ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य हेमचन्द्र विक्रमादित्यशत्रुघ्न प्रसाद
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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!
चौवालीस
धर्मपाल वैष्णवसाधु के वेश में कुटिया से निकला। किशनपुरा में आ पहुंचा, देखा कि हरखलाल अपने मुनीम के साथ कहीं जा रहा है। रास्ता सिकन्दराबाद की ओर मुड़ रहा था। वह पीछे हो लिया, किशनपुरा और सिकन्दराबाद के चौराहे पर जमाल का घर दिखायी पड़ा। लगा कि हरखलाल के पैर रुक गये हैं। पर मुनीम के इशारे पर वे पर आगे बढ गए। सिकन्दराबाद की सड़क पर वे दोनों चलने लगे थे। वह सड़क नदी की ओर मुड़ गयी थी। वह भी उसी की ओर चला, पीछे से आवाज आयी, शब्द थोड़े परिचित लगे। उसने गति को धीमा किया, वे दो थे। निकट आ गए, उसने तिरछे होकर देखने की चेष्टा की। सरवर के साथ मुल्ला साहब थे, वे दोनों बढ़े आ रहे थे। तो ये दोनों नदी पार जायेंगे। किले की तरफ जायेंगे, किसी वजीर या किसी हाकिम से जान-पहचान की बात हो सकती है। तो अब सरवर मियां किले में घुसने की कोशिश करेगा! राजकाज में हाथ डालेगा। हेमचन्द्र के रास्ते में कांटे बिछा सकता है। पैरों में बड़ी तेजी है, वह शाह हरखलाल से आगे निकल गया। गश्त लगाने वाले घोड़े सवार आ गए। सबको बगल में होना पड़ा, सरवर की गति धीमी हो गयी। उधर से कुछ लोग लौट रहे हैं। उन्हें भी बगल में हटना पडा। ये लोग दूसरे घाट पर स्नान क्यों नहीं करते ! यह मुख्य मार्ग है। इस पर तो कठिनाई होगी ही।
नदी तट आ गया। नाव में मूल्ला और सरवर सवार हो गए। धर्मपाल निर्णय नहीं कर सका कि वह किधर जाय। उसने देखा कि शाह हरखलाल की नाव दक्षिण की ओर जाने वाली है। उस नाव में वे ही दोनों हैं, वह उस नाव के पास जा पहुंचा। केवट से साथ लेने के लिए अनुरोध किया। केवट ने शाह जी की तरफ देखा। शाह जी ने मुनीम की ओर देखा, वैष्णव साधु होने के कारण दोनों ने अनुमति दे दी। केवट ने बुलाकर बैठा लिया, नाव चल पड़ी। वह कभी सूर, कभी हित हरिवंश और कभी कबीर के पद गुनगुनाने लगा। वे दोनों
चुप थे। कभी नाव की चाल देखते, कभी नदी पार का दृश्य देखते। कभी आकाश की ओर देखने लगते। केवट डांड चलाते लोकगीत गुनगुनाने लगा। धर्मपाल ने गुनगुनाना बन्द कर दिया, आंखों में प्रशसा का भाव लिये केवट की ओर देखने लगा।
आगरा नगर दूर हो रहा था। किले के बुर्ज और गुम्बज भी धूमिल होते जा रहे थे। नाव दूर निकल गयी, गांव दिखायी पड़ने लगा। घाट पास में ही था, नाव घाट के निकट लगने लगी। सभी उतरने को उतावले हो गए। मुनीम हरखलाल को इशारा कर रहा था, घाट से कुछ दूर एक मठिया थी। केवट ने भी सर हिलाया, धर्मपाल को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वह संकेत को समझने का यत्न कर रहा था।
नाव घाट से लग गयी। केवट ने रस्से को एक खूटे से बांध दिया, नाव हिलने-डुलने लगी। गति रुक गयी, तीनों बारी-बारी से उतर गए। हरखलाल मुनीम के साथ चल पड़ा। पीछे-पीछे कुछ दूरी रखते हुए धर्मपाल भी चला। मठिया के पास वे आ गए। तांत्रिक दिखायी पड़ा, धर्मपाल सूर का पद गुनगुनाने लगा। तांत्रिक खीझ उठा, उसने प्रश्न कर दिया-'इस वैष्णव साधु को आप लोगों ने साथ क्यों रखा है ? इसे क्यों लाया ?'
