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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


पैंतालीस


'आपने व्यापार से मुंह मोड़ लिया, यह उचित नहीं हुआ। राजकाज, बादशाह वजीर के झमेले में पड़ना अच्छा लगता है क्या ?' पार्वती ने हेमचन्द्र से कहा।

हां, पारो ! झमेला तो अवश्य है। मुझे दो में से एक को चुनना था, एक को चुन लिया। सोच-समझकर चुना है।' हेमचन्द्र ने उत्तर दिया।

क्या आपको शान्ति मिल सकेगी? तलवार की धार पर चलने में क्या सुख है ?'

तलवार की धार पर चलने में सुख है, पारो ! यदि लक्ष्य अपना देश हो तो...यदि विदेशी बर्बरों की पराधीनता स्वीकार न हो, गांवघर के विध्वंस को देखना न हो और पद्मिनी-पारो को राख बनने से बचाना हो तो अशांत होना पड़ेगा, हर कदम पर रक्त टपकेगा, फिर भी मुस्कराना होगा।'

यह सुनकर पार्वती हेमचन्द्र की ओर देखती रह गई। उसे अनुभव हुआ कि वह रोमांच से भर उठी है। इस पुरुष को पूरी तरह समझ नहीं सकी। यह केवल प्रेम की पीड़ा नहीं है। वह पीड़ा सारे देश की पीड़ा में बदल गई है। ये हर क्षण अशांत हैं। इसलिए तराजू नहीं तलवार...! जो भी हो !

'पारो ! तुम अचरज मत करो। क्रान्ति का जीवन जीने को तैयार हो जाओ।

'जी, हां ! अनुभव हो रहा है। लगता है कि किसी के जीवन में शान्ति नहीं है। पिताजी का अन्तिम संस्कार आपके द्वारा हुआ क्योंकि भैया विधर्मी बन गए हैं। अपना अधिकार खो चुके हैं, उनकी अशांति का भी अनुभव किया है।'

'यह देश इसी अशान्ति से जी रहा है। गुरु रामानन्द, कबीरदास, नानकदेव और वल्लभाचार्य-सभी इसी अशांति और अनास्था में एक नया विश्वास जगा रहे हैं। मैं भी चाहता हूं कि नये विश्वास को बल मिले।'

‘पर ये अफगान-पठान आपको अवसर देंगे? आपके बढ़ते कदम को बर्दाश्त करेंगे ?'

'अफगान कमजोर हो रहे हैं, दरवाजे पर मुगल मौके की ताक में हैं। इसलिए अफगानों को इस देश की प्रजा के अनुसार चलना है। मैंने बता दिया है, वे मुझे बर्दाश्त करने लगे हैं। नहीं तो प्रजा जगेगी।'

'जात-पांत के कारण प्रजा एक साथ मिलकर कुछ कर सकेगीविश्वास नहीं होता। हर जाति अपने-अपने घरौंदे में बन्द है। कोई बहत बड़ा है, कोई सावारण बड़ा है, कोई छोटा है, कोई बहुत छोटा है...मिलना तो कठिन लगता है।'
 
'सच्चाई तो यही है, पारो ! इधर कुछ वर्षों से भक्ति के आचार्यों
और सन्तों के कारण लोग एक साथ बैठने लगे हैं। समानता होने लगी है, थोड़ा समय और लग सकता है, अब विदा दो।'

पार्वती से विदा लेकर हेमचन्द्र घोड़े पर आरूढ़ हुआ। साथ में घोड़सवार सिपाही थे, सड़क घोड़े की टापों से धमक उठी।

हरखलाल ने खिड़की को बन्द कर दिया, और बुदबुदाया- 'बहुत दिनों तक छाती पर दाल न दल सकोगे, हेमचन्द्र !'

फिर सोचने लगा कि मोहन और हेमचन्द्र में सम्पत्ति को लेकर अनबन नहीं हो सकी। वह अवसर हाथ से निकल गया, पर वह पठान हाथ में आ गया है। सरवर अली से भेंट हो गई, वह जाल रच सकेगा। यह उस जाल में फंसकर तड़पेगा। उधर तांत्रिक की साधना आरम्भ हो गई है। सोहनलाल तो ठिकाने लग गया, अब यह बचा है।

हेमचन्द्र सोचता हुआ जा रहा था कि पार्वती...पारो ठीक ही कहती है कि सभी अपने घरौंदे में बन्द हैं। अपने घरौंदे में रहकर रोटी पा लेना, राम या कृष्ण या शिव का नाम ले लेना और हुकूमत के आतंक से आधी नींद सो लेना-यही तो जीवन है। जजिया के बारे में भी सभी एक साथ कहां सोच पाते हैं ! पर सोचेगे। एक साथ बैठेंगे, पर वह तो अफगान बादशाह का दरबारी बन गया, योगीजी की प्रेरणा से बना है, वह भटकता नहीं है।

