कर भी भय खाती रहती है।' दुर्गा कुंवर ने जवाब दिया।
'योगी बाबा से कहना है कि वे इसे त्रिशूल भांजना सिखा दें जैसे हेमचन्द्र को सिखाया था। भय भूत के समान भाग जायगा।' जमाल ने कहा।
'हम दोनों त्रिशूल लेकर आ जाये तो आप भी डर जायेंगे।' नूरी बोल उठी।
'और मुगलों को देखकर..।'
'हो सकता है कि आप उन्हें इत्र पेश करने लगें।'
'जनाब इलाहीबख्श साहब की मेहरबानी होगी तभी तो इत्र वगैरह का इन्तजाम हो सकेगा।' जमाल ने जवाब दिया।
'उन्होंने तो आपकी जिन्दगी में खुशबू-ही-खुशबू फैला दी है।'
'इसी खुशबू के कारण साले साहब-सरवरअली दिन-रात पीछा कर रहे हैं। तभी से हिफाजत कर रहा हूं।'
'अरे, तुम दोनों का झगड़ा फिर शुरू हो गया ! अच्छा हुआ ! 'पारो का मन बहल गया। देखो, मुस्करा रही है। मां दुर्गा कुंवर ने स्वयं मुस्कराते हुए कहा।

सभी मुस्करा उठ, वातावरण हल्का हो गया। योगीराज ने आकर बताया कि सेनापति हेमचन्द्र सेना के साथ मालवे की दिशा में गये हैं। चारों तरफ चर्चा है, और सरवर इधर ही आया है पर घबराना नहीं, हम पूर्णतः सुरक्षित हैं।

जमाल ने देखा कि नूरी और पारो के मुखड़े पर भय और अभय दोनों भाव आ-जा रहे हैं। इन्हें इस द्वन्द्व से मुक्त करना सहज नहीं है। सरवर तो आदमी के वेश में शैतान है। अब वह मुगलों की मदद से तंग करेगा। नूरी और पारो पर बुरी नजर...उसकी आंखें निकाल लेने की इच्छा हो रही है।

सरजू जंगल से फल-फूल और सब्जियां लेकर आया। सबका ध्यान बंट गया।

सरवर ग्वालियर की तरफ जाने लगा। कभी गांवों में पूछताछ करता, लोगों को डराना-धमकाना बढ़ता रहा। कभी जंगलों में भटक आता, कभी टूटे मन्दिरों में झांक लेता, जब उसे मालूम हुआ कि हेमचन्द्र बहुत बड़ी फौज के साथ मालवे की तरफ गया है, उसका गला सूखने लगा, आगे बढ़ने की हिम्मत छूट गयी। प्यास मिटाने के लिए एक पोखर के पास आया। वहीं पर खुदादीन बाजीगर का खेमा था। गजेन्द्रसिंह चन्दा के साथ आया था, सरवर पोखर में उतरकर हाथ-पैर धोया। पानी पिया, जब पोखर के ऊपर आया तो उसकी नजर खुदादीन के खेमे पर पड़ी, वह उधर पहुंच गया, गरजकर बोला-'खेमे में कौन गुस्ताख पड़ा हुआ है ? पठान सरदार के सामने आओ।'

खेमे से खुदादीन कांपता हआ निकला, सरवर को सलाम करते हुए कहा- 'हुजूर ! मैं खुदादीन बाजीगर हूं, खेल-तमाशा दिखाता हूं।'

'मैं मुगल बादशाह की ओर से आया हूं, और तुम खेमे में पड़े हुए हो ?'

'अनजान में गलती हो गयी, खां साहब ! क्या दिखमत करूं?'

'तमाशा दिखाओ, और पता लगाकर बताओ कि आगरे से भागे हुए कुछ दुश्मन किधर छिपे हैं ?'

'तमाशा तो दिखा सकता हूं, हुजूर ! लेकिन भगोड़ों के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है।'

'इधर कोई नहीं आया है ?'
'इधर तो कोई नहीं दिखायी पड़ा है।'
'खेमे में कौन-कौन हैं, सभी बाहर आओ।'
'मैं तो मुसलमान हूं, खां साहब ! आपका खैरख्वाह हम पर भी शक-शुबह !'
'सियासत में किसी पर ऐतबार नहीं किया जाता।'
'आपका जैसा हुक्म ! लेकिन पर्दे में औरतें हैं। बीवी-बच्चे हैं।'
'सबको बाहर आना है, शाही हुक्म है।'
खुदादीन का सर झुक गया, उसने सबको बाहर आने के लिए कहा। सभी बाहर आये। चन्दा मैना काकी के साथ छिपी-छिपी खड़ी रही। गजेन्द्र सिंह तल वार लिये काकी के आगे खड़ा था जिससे चन्दा दिखायी नहीं पड़ सके, लेकिन सरवर की नजर तो तेज थी। वह कड़क कर बोल उहा-'नटों-बाजीगरों के बीच तलवार लिये कौन है ? ये औरतें कौन हैं ?'
गजेन्द्रसिंह आवेश में आ गया, उसने कहा-'मैं पास के गांव का हूं। खुदादीन काका का शागिर्द हूं, बाजीगरी सीख रहा हूं। यह काकी हैं, और यह मेरी घरवाली है।'

'घरवाली बाजीगरों के साथ है तो पर्दा कैसा ? पर्दा हटाओ।'
'यह शाही हुक्म नहीं हो सकता, खां साहब !'
'दोनों को कैद करो। मेरे सामने ऐसी जुर्रत !'

गजेन्द्रसिंह ने तलवार निकाल ली। खुदादीन आरजू-मिन्नत करता रहा, लेकिन सरवर के सिपाहियों ने गजेन्द्रसिंह को घेर लिया। चन्दा का रो-रोआं कांप उठा। गजेन्द्रसिंह ने दो सिपाहियों की तलवारों को गिरा दिया। गुस्से में सरवर सामने आया, कुछ ही क्षणों में उसे समझ में आ गया कि तलवार में पानी है. वह होशियार हो गया। उसके और सिपाही आ गये। खुद पीछे हट गया, गजेन्द्र घिर गया। तलवार से मुकाबला करता रहा, घायल हो गया पर पीछे नहीं हटा। मैना काकी चीख पड़ी, चन्दा के आंसू बह चले।

गजेन्द्र और चन्दा दोनों कैद कर लिये गये।

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