'नाव पर साथ आ गया है। हम लोगों ने नहीं लाया है, घुमक्कड़ है। गांव की तरफ जाएगा, आप चिन्ता न करें।' मुनीम ने उत्तर दिया।
'बढ़ जाओ, साधु ! यहां भजन-कीर्तन नहीं...तंत्र-मन्त्र चलता है।' तांत्रिक ने धर्मपाल से कहा।
'श्रीकृष्ण की भक्ति का मन्त्र ले लो, ओझा जी! उनके अनुग्रह से सब कल्याण होगा। एक पद सुन लें।' धर्मपाल ने हाथ जोड़कर अनुरोध किया।
'यह सिक्के लो, साधु बाबा ! और गांव के लोगों को भजन सुनाओ। लौटकर आना हो, आ जाना, साथ चलेंगे।' हरखलाल ने बड़े आदर से सिक्का देते हुए कहा।
तांत्रिक ने मठिया की दीवार पर बने भूत-प्रेत के भयानक आकार और पास में पड़े नरकपाल को दिखाकर दूर जाने को कहा। धर्मपाल भजन गाता गांव की ओर चला गया। तांत्रिक ने देख लिया कि वह आंखों से दूर हो गया। उसने बातचीत आरम्भ की—'क्यों, शाहजी ! क्या कष्ट है ?
'पड़ोसी सोहनलाल नगर सेठ बनकर कष्ट दे रहा है।'
'आप तो श्रीमन्त हैं। चाहते क्या हैं ?' 'सोहनलाल और हेमचन्द्र का पतन।'
'हो सकता है। 'यदि आपकी कृपा हो तो आकाश भी झुक सकता है।'
'धरती और आकाश दोनों मुट्ठी में हैं। तंत्र साधना में इतनी बड़ी शक्ति है।
'आप मेरे लिए कुछ करें. आप जो चाहेंगे, वह जरूर।'
'आप अपने घर पर क्या कर रहे हैं ?'
'केवल कुढ़ता रहता हूं।'
'आपको भी कुछ करना पड़ेगा।'
'करूंगा।'
'शत्रु के शत्र से मेल कीजिए।'
'उसका कोई शत्रु दिखायी नहीं पड़ता।'
'ऐसा क्यों...? आप तो हैं !'
'शत्रु का शत्रु चाहिए न !'
'हिन्दू या तुरक-किसी में।'
'ढूंढ़ना पड़ेगा।
'मिल जाएगा। तुरक में मिलेगा, मैं यहां अपनी साधना से प्रेतशक्ति को जगाऊंगा जो आपके लिए...।'
'यही तो विनती है। क्या व्यय होगा?'
'मुनीम जी से कह दें ! आप क्यों चिन्ता करते हैं ? शहर से मदिरा का प्रबन्ध करना होगा।'
'मुनीम जी सब कर देंगे।'
'वही तो कह रहा हूं।' तांत्रिक मुस्कराने लगा, उसका मुस्कराना भी भयानक लगा। क्षणभर के लिए हरखलाल का हृदय कांप उठा।
उधर धर्मपाल गांव से होता लौटता हुआ मठिया के पास आ पहुंचा। दो-चार शब्दों को सुना, समझता हुआ घाट पर चला गया। केवट विश्राम कर रहा था, वह भी विश्राम करने लगा। कुछ देर बाद हरखलाल और मुनीम आगे आ गए। देखा कि वैष्णव साधु विराजमान है। यह किधर से आ गया ! कुछ सुन लिया है ? पर इससे क्या भय ?