हेमचन्द्र किले के द्वार पर जा पहुंचा। दीवानखाने में उसकी प्रतीक्षा हो रही थी, वह अदब कायदे के साथ आकर बैठ गया। जासूस बताने लगा था कि ताज खां मालवा के शुजात खां के बेटे दौलत खां को मिलाकर बगावत की तैयारी कर रहा है, बेगम साहिबा अपने खजाने से मदद कर रही हैं।

गादी खां ने तुरन्त हमला करने की सलाह दी जिससे बगावत को जल्द कुचला जा सके।

वजीरों ने इसकी ताईद की।

बादशाह आदिलशाह की नजर हेमचन्द्र पर पड़ी। हेमचन्द्र ने कहा--'जहांपनाह ! हमले में देर न हो। ताज खां से निपटकर पंजाब पर ख्याल करना है, हुमायूं के कदम बढ़ न सके।'

'लाहौर में अहमद खां सूर मौजूद है, उधर तो परेशानी नहीं है।'

'परेशानी पेशावर के पास है, सल्तनत की पूरी ताकत उधर लगनी चाहिए। इसलिए ताज खां के ताज को मिट्टी में मिलाना ही होगा।'

'बहुत खूब, हेमचन्द्र ! अगर आप तैयार हों तो मैं घोड़े पर सवार हूं। इस बार ताज खां को नहीं छोड़ गा।' यह सिपहसालार इब्राहिम था।

'मैं खुद चलूंगा, हेमचन्द्र भी जरूर चलेगा।' बादशाह ने कहा।

'बादशाह सलामत और सिपहसालार-दोनों का हुक्म है, मैं तैयार हूं, एक अर्ज है।'

'वह क्या..?'

'फौज के साथ नाच-गाना न हो। विजय के बाद ही नाचगान अच्छा लगता है।

'इतने खुश्क हो ! इतने पत्थरदिल हो !'
'जंग में पत्थरदिल बनना पड़ता है, शहंशाह !'
'फिलहाल तुम्हारी शर्त मान लेता हूं। सुबह फौज कूच करेगी।'
'हमारे जासूस आज ही उधर निकल जाएं।' यह हेमचन्द्र की राय थी।
सबने इस राय को मान लिया। बैठक खत्म हो गई, इब्राहिम खां सोचता हुआ लौटने लगा कि मुल्ला साहब ने सरवरअली से मुलाकात कराई है। सरवर का कहना मुनासिब है कि इस काफिर को हद से ज्यादा बढ़ने नहीं देना है। मौका मिलने पर इसके पर कतर देने हैं। बादशाह इससे खुश हैं। वह तो उनका करीबी रिश्तेदार है। उसे अपने को मजबूत बनाना है और बादशाह को अपने काबू में रखना है।

इब्राहिम खां अपने दौलतखाने पर पहुंचा, आराम करने लगा। अब तो ग्वालियर की तरफ जाना है। शाम को अपना चेहरा छिपाये सरवर आ गया। इब्राहिम ने कहा-'खुश आमदीद !'

'हुजूर बहुत खुश हैं। लगता है कि मेरी सलाह पर गौर किया गया है।' सरवर ने खुशामद की आवाज में कहा।

'हां, सरवर ! मैंने गौर किया है। मानने को जी चाह रहा है।'

'यह मेरी खुशकिस्मती है। आप सिर्फ ख्याल रखें। वक्त आपके कदमों को चूमेगा।'
'वह वक्त आ गया है, सरवर ! कल ग्वालियर के लिए फौज कच करेगी। मैंने हेमचन्द्र को भी ताव पर चढ़ा दिया है।'
'बिल्कुल सही...! आप जंग में उसे ताव पर चढ़ाते रहें, खुद ही फंसेगा। लेकिन जीत का सेहरा आपको मिले।'
'यही होगा, इत्मीनान रखो।'
'मुझे इत्मीनान नहीं है, हुजूर ! अभी तो बादशाह शादी खां पर मुनहसर हैं। उस काफिर से सलाह लेकर ही कदम बढ़ाते हैं। आप पर मुनहसर होना है।'

'तब तो मैं तेरी सलाह से कदम बढ़ाऊंगा। तुझ पर यकीन हो गया है, सरवर !'

‘ऐसा हो कि वे रक्कासाओं के आगोश में पड़े रहें। शराब और साकी का शौक तो है ही, और सल्तनत की जिम्मेवारी अपने आप आपके हाथों में आ जाय।'

इब्राहिम दो लमहा देखता रह गया और फिर उसने सरवर की हथेली को अपने हाथों में ले लिया। कहा–'तूने मेरी आंखें खोल दी हैं। बादशाह हसीनों के आगोश में और सल्तनत मेरे आगोश में...बादशाह की बहन तो मेरे हरम में है ही।'

'हुजूर ! आहिस्ता बोलें। दीवारों के भी कान होते हैं।' सरवर ने झुककर कहा, और सोचा कि तीर निशाने पर लगा है।