नाव खुल गई, केवट ने नाव को चला दिया। अपनी गति से नाव चलती रही। नगर निकट आता रहा, घाट आ गया। हरखलाल और मुनीम नाव से उतर कर चले गए। धर्मपाल नदी तट पर हाथ जोड़कर भजन गाता रहा। थोड़ी देर के बाद वह चला, धीरे-धीरे वह जमाल के घर के पास आ गया। देखा कि जमाल घर से निकलकर किशनपुरा की ओर जा रहा है, वह भी पीछे-पीछे हो गया।
दोनों पिछवाड़े से लक्ष्मी भवन में आ गए। सेठ सोहनलाल खाट पर पड़े थे, बेचैनी बढ़ गई थी। वद्य जी ने ओषधि दी, कुछ क्षणों के बाद थोड़ी शान्ति मिली। मौका पाकर हेमचन्द्र ने धीरे-से जमाल से कहा–'अब आपको यह व्यापार संभालना है, मुझे समय नहीं मिल पा रहा है।
'हां, मोहन...जमाल मोहन। अब यह करना है। हेमचन्द्र को समय चाहिए।' मुंशी काका ने अनुरोध किया।
'अब मैं जा रहा हूं, दुर्गा ! दोनों पर ध्यान रखना।' आंखें बन्द किए सोहनलाल ने कहा।
'ऐसा न कहें।' मुंशी जी के स्वर में व्यथा थी।
दुर्गा कुवर चरणों में झुककर सिसकने लगी। पार्वती पिताजी के पास आ बैठी। सोहनलाल ने उसके शीश पर हाथ रख दिया, और मन्द स्वर में कहा- 'बेटी ! अपने विधर्मी भैया को मत भूलना। मेरी इच्छा है कि आचार्य गुरु प्रायश्चित करा दें, और सम्पत्ति में आधा भाग मिल जायें।
'भैया को मिलना ही है। प्रायश्चित के लिए आचार्य गुरु से भी बार-बार कहा जाएगा।'-हेमचन्द्र के ये शब्द थे। पार्वती शीश हिला रही थी, आंखों में आंसू झलकने लगे थे।
'आपने अपने पास बुला लिया, क्षमा दे दी, यही बहुत है। ज्यादा का अधिकारी मैं नहीं हूं।'-सिसकते हुए जमाल ने कहा।
'मां-बाप का प्यार असीम होता है, बेटे !' सोहनलाल ने यह कहकर बेटे और जमाई को निकट आने का संकेत दिया।
धर्मपाल वेश बदलकर योगी शिवनाथ के पास चला गया। सोना नूरी को बुलाने जाने लगी, मुंशी हरसुखलाल ते सम्पत्ति के उत्तराधिकार का कागज तैयार कर लिया। कागज में बेटे और जमाई-दोनों को आधी-आधी सम्पत्ति देने का निर्णय अंकित था। व्यापार साथ में चलेगा, मुंशी जी ने कागज पढ़कर सुना दिया। वैद्य जी ने निर्णय की प्रशंसा की। जमाल मौन था, अपने पिताजी को एकटक देख रहा था। कागज पर सेठ सोहनलाल और दुर्गा कुंवर ने हस्ताक्षर कर दिए। वैद्य जी और मुंशी जी साक्षी के रूप में थे, उनके भी हस्ताक्षर हुए।
सोहनलाल की स्थिति बिगड़ने लगी। वैद्य जी ने पुनः ओषधि दी, पर कोई लाभ न दिखाई पड़ा। मुख में गंगा और यमुना जी का जल डाला गया। लक्ष्मी भवन का यह संवाद किशनपुरा में फैल गया। पड़ोसी इकट्ठे होने लगे, योगी शिवनाथ आ पहुंचे। पुरोहित गणेशीलाल शर्मा भी आ गए। उन्होंने गोदान करा लिया।
कुछ देर के बाद नूरी आ गई, भीतर के कमरे से सब देख रही थी, झटके से पास आई। पैरों को छूकर हट गई। पडित गणेशीलाल कुछ बोल नहीं सके, विष्णु सहस्र नाम का पाठ करते रहे। सेठ जी की पलकें ख लीं, सामने श्रीकृष्ण का चित्र देखा। देखते रह गए, सर लटक गया।
लक्ष्मी भवन में शोक का सागर लहरा गया। पड़ोस में हरखलाल ने मुनीम जी से कहा-'तांत्रिक तो शक्तिशाली मालूम पड़ता है। वे जो कहें, वह सब उन्हें मिलना चाहिए।'
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