उधर हेमचन्द्र किले से लौटकर योगी की कुटिया में जा पहुंचा। धर्मपाल आ गया था। उसने बताया-'हरखलाल ने लक्ष्मी भवन के पतन के लिए तांत्रिक का आश्रय लिया है, और दूसरी तरफ सरवर सिपहसालार इब्राहिम से मिला है।'

'शायद इसीलिए इब्राहिम खां ने ग्वालियर चलने के लिए ताव दिया है। सरवर की घुसपैठ हो गई, कांटे बिखरने लगे।'

'चिन्ता मत करो, हेमचन्द्र ! हरखलाल कुछ नहीं कर सकता।' योगी ने भरोसा दिलाया।

‘पर सरवर अली सिपहसालार के कान भर रहा है। वह तो कुछ कर सकता है ?

'हां, थोड़ा सावधान रहना है। ग्वालियर के युद्ध में जाओ। उसे चिढ़ाना मत, और यशस्वी तुम बनो, अब सब अनुकूल है। योगी ने समझाया।

'पर हेमचन्द्र अपने को संकट में नहीं डाले। सरवर और इब्राहिम की यही चाल हो सकती है। यह धर्मपाल का विचार था।

दोनों इस तर्क से सहमत हुए। 'सावधान' का मन्त्र लिये हेमचन्द्र लौटा।

लक्ष्मी भवन में पार्वती अपनी मां के पास लेटी हुई थी। ग्वालियर जाने की घोषणा सुनकर सिहर उठी। वह हेमचन्द्र की ओर देखती रह गई। इन्हें युद्ध में जाना है, नंगी तलवारों की कौंध में जीना है। मारकाट का कोलाहल....रक्त के नाले...शवों का ढेर...हर क्षण यमदूत के सामने...नहीं...नहीं...इन्हें नहीं-पर कैसे राके ? ये तलवार से खेलते रहे हैं। भाले के साथ उछलते रहे हैं। यह लक्ष्मी भवन...फूलों की बाड़ी...पार्वती-पारो...रोकने में असमर्थ हैं ? किला, दरबार और बादशाह के आसपास मंडराते रहे। अब वजीर हैं, पर वजीर का युद्धक्षेत्र से क्या सम्बन्ध ? वजीर क्यों खून का खेल खेले ?

पर पार्वती कुछ बोल नहीं सकी। पलकें बन्द कर ली, आंसुओं को रोकने लगी। मां दुर्गा कुंवर ने पूछा - 'बेटा ! तुम तो वजीर हो। तुम्हें तो बादशाह के पास रहकर विचार करना है। राय-सलाह देनी है। युद्ध में क्यों...?'

'युद्ध में बादशाह, वजीर, सिपहसालार–सभी जाते हैं, मां ! मुझे जाना है। आशीष दें, पारो उदास क्यों है ?'–हेमचन्द्र ने कहा।

'इसने मारकाट, खून-खराबी को देखा नहीं है। लड़ाई के नाम से उदास हो गई है। हम दोनों के लिए चिन्ता की बात है, सोचकर मन कांप उठता है, बेटे ! तुमको रुकना चाहिए।'

'मुझे विजयी और यशस्वी होना है, मां ! सोचना और रुकना नहीं है। रामायण और महाभारत की कथा सुनकर रोयें सिहर उठते हैं। एक बार और सिहर उठे। बस, इतना ही ! आशीष और मंगलकामना से मैं सकुशल लौटूंगा।'
'तुला छोड़कर तलवार लिये मरने-मारने के लिए भागदौड़ रुचिकर तो नहीं है, बेटे !'

'मां ! योगीजी ने बताया है कि ये हाथ तलवार के लिए बने हैं। समय ने भी यही संकेत किया है, फिर मैंने संकल्प भी कर लिया है।'

दुर्गा कुंवर भी चुप रह गई। पार्वती ने आंसुओं को रोक भोजन का प्रबन्ध किया। हेमचन्द्र भोजन कर विश्राम करने लगा। उसने देख लिया कि दोनों मंगल भाव से पूजा पर बैठ गई हैं। उसे नींद आ गई।

दूसरे दिन प्रभात में किशनपुरा ने देखा कि हेमचन्द्र वीर वेश में तिलक-चन्दन से शोभित होकर घोड़े पर चढ़ रहा है। विजयवाहन और खेमराज के घोड़े हिनहिना रहे थे। दुर्गा कुंवर और पार्वती के साथ जमाल और नूरी-सभी फूल-अक्षत से विदा कर रहे थे।

हरखलाल घोडों की टापों से दहल उठा, पर शीघ्र ही अपने को सम्भाला और बुदबुदाया—'जाओ, बच्चू ! सारी अकड़ निकल जाएगी, तांत्रिक के पास जाना है। उनका तन्त्र जगे। उस तरफ से भी भेंट।'

किशनपुरा के लोग शुभकामना कर रहे थे। सबकी शुभकामना ले हेमचन्द्र अपने साथियों के साथ बढ़ता जा रहा था।